मुंबई: भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की एक रिपोर्ट में सरकारी कर्ज का स्तर अगले 2-3 वर्ष में कम करने की पारदर्शी रणनीति की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा गया है कि मध्यकालिक वृद्धि की संभावनाओं को बनाए रखने के लिए जरुरी है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अगले 2-3 वर्षों में सरकारी कर्ज के अनुपात को जीडीपी के 66 प्रतिशत से नीचे लाने की स्पष्ट पारदर्शी रणनीति होनी चाहिए क्योंकि ऐतिहासिक रुझान दर्शाते हैं कि सरकारी ऋण जीडीपी के 50 प्रतिशत से ऊपर होने पर दीर्घकालीन ब्याज बढ़ जाता है और इसका वृद्धि की संभावनाओं पर असर पड़ता है।
वर्ष 2020-21 में भारत में केंद्र और राज्य सरकारों का सम्मिलित कर्ज जीडीपी के 77.5 प्रतिशत तक पहुंच गया था जिसमें राज्यों का कर्ज 26.63 प्रतिशत था।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कोविड के बाद के दौर में निजी क्षेत्र के निवेश पर आधारित आर्थिक वृद्धि हासिल करने के लिए मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों में समय से नए संतुलन बनाना जरूरी है।
आरबीआई की मुद्रा और वित्त रिपोर्ट 2021-22 में कहा गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की गतिविधियों में सुधार सरकारी प्रोत्साहनों से उत्प्रेरित है। रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक वृद्धि के वातावरण के लिए नए खतरे पैदा हो गए हैं। यूक्रेन की लड़ाई से मुद्रास्फीति में तेजी आयी है और अमेरिका में गैर-परंपरागत उदार मौद्रिक नीति को समान्य बनाने की प्रक्रिया से भी चुनौती पैदा हुयी है।
रिपोर्ट में कहा गया,“कोविड के बाद के दौर में निजी क्षेत्र के नेतृत्व में वृद्धि दर को तेज करने के लिए उपयुक्त नीतिगत वातावरण की बहाली और सृजन आवश्यक है।”
इसमें कहा गया है कि कोविड के दौरान बैंकिंग प्रणाली में नगदी का प्रवाह अधिक रहने से वित्तिय परिस्थितियों को आसान बनाने में काफी मदद मिली थी। लेकिन अब नगदी के प्रवाह को नपे तुले अंदाज में कम करने की जरूरत है।
रिपोर्ट के अनुसार,“जब नगदी का प्रवाह शुद्ध देनदारी (मांग और मियादी जमाओं की देनदारियों (एनडीटीएल)) से 1.5 गुने से अधिक बना रहता है तो नगद धन के प्रवाह में हर एक प्रतिशत की वृद्धि से मुद्रास्फीति वर्ष में प्रतिशत 0.60 अंक बढ़ जाती है।” रिपोर्ट के अनुसार अतिरिक्त तरलता एनडीटीएल के 1.5 प्रतिशत तक सीमित रहने से मुद्रास्फीति का कोई बड़ा जोखिम नहीं रहता।
रिपोर्ट के अनुसार चूंकि मुद्रास्फीति इस समय 4-6 प्रतिशत के स्तर से ऊंची चल रही है। ऐसे में वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति बढ़ान केे उपायों के जरिए मुद्रास्फीति को काबू में रखने की प्राथमिकता होनी चाहिए न कि अतिरिक्त नगदी को बनाए रखने की निष्क्रिय मौद्रिक उदारता का रुख रखना चाहिए।
रिपोर्ट में ऐतिहासिक रुझानों का हवाला देते हुए कहा गया है कि जब सरकारी कर्ज सकल घरेलू उत्पाद से 55 प्रतिशत से ऊपर हो जाता है तो दीर्घकालिन ब्याज दरों पर दबाव बढ़ जाता है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि भारत में अगले पांच साल तक सरकारी कर्ज का स्तर जीडीपी के 75 प्रतिशत से नीचे आने की संभावना नहीं दिखती है।
रिपोर्ट में कहा गया कि मध्यकालिक आर्थिक वृद्धि की संभावनाओं को बनाए रखने के लिए सरकारी ऋण को जीडीपी के 66 प्रतिशत से नीचे लाने की एक मध्यकालिक पारदर्शी रणनीति जरूरी है।
गौरतलब है कि कोविड-19 महामारी के दौरान देश की आर्थिक और समाजिक जरूरतों को संभालने के लिए भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ा था। इससे कर्ज का स्तर अचानक ऊंचा हो गया है।