दुनियाभर में वातावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कुछ प्रमुख कारकों में से प्लास्टिक एक प्रमुख कारक है। ‘प्लास्टिक’ शब्द ग्रीक शब्द प्लास्टिकोज और प्लास्टोज से बना है, जिसका अर्थ है जो लचीला है या जिसे ढ़ाला, मोड़ा या मनमर्जी का आकार दिया जा सके। 21वीं सदी में पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों में प्लास्टिक बहुत बड़ी समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है, जिसके खतरों से पूरी दुनिया त्रस्त है। कनाडा के हैलीफैक्स शहर में तो वर्ष 2018 में प्लास्टिक कचरे के ही कारण इमरजेंसी लगानी पड़ी थी। भारत में भी प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या दिनों-दिन विकराल हो रही है, जो न केवल हर दृष्टि से प्रकृति पर भारी पड़ रही है बल्कि मानव जाति के साथ-साथ धरती पर विद्यमान हर प्राणी के जीवन के लिए भी बड़ा खतरा बनकर उभर रही है। यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा देश को ‘सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्त भारत’ बनाने की दिशा में 1 जुलाई से सिंगल यूज प्लास्टिक वस्तुओं के उपयोग पर प्रतिबंध लगाए जाने की घोषणा की जा चुकी है। पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार उसके बाद पॉलीस्टाइनिन और एक्सपैंडेड पॉलीस्टाइनिन सहित सिंगल यूज वाले प्लास्टिक के उत्पादन, आयात, भण्डारण, वितरण, बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा।
प्लास्टिक में बहुत सारे ऐसे रसायन होते हैं, जो कैंसर और हृदय रोग सहित कई गंभीर बीमारियों को जन्म देते हैं। आज प्लास्टिक कचरे से देश का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं है और प्लास्टिक अब आम जनजीवन का इस कदर अहम हिस्सा बन चुका है कि तमाम प्रयासों के बावजूद इस पर अंकुश लगाने में सफलता प्राप्त नहीं हो पा रही है, न ही अब तक इसका कोई भरोसेमंद विकल्प खोजा जा सका है। यह जान लेना भी दिलचस्प और जरूरी है कि प्लास्टिक की खोज कब और कैसे हुई थी? हिन्दी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से पर्यावरण पर प्रकाशित अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में मैंने इसका उल्लेख विस्तार से किया है। प्रदूषण मुक्त सांसें पुस्तक के मुताबिक मनुष्य निर्मित प्लास्टिक ‘पार्केसाइन’ का पेटेंट सबसे पहले वर्ष 1856 में बर्मिंघम इंग्लैंड के अलेक्जेंडर पार्क्स ने कराया था, जो 1862 में अपने वास्तविक रूप में दुनिया के सामने उस समय आया था, जब पहली बार 1862 में लंदन की अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में उसे रखा गया था। प्राकृतिक रबर, जिलेटीन, कोलेजीन, नाइट्रोसेल्युलोज जैसे पदार्थ प्लास्टिक के पहले उपलब्ध पदार्थ थे। 1866 में अलेक्जेंडर पार्क्स ने पार्केसाइन कम्पनी बनाकर इसका बड़े स्तर पर उत्पादन शुरू किया। पॉलिथीन दुनिया का सबसे लोकप्रिय प्लास्टिक है, जिसे सबसे पहले जर्मनी के हैंस वोन पैचमान ने वर्ष 1898 में अचानक ही खोज लिया था। प्रयोगशाला में एक प्रयोग करते समय उन्होंने सफेद रंग के मोम जैसा एक पदार्थ बनते देखा, जिसका नाम पॉलिथीन रखा गया। 1900 में पूरी तरह से सिंथेटिक, फिनोल और फॉर्मेल्डीहाइड का उपयोग करके प्लास्टिक बनाना शुरू कर दिया गया था और जर्मनी तथा फ्रांस में कैसीन से निर्मित प्लास्टिक का व्यावसायिक उत्पादन प्रारंभ हो गया था।
