गौरवशाली भारत

देश की उम्मीद ‎‎‎ ‎‎ ‎‎ ‎‎ ‎‎

गणतंत्र दिवस का महत्त्व समझनें के लिए जानिए गणतंत्र की ये नई रूपरेखा

देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद असली चुनौती थी- व्यवस्था को गणतांत्रिक रूप देना। कड़े संघर्षों व बलिदानों के बाद हमें आजादी मिली थी। लिहाजा जरूरी था कि जिस अलोकतांत्रिक व्यवस्था से मुक्ति मिली थी, उससे पार पाते हुए गणतंत्र की स्थापना की जाए। हमने गणत्रांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया। गणतांत्रिकता का सीधा-सा अर्थ है- सामान्य जन को महत्व मिलना, आखिरी आदमी को उसकी वास्तविक जगह देना, केंद्रीयताओं के बराबर विकेंद्रीयताओं को मान देना, अपने अलावा अन्यों को स्वीकार करना, बराबरी लाना; यानी एक ऐसा संप्रभु राष्ट्र, जिसमें भाषा, धर्म, लिंग, विचार, क्षेत्र, रंग आदि के आधार पर भेदभाव न हो।

Studio/Jan.52,A52h Republic Day Celebrations (January 26, 1952): Dr. Rajendra Prasad, the President of India, driving in State towards the Saluting Base.

स्वतंत्रता सतत जागृति का नाम है। यह मुफ्त में नहीं मिलती। न ही गणतंत्र आसानी से मिलता । इसके लिए संघर्ष करना होता है। ‘स्वतंत्रता और ‘गणतंत्र को केवल राजनीतिक समझना निहायत सरलीकरण है। यह केवल मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक आदि प्रश्नों से जुड़ा मामला नहीं, इससे भी कहीं ज्यादा है। पूंजीवादी विचारों के तहत- ‘आर्थिक स्वतंत्रता यानी खुला छोड़ देना, व्यक्तिवादी विचारों के तहत- ‘लोगों के जीवन में राज्य का दखल कम से कम होना तथा साम्यवादी विचारों के तहत- ‘जब तक मनुष्य की मौलिक जरूरत पूरी नहीं होती, आर्थिक बराबरी नहीं होती तब तक आर्थिक स्वतंत्रता झूठ है माना जाता है। सच पूछिए तो ये तीनों विचार एकांगी हैं। मनुष्य की ‘सही स्वतंत्रता समग्रता में ही आ सकती है।

An old Image of Indian Republic Day Celebration on Rajpath

आज जब कलाओं पर गहरे दबाव हैं तथा ‘भावनाओं के आहत होने को लेकर विचार-प्रतिबंध तथा साहित्य व कला-निषेध तक होने लगता है, तब तो गणतंत्र के विचार को समझने की और भी जरूरत है। विचारों और कलाओं को रोकने, प्रतिबंधित करने का कार्य अमूमन हर विचारधारा के लोगों ने समय-समय पर किया है। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो अपने अलावा किसी अन्य को बर्दाश्त नहीं करती। यह गणतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। इस बहाने व्यक्ति और राज्य का संघर्ष अनिवार्य है तथा निजी आजादी पर रोक लगेगी ही। विरोधी विचार, किसी भी तरह के दमन से बेहतर है, ऐसा कोई भी सृजनात्मक आदमी मानेगा, क्योंकि गणतंत्र तो विरुद्धों के बीच सामंजस्य है। यही बात न्यायपालिका पर भी लागू होती है। वहां यदि किसी मुद्दे पर विचारों की सहमति नहीं है तो लोकतांत्रिक समन्वयन से उसे तय कर सकते हैं। यदि कहीं अंतराल है तो उसे मिल-बैठकर संवाद से दूर किया जाना चाहिए। इसी से संस्थाओं की विश्वसनीयता कायम रह पाएगी, वरना यह संंदेश जाएगा कि सब कुछ सामान्य नहीं। भारत का गणतंत्र दुनिया के उन देशों से भिन्न है, जहां एक जैसी भाषा, धर्म के लोग हैं। यहां इतनी विविधताएं हैं कि संघात्मक रचना व सोच ही काम आ सकती हैं। एक-दूसरे से जुड़ने तथा सबके लिए उचित जगह बनाने से गणतंत्र पुष्ट होता है। जनमत के नाम पर राज्य अपनी शक्ति दमन के लिए इस्तेमाल न कर सके, इसे गणतांत्रिकता के प्रयोग से लागू करना होगा। किसी भी नागरिक के लिए सबसे बड़ा पक्ष उचित प्रतिरोध व दृष्टि की ईमानदारी है। यदि उसकी विश्वसनीयता व प्रामाणिकता नष्ट हो जाए तो वह अर्थहीन ही हो जाता है।

