भारतीय संविधान का निर्माण जिस मूल भावना के साथ हुआ था, धीरे-धीरे राजनीतिक स्वार्थों के चलते उस मूल भावना को पीछे धकेल दिया गया। 26 नवंबर 1949 को भारत के लोगों ने ये तय किया था कि देश अब संविधान के हिसाब से चलेगा और हमारा अपना संविधान होगा। किसी आसमानी धार्मिक किताब या किसी व्यक्ति की इच्छा के अनुसार देश नहीं चलेगा, संविधान देश की सबसे पवित्र पुस्तक है, ये बात आज तक देश का नागरिक समझ ही नहीं पाया। गीता का सार तो हम सभी को पता है कि ‘कर्म करो पर फल की इच्छा मत करो।” पर हममें से शायद कुछ ही लोगों को संविधान का सार पता होगा, जो ये था कि ‘स्वतंत्रता, समानता और न्याय ही हमारे शासन का आधार है।
आज सब कुछ बिल्कुल बदल चुका है। आज रंगों का बंटवारा हो चुका है। हरा रंग मुसलमान का हो चुका है। भगवा रंग हिंदू का हो चुका है। भोजन बंट गए हैं। बिरयानी मुसलमान की हो गई है, खिचड़ी हिंदू की हो गई है। पक्षियों को भी हम धर्म के आधार पर देख रहे हैं। धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा होने के बाद भी संविधान निर्माताओं ने ये सोच लिया था कि हिंदू-मुस्लिम की समस्या अब हमेशा के लिए खत्म हो गई।
आजादी के समय भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाला बंटवारा, भारत के इतिहास का सबसे बड़ा सांप्रदायिक बंटवारा था। जो लोग ये कहते हैं कि ये मुद्दा अब पैदा हो रहा है, दरअसल ये वो मुद्दा है, जिस पर देश दो टुकड़ों में बंट चुका है। सोचने की बात है कि ये उस समय कितना बड़ा मुद्दा रहा होगा, जिसने देश को ही तोड़ दिया था।
लेकिन देश टूटने के बाद हमारे संविधान निर्माताओं को ये लगा था कि अब ये समस्या शायद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी, क्योंकि मुस्लिम नेताओं और मुस्लिम जनसंख्या को अलग देश दे दिया गया था। लेकिन पाकिस्तान अलग होने के बाद भी भारत से, भारत की राजनीति से ये मुद्दा अलग नहीं हुआ। भारत पाकिस्तान का सीमा बंटवारा तो हो गया, लेकिन पाकिस्तान आज भी अपने राजनीतिक एजेंडे के कारण हमारे साथ चिपका हुआ है। देश के लोग बंटते चले गए और देश में आज भी एकता की कमी महसूस होती है।
अगर किसी साधारण व्यक्ति को भगवद्गीता दी जाए तो वो उसे माथे से लगा लेगा, लेकिन उसी व्यक्ति को यदि भारत का संविधान दिया जाए तो वो शायद आश्चर्य से यही पूछेगा कि मैं इसका क्या करूं? आप मुझे ये क्यों दे रहे हैं ? दरअसल हम एक राष्ट्र के रूप में अपने संविधान को शासन की गीता बनाने से चूक गए हैं। देश के सबसे कमजोर आदमी के जीवन में संविधान का असर पहुंचा ही नहीं है। हम अदालत में गीता की कसम लेकर सच बोलते हैं, पर संविधान को लेकर वो भावना देश के नागरिकों में जन्म ही नहीं ले सकी।
शोध-विचार और धैर्य से भरी थी सविधान की निर्माण प्रक्रिया
26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकृत किए जाने के बाद एक विशेष कागज पर हाथ से लिख कर इसे तैयार किया गया था। इस विशेष कागज की उम्र करीब 1000 वर्ष है, यानी 1000 वर्षों तक ये सुरक्षित रहेगा। 251 पन्नों पर लिख कर तैयार की गई संविधान की इस कॉपी का वजन करीब 4 किलोग्राम है। संविधान की इस कॉपी पर ही 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के 292 प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए थे।
भारत की संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई। संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा के कुल 11 अधिवेशन हुए थे। इन अधिवेशनों में कुल 53 हजार लोग शामिल हुए। संविधान सभा को इसे पास करने में 2 वर्ष 11 महीने और 17 दिन का समय लगा था। संविधान का ड्राफ्ट बनाने से पहले संविधान सभा के सलाहकार बी एन राव के निर्देशन में 40 देशों के संविधान का अध्ययन किया गया। अमेरिका का संविधान दुनिया का सबसे छोटा लिखित संविधान है और इसके मुकाबले भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है और अमेरिका के संविधान से 5 गुना बड़ा है।
