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विश्व मंच पर हिंदी की भूमिका

hindi in globalisation world

हिंदी की विश्व यात्रा किस मुहूर्त में शुरू हुई होगी, इसका कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है और संभवत यह जानना भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह जानना कि आज विश्व के कोने-कोने में हिंदी भाषा और साहित्य के जानकार अनेक प्रवासी भारतीय और विदेशी विधान मिल जाएंगे। संसार की लगभग सभी महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के विभाग है। इसके अतिरिक्त नेपाल, मॉरीशस, फिजी,गयाना, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, साउथ अफ्रीका, हॉलैंड, ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका आदि अनेक देशों में भारतवंशी और अप्रवासी भारतीयों के ऐसे बड़े समाज में मौजूद है, जो रोजमर्रा की जिंदगी में, अपने सांस्कृतिक अनुष्ठानों, उत्सवों और त्यौहारों के अवसरों पर विशेष रूप से हिंदी और आंशिक रूप से अन्य भारतीय भाषाओं का खुलकर प्रयोग करते हैं।

आज वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के दौर में कई तरह से हिंदी का महत्व सामने आया है। आज अनेक विदेशी तथा बहुदेशीय कंपनियां अपने प्रतिष्ठानों में ऐसे अधिकारियों को नियुक्त करने में विशेष रूचि ले रही है जो हिंदी या अन्य भारतीय भाषाएं जानते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि यदि भारत के अथाह संभावनाओं वाले बाजार को हस्तगत करना है तो हिंदी ही इसके लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माध्यम है।

अभी हाल की संचार क्रांति ने इसे सिद्ध भी कर दिया है। हिंदी की देशव्यापी शक्ति को लेकर जो तरह-तरह की बातें की जाती थी, आज “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया” ने जाने-अनजाने में हिंदी की उस उर्जा को, उस शक्ति को उजागर कर दिया है। टेलीविजन में रेडियो के कार्यक्रमों में, विज्ञापनों में यदि अंग्रेजी का प्रतिशत खोजा जाए तो वह नगण्य प्राय: ही है। प्रादेशिक कार्यक्रमों में प्रादेशिक भाषाओं और अखिल भारतीय प्रसारण में हिंदी के कार्यक्रम और विज्ञापनों का बड़ा प्रतिशत इस तथ्य को स्वत: सिद्ध कर देता है। हॉलीवुड के प्रसिद्ध निर्माता भी अपनी फिल्मों को हिंदी में डब करके प्रदर्शित करने में रुचि दिखा रहे हैं। इसके साथ ही अनेक अंग्रेजी टेलीविजन सीरियलों को हिंदी में डब करके प्रदर्शित किया जा रहा है।

विश्व मंच पर हिंदी की सार्थक भूमिका का एक पक्ष हिंदी फिल्में और उसके संगीत से जुड़ा है। हिंदी को दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाने में हिंदी फिल्मों ने बड़ी भूमिका निभाई है। फिल्मों के अतिरिक्त जगजीत सिंह, पंकज उदास, अनूप जलोटा, हरि ओम शरण जैसे गीत, गजल एवं भजन गायकों ने हिंदी प्रचार-प्रसार में हाथ बँटाया है।

भारत को एक विशाल बाजार मानने वालों को हिंदी का ही सहारा है क्योंकि इस देश की आधी से ज्यादा जनसंख्या हिंदी बोलती है और बाकी जनसंख्या में ऐसा बहुत बड़ा हिस्सा है जो हिंदी समझता है अत: हिंदी के रथ पर चढ़कर ही भारतीय बाजाररूपी रणक्षेत्र को जीता जा सकता है। हिंदी भाषा के माध्यम से ही वे अपने-अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ा सकते हैं। उसे जन-जन तक पहुंचा सकते हैं।

सिर्फ व्यापारी वर्ग ही नहीं वरन सत्ताधारी राजनीतिज्ञ भी यह जानता है कि हिंदी के बिना वह अखिल भारतीय नेता नहीं बन सकता। हिंदी की इसी अनिवार्यता ने हमारे कन्नड़ भाषी पूर्व प्रधानमंत्री को 3 महीने के कठोर अभ्यास द्वारा लाल किले को प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस का संदेश हिंदी में देने के लिए विवश कर दिया था।

यहां एक बात अवश्य ही ध्यान देने की है कि इन संचार माध्यमों में जो हिंदी प्रयोग में लाई जा रही है उसका स्वरूप वह नहीं है जो हम एक अर्से से सुनते और पढ़ते आए हैं। आज की हिंदी प्रेमचंद्र, प्रसाद, निराला की हिंदी से बहुत आगे निकल आई है। उसके शब्द भंडार में, खासतौर से प्रदेशिक भाषाओं के शब्दों के मुकाबले अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग बहुत बड़ा है। परिणामत: मत धीरे-धीरे उसके वाक्य विन्यास और शब्द प्रयोगों में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। नई कविता और नई कहानी की भाषा ने इस परिवर्तन की सूचना बहुत पहले ही दे दी थी लेकिन आज का पढ़ा-लिखा वर्ग ही नहीं, रेडियो-टेलीविजन सुनने-देखने वाला सामान्य वर्ग भी अपनी भाषा में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग करने लगा है।