बेल्जियम मूल के अमेरिकी नागरिक डा. लियो हेंड्रिक बैकलैंड ने भी प्लास्टिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिन्होंने 1907 में फेनॉल तथा फॉर्मेल्डीहाइड की अभिक्रिया में कुछ परिवर्तन करके सिंथेटिक पद्धति से एक ऐसा प्लास्टिक निर्मित किया, जिसका उपयोग कई उद्योगों में किया जा सकता था। उन्होंने फेनॉल तथा फॉर्मेल्डीहाइड को मिलाकर गर्म किया, जिसे ठंडा करने पर एक कठोर पदार्थ मिला। बाद में उन्होंने इसमें लकड़ी का बुरादा, एस्बेस्टस और स्लेट पाउडर मिलाकर कई और चीजें भी बनाई। बेकलैंड के नाम पर ही उस नए प्लास्टिक का नाम 1912 में ‘बैकेलाइट’ रखा गया था। अपने इस आविष्कार के बाद बैकलैंड ने कहा भी था कि अगर वह गलत नहीं हैं तो उनका यह अविष्कार (बैकेलाइट) भविष्य के लिए अहम साबित होगा। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद प्लास्टिक बनाने की तकनीक में जबरदस्त विकास हुआ। औद्योगिक रूप से पॉलिथीन का आविष्कार 27 मार्च 1933 को ब्रिटेन के चेशायर प्रांत के नॉर्थविच शहर में दुर्घटनावश हुआ था। प्रदूषण मुक्त सांसें पुस्तक में बताया गया है कि कैमिस्टों की एक टीम आईसीआई वेलरस्कॉट प्लांट में पॉलीमर की खोज कर रही थी। उसी खोज के दौरान एक रात उनका यह प्रयास दुर्घटनावश विफल हो गया लेकिन उसी खोज के दौरान सफेद रंग का एक पदार्थ निकला, जो खोजकर्ताओं के अनुसार बिल्कुल सही नहीं था। वहां मौजूद युवा कैमस्टि जॉर्ज फीचम इस आविष्कार के गवाह बने थे। हालांकि उस वक्त वह भी नहीं जानते थे कि यह तरल पदार्थ क्या है और यह अच्छा है या बुरा। इसी पदार्थ ने औद्योगिक रूप से पॉलिथीन का रूप ले लिया। दैनिक जीवन में इस्तेमाल की जा सकने पॉलिथीन की इसी खोज को दुनियाभर में मान्यता मिली।
प्लास्टिक की खोज मानव सभ्यता के लिए एक क्रांतिकारी खोज इसलिए मानी गई थी क्योंकि उससे पहले जो वस्तुएं लोहा, लकड़ी इत्यादि अन्य पदार्थों से बनाई जाती थी, ऐसी बहुत सी वस्तुएं प्लास्टिक से बनाई जाने लगी। दरअसल प्लास्टिक अन्य पदार्थों की तुलना में कई कारणों से बेहतर था। इससे बनाई जाने वाली वस्तुएं न तो जल्दी से टूटती हैं, न ही लकड़ी या कागज की भांति सड़ती हैं और न ही किसी भी वातावरण के अंदर इन वस्तुओं पर लोहे की भांति जंग लगता है। प्लास्टिक के ऊपर जल्दी से किसी भी प्रकार के वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता। प्लास्टिक से बनी वस्तुएं लोहे या अन्य धातुओं से बनी वस्तुओं के मुकाबले सस्ती और लंबे समय तक टिकने वाली होती हैं, इसीलिए आधुनिक युग में प्लास्टिक का उपयोग निरन्तर बढ़ता गया। प्लास्टिक चूंकि विद्युत का कुचालक होता है और इसकी आयु भी बहुत लंबी होती है, इसलिए इसकी इन्हीं खूबियों को देखते हुए इससे विद्युतीय उपकरण भी बनाए जाते हैं।
प्लास्टिक की सबसे बड़ी विशेषता है इसे आसानी से किसी भी आकार में बदल सकना तथा इसके अंदर कोई और पदार्थ मिलाकर अन्य वस्तुएं बना लेना, जो बहुत टिकाऊ साबित होती हैं। यही कारण है कि प्लास्टिक आज हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग बन चुका है, जिसका इस्तेमाल हमारी रोजमर्रा की हर तरह की जरूरतें पूरी करने में हो रहा है। पिछली सदी में जब विविध रूपों में प्लास्टिक की खोज की गई थी तो इसे मानव सभ्यता और विज्ञान की बहुत बड़ी सफलता माना गया था किन्तु आज यही प्लास्टिक पृथ्वीवासियों के जी का जंजाल बन गया है, इसीलिए इससे छुटकारा पाने के लिए शुरूआती चरण में सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्ति की दिशा में कदम आगे बढ़ाए गए हैं। दरअसल ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में पॉलिथीन आज सबसे बड़ी बाधा है और सिंगल यूज प्लास्टिक के खिलाफ अभियान चलाए जाने का कारण यही है कि यदि इसका प्रयोग नहीं रोका गया तो भू-रक्षण का नया स्वरूप सामने आएगा और फिर जमीन की उत्पादकता वापस प्राप्त करना नामुमकिन होगा। विकास के साथ-साथ देश के तमाम शहरों में प्लास्टिक कचरा बढ़ रहा है और इसी कारण चारों ओर बिखरी पॉलीथीन के चलते लगभग सभी शहरों में ड्रेनेज सिस्टम ठप्प पड़े रहते हैं। नॉन बायोडिग्रेडेयल प्लास्टिक थैलियों को जमीन में विघटित होकर नष्ट होने में करीब एक हजार साल लंबा समय लगता है, जिसका सीधा और स्पष्ट अर्थ है कि हम अपनी थोड़ी सी सुविधाओं के लिए इन थैलियों का इस्तेमाल कर धरती को अगले एक हजार वर्षों के लिए प्रदूषित कर रहे हैं। इसीलिए पर्यावरण की बेहतरी के लिए प्लास्टिक के विभिन्न रूपों पर प्रतिबंध लगाया जाना अब समय की सबसे बड़ी मांग है।
लेखक:
योगेश कुमार गोयल