संविधान के मूल्यों से अपरिचित हमारे राजनेता
हमारे देश के नेता संविधान के बारे में कभी बात नहीं करते और ना ही कभी देश के नागरिकों को इसके प्रति जागरूक करते हैं। इसलिए देश के आम नागरिकों को संविधान के बारे में जानकारी बहुत कम है। इसका अपवाद वर्ष 2010 में मिलता है। संविधान को अपनाने के 60 वर्ष पूरा होने के मौके पर गुजरात के सुरेंद्रनगर में संविधान गौरव यात्रा का आयोजन किया गया था। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। तब संविधान की एक बड़ी कॉपी को हाथ में लेकर पूरे शहर में ये यात्रा निकाली गई थी।
इस संविधान गौरव यात्रा की तुलना एक जैन विद्वान आचार्य हेमचंद्राचार्य को दिए गए सम्मान से की जाती है। उन्होंने प्राकृत भाषा के व्याकरण के एक ग्रंथ की रचना की थी, जिसका नाम है ‘सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन।’ कहा जाता है कि आज से लगभग 900 वर्ष पूर्व गुजरात के ही पाटन शहर में राजा सिद्धराज ने इस ग्रंथ को हाथी पर रखकर धूमधाम से एक यात्रा निकाली थी। लेकिन आम लोगों के बीच संविधान को प्रचलित करने के प्रयास हमेशा कमजोर रहे।
संविधान निर्माण में धारा 370, आरक्षण और यूनिफार्म सिविल कोड की धारणा क्या थी
वर्ष 1947 में भारत को आजादी मिलने के बाद संविधान सभा के सदस्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से मिले और उनसे पूछा कि वह संविधान में क्या चाहते हैं? तब उन्होंने संविधान सभा के सदस्यों से कहा था, “मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं, जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी आपने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वो उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा।” गांधी जी के इस जंतर से स्पष्ट है कि वो चाहते थे कि संविधान सभी नागरिकों को समान दृष्टि से देखे। ऐसी कोशिश भी हुई, लेकिन संविधान में अनुच्छेद 370 और आरक्षण जैसे मुद्दे रखे गए और बाद में उनका जिस तरह प्रयोग किया गया, वो देश में एकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे।
अक्टूबर 1949 में संविधान सभा में आर्टिकल 306 ए पर चर्चा हुई थी बाद में इसका नाम बदलकर आर्टिकल 370 कर दिया गया। एन गोपालस्वामी अयंगर ने इस आर्टिकल का मसौदा तैयार किया था, उन्हें पंडित जवाहरलाल नेहरू का करीबी माना जाता था। इसमें कश्मीर को एक विशेष दर्जा दिया गया था। कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक मौलाना हसरत मोहानी ने एक सवाल पूछा था कि ऐसा भेदभाव क्यों किया जा रहा है? इस पर अयंगर ने जवाब दिया था कि जम्मू-कश्मीर दूसरे राज्यों की तरह भारत में शामिल होने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है, इसलिए भेदभाव किया जा रहा है। अगर संविधान सभा ने अनुच्छेद 370 से जम्मू-कश्मीर को तब विशेष दर्जा नहीं दिया होता तो आजाद हिंदुस्तान के इतिहास में अनुच्छेद 370 का और जम्मू-कश्मीर का विवाद होता ही नहीं।
इसी तरह से संविधान सभा में आरक्षण के मुद्दे पर भी बहस हुई थी। मई 1949 में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संविधान सभा की बहस के दौरान कहा था कि, “मेरी इच्छा ये है कि हम ऐसे समाज की रचना करें, जहां हर जाति के लिए समान मौके हों, ऐसी स्थिति में जाति के आधार पर आरक्षण की कोई जरूरत नहीं होगी।” उस समय सरदार वल्लभ भाई पटेल के आरक्षण को लेकर ये विचार थे, यानी वर्ष 1949 में ही बहुत से ऐसे लोग थे, जो मूल रूप से जाति के आधार पर आरक्षण देने के पक्ष में नहीं थे।
