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पेट के लिए दिल्ली- कविता

pet ke liye delhi

आज टी. वी. पर दिखे कुछ
चेहरे जो महामारी खत्म होने
के तुरंत बाद लौट आये
दिल्ली…..

जैसे, वो महामारी खत्म
होने की उलटी गिनती
गिन रहे हों..

ऐसे चेहरों से निचुड़
गई , थी खुशी…
कुंभला गये थें
ऐसे..चहरे… 

उनके चेहरे को देखकर
ऐसा लगता….
मानों, सदियों से…
वो इसी तरह चल रहें
हों… दिशाहीन होकर
 ..निरूउद्देशय ..

और, सदियों, से टांँक दी
गई, हो  जबरदस्ती
उनके चेहरों पर, निचुड़न…

बिखरे बाल , गड़मड़ चेहरे…
जैसे… एक- दूसरे से
आपस- में – बहुत हद तक
मिलते- जुलते हों…

बड़ी अजीब बात है
कि उदासी भी और
दु:ख भी सभी चेहरों
पर एक जैसा था..

जैसे सैकड़ों चेहरे
पर एक से मुखौटे..

ढ़ोते हुए, बोझ
अपनी, जिम्मेदारियों का
वो, इसी तरह बहुत बार
लौटतें हैं, दिल्ली…
वापस काम की तलाश में..

नहीं बचा होता
उनमें कोई कौतुक, कहीं
घूमने-फिरने को लेकर.. 

दिल्ली में रहते हुए भी 
वो नहीं देखने जाते
कभी लाल- किला..

नहीं जगा पाते
अपने मन में..
कभी देखने जाना
हुमायूँ का मकबरा..

ना, ही कभी वो जा पाते हैं
देखने .इंडिया गेट…
उनके लिए होती है..
ये वक्त की बरबादी..

वे, एक वृत के अंदर
घूमते रहते हैं..
चावल-दाल, नून- तेल की
जुगाड़, में… 

वो, दिल्ली घूमने नहीं जाते
पेट के लिए जाते हैं दिल्ली..

लेखक:
महेश कुमार केशरी 

मेघदूत मार्केट फुसरो, बोकारो झारखंड

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