An old image of Indian Republic Day Passes Through Connaught Place Delhi

गणतंत्र में असुरक्षा, बीमारी, भूख, अशिक्षा से पार पाना पहली खूबी होनी चाहिए। भारतीय गणराज्य इस दिशा में प्रयत्नशील है, लेकिन उसे बहुत कुछ पाना अभी बाकी है। सच तो तो यह है कि इन बाधाओं से आगे बढ़ना ही वास्तविक सभ्यता है। किसानों को इस हालत में लाना जरूरी है कि पारंपरिक खेती से घिरी उनकी मुश्किलें आसान हों, कर्जे खत्म हों, उन्हें जीवन जीने की सकारात्मक मजबूती मिले। रोजगार के अवसरों में वृद्धि को देखना होगा। योजनाएं कागजों पर नहीं सिमटी रहनी चाहिए। उन्हें जमीन पर अमल में लाकर युवाओं को सबल, सक्षम बनाना चाहिए। यदि गांवों पर फोकस किया जाए, ग्रामीण योजनाओं को पूरी तरह लागू किया जाए तो गांव से शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोका जा सकता है। शहर वैसे ही बोझ से दबे जा रहे हैं। निजी क्षेत्रों में शिक्षा व स्वास्थ्य को धंधा बना दिया गया है तथा सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं अंतिम छोर पर खड़े आदमी से बहुत दूर हैं। गावों के पारंपरिक रोजगार खत्म हो गए तथा नए रोजगार अपेक्षित संख्या में आ नहीं रहे। यदि गांवों में रोजगार मिल जाएं तो अव्यवस्था व हिंसा पर काफी हद तक अंकुश पाया जा सकेगा। नेता वर्ग व ब्यूरोक्रेसी- दोनों को आलस्य त्यागकर जनता के लिए श्रम करना होगा, आत्मीयतापूर्ण ढंग से उसके बीच जाना होगा, उसके लिए बनी नीतियों को जमीन पर उतारना होगा। राजनीति को वास्तविक कल्याण व सृजन का हेतु बनाना होगा। गणतंत्र में ‘गण को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, भागीदारी व सम्मान दिया जाएगा तो एक नया गणतंत्र वास्तविक रूप में हमारे सामने होगा।

गणतंत्र में हो रहा सकारात्मक बदलाव देश के सामान्य से सामान्य व्यक्ति तक पहुंचना चाहिए। बदलाव होना तथा होते हुए दिखना भी चाहिए। परिवर्तन के इस स्वरूप को भारत का हर शिल्पी (किसान-मजदूर से लेकर देश की अच्छाई का स्वप्न देखने वाला हरेक शख्स) इसे सृजन के तौर पर लेता है, न कि कागजी कार्य के रूप में। हमें परिवर्तन को केवल ‘घटित नहीं करना, अपितु ‘रचना है। व्यवस्था में गणतंत्र को पुष्ट करना यानी असहाय व उपेक्षित की स्थिति को बदलना है। श्रेष्ठ गणतंत्र व्यक्ति की नहीं, कानून की सरकार पर आधारित होता है। गणतंत्र विचारों की व्यवस्था है। सपने बुनने के साथ-साथ खुशहाल यथार्थ लाने व उसे बुलंदियों तक ले जाने का आधार गणतंत्र है। ऐसा गणतंत्र, जिसे आप प्यार करते हैं, जिसके लिए आप अपने जीवन में खतरे उठाते हैं, जिसके मूल्यों को आप धारण करते हैं तथा जिसकी ईमानदारी व सत्यनिष्ठा से जुड़कर आप हमेशा गर्व महसूस करते हैं।

_____________

लेखक:
श्री रविन्द्र नाथ श्रीवास्तव उर्फ़ (परिचय दास)

(प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय, नालंदा )

Leave a Reply