आरक्षण को लागू करने की सबसे बड़ी वकालत डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ही की थी। उन्होंने कहा था, आरक्षण के जरिए प्रशासन में कुछ विशेष जातियों का प्रवेश होगा जो अब तक प्रशासन से बाहर रहे हैं, इसलिए इन लोगों को सत्ता के माध्यम से ताकत मिलेगी और ये सशक्त होंगे। हालांकि डॉ.अंबेडकर भी यह मानते थे कि आरक्षण की व्यवस्था स्थाई नहीं होनी चाहिए। इस व्यवस्था का हर 10 वर्ष में मूल्यांकन होना चाहिए और जरूरत पूरी होने पर इसे बंद कर देना चाहिए। लेकिन ऐसा कभी संभव नहीं हो पाया और आरक्षण का फार्मूला अब चुनाव में वोट पाने का फार्मूला बन गया है।
होना तो ये चाहिए था कि हर 5 साल में सरकारों को ये बताना चाहिए था कि कैसे आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या कम हो रही है और उनका लक्ष्य यह है कि एक दिन देश में आरक्षण की आवश्यकता किसी भी व्यक्ति को ना रह जाए। सरकारों को इसी लक्ष्य की ओर चलना चाहिए था, लेकिन हो इसका उल्टा रहा है। हमारे देश की सरकारें लोगों को खुश करने के लिए और चुनाव जीतने के लिए हर 5 साल बाद आरक्षण के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या और बढ़ाती चली गईं। आजादी के 74 वर्ष बाद अब ऐसी स्थिति आ जानी चाहिए थी, जब सरकार ये कह सके कि अब हमारे देश में एक भी नागरिक ऐसा नहीं बचा जिसे आरक्षण की जरूरत पड़े।
संविधान लोगों में भगवत गीता की तरह लोकप्रिय नहीं हो पाया, इसकी कुछ वजहें हैं। सविधान के नीति निर्देशक तत्व में लिखा है कि राज्यों को समान आचार संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का विकास करना चाहिए, पर आज तक ऐसा हुआ नहीं। 2019 तक देश में तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं को कष्ट देता रहा। ये संविधान के खिलाफ था, पर तुष्टीकरण की वजह से ये सब होता रहा। 1947 में धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ और भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बना। आजादी मिलने के बाद हम आर्थिक रूप से एक गरीब देश थे और आज 74 वर्षों के बाद भी देश में करोड़ों लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे ही हैं।
देश में आज भी सच्चे अर्थों में समानता नहीं आई। देश के अलग-अलग राज्य धर्म और जाति के आधार पर आज भी अपनी जनता के साथ भेदभाव करते हैं। देश में सभी व्यक्तियों को आजादी है, लेकिन जब मीडिया अपने इस अधिकार का प्रयोग करता है तो कुछ राज्य सरकारें पत्रकारों को जेल में डाल देती हैं। संविधान एक ईमानदार देश की कल्पना करता है, लेकिन देश में भ्रष्टाचार एक आदत बन चुका है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है ‘ना खाऊंगा न खाने दूंगा।’ ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार को रोक लिया गया है लेकिन निचले स्तर पर अब भी देश से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हुआ है।
डॉक्टर अंबेडकर ने कहा था, “संविधान कितना भी अच्छा हो, अगर इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होंगे तो यह बुरा ही साबित होगा और अगर संविधान बुरा है पर उसका इस्तेमाल करने वाले अच्छे लोग होंगे तो संविधान भी अच्छा सिद्ध होगा।”
वास्तव में जिन विचारों को लेकर संविधान निर्माताओं ने संविधान को बनाया था वो आजादी के इतने वर्षों बाद कहीं ना कहीं पीछे छूट चुके हैं। आज संविधान को अपने-अपने हिसाब से पेश किया जाता है। आज भी हमारे देश से सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार जैसी बुराइयां समाप्त नहीं हो पाईं। अभिव्यक्ति की आजादी का अनुचित प्रयोग किया जाता है। धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा भी अपने स्वार्थ के हिसाब से की जाती है। लोकतंत्र अब भीड़ तंत्र बनता जा रहा है और देश में कुछ लोगों के अधिकार दूसरों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं। ये सब देख कर एक आम नागरिक के मन में यही सवाल उठता है कि क्या हमारे देश का संविधान सही है? क्या इसका पूरी तरह से पालन हो रहा है और क्या इसके अनुरूप देश सही तरह से चल पा रहा है?
लेखिका
रंजना मिश्रा
कानपुर, उत्तर प्रदेश