भाषा की शुद्धता के आग्रही व्यक्तियों के लिए यह खतरे की घंटी है लेकिन भाषा के विकास को एक सतत् प्रवाहमान प्रक्रिया मानने वालों के लिए यह भाषा के विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह हिंदी का ही एक ऐसा विकसित रूप है जो अपनी परिनिष्ठिता और मानकता में भले ही पत्नोंमुखी प्रतीत हो परंतु आगे आने वाले समय में जो हिंदी रहेगी वह कुछ ऐसी ही आम-फहम हिंदी होगी जिसमें अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बढ़ता जाएगा। भाषा के विकास की यह भी एक सहज प्रक्रिया है।

हिंदी को विश्व-भाषा बनाने का श्रेय वस्तुत: उन प्रवासी भारतीयों को जाता है जो अंग्रेज उपनिवेशवादियों द्वारा बहकाकर मॉरीशस, गयाना, ट्रिनिडाड, सूरीनाम, फिजी जैसे देशों में श्रमिक बनाकर भेजे गए थे। शर्तबंदी प्रथा की अमानवीय धाराओं में बंधे से असहाय भारतीय मजबूर गन्ने के खेतों में अपना खून पसीना बहाते रहे। हिंदी इन्हीं श्रमिकों के सुख-दुख की भाषा थी उनकी सांस्कृतिक एकता की संवाहिका थी, उनके विरोध की प्रखर अभिव्यक्ति थी।

प्रवासी भारतीयों के कठिन संघर्ष और उन पर होने वाले अत्याचारों की कहानियां इस शताब्दी के आरंभ से ही भारत पहुंचती रही थी। लेकिन तब ब्रिटिश सरकार के चलते उन पर कोई सुनवाई नहीं होती थी। लेकिन प्रवासी भारतीयों के सुख-दुख को जानने-समझने की चेष्टा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों द्वारा होने लगी थी। स्वयं महात्मा गांधी उनके वकील बनकर दक्षिण अफ्रीका गए थे जहां रंगभेद की भयावहता से उनका परिचय हुआ। यह परिचय इतना युगांतकारी था कि कालांतर में एशिया और अफ्रीका का भाग्य ही बदल गया।

इस दिशा में गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, सी.एफ.एंड्यूज,  बनारसी दास चतुर्वेदी, प्रभृति विद्वानों के द्वारा किए गए कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुए और उनके प्रयासों के फलस्वरूप ही सन 1916 में भारतीय मजदूरों को ब्रिटिश उपनिवेशों में कुली बनाकर भेजने वाली भयावह शर्तबंदी प्रथा को समाप्त करने का कानून पास किया गया।

यह सब एक लंबी कहानी है लेकिन इसका एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि भारत की आजादी के बाद के वर्षों में भारत इन प्रवासी-संतानों को भूल गया। श्री बनारसी दास चतुर्वेदी जीवन प्रयन्त प्रवासी भारतीयों के मित्र रहे और दिल्ली में एक प्रवासी भवन बनाने का सपना देखते चले गए। बहरहाल प्रवासी भवन तो ना बन सका लेकिन सन 1975 में नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन तथा उसके बाद के सम्मेलनों के मंच पर इन प्रवासी भारतीयों से भारत का संबंध पुन: जुड़ा और हिंदी वह सेतु बनी जिस पर चलकर यह लोग स्वतंत्र भारत की आत्मा से आकर जुड़े। उनके भावुक उद्धगारों के माध्यम से भारत अपने पिछड़े भाई बहनों से मिल सका और यह भी जान सका कि इन प्रवासी भारतीयों ने विजातीय लोगों के बीच किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखा है। वस्तुत हिंदी ही इनके सुख-दुख की भाषा थी पूर्णविराम सांस्कृतिक एकता की सम वाहिका और अत्याचारों के खिलाफ उनके विरोध की मुखर अभिव्यक्ति थी।

यही कारण था कि अंग्रेज उपनिवेशवादी उनकी एकता को तोड़ने के लिए हिंदी भाषा को निरंतर शक्तिहीन बनाने की कोशिश में लगे रहे। वे चाहते थे कि किसी भी तरह उनकी भाषा उनसे दूर हो जाए। धीरे-धीरे वे इसमें सफल भी हुए। आज गयाना और ट्रिनीडॉट के भारतवंशियों की संपर्क भाषा पूरी तरह से अंग्रेजी हो गई है पर सौभाग्य से उनके सांस्कृतिक अनुष्ठानों एवं रीति-रिवाजों की भाषा आज भी संस्कृत और हिंदी ही है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आज भी अधिकांश भारतवंशी बहुल देश गैर बराबरी के अभिशाप से पीड़ित है तथा इसके विरुद्ध अपनी लड़ाई जारी रखे हुए है। गयाना में सन 1953,1957 तथा 1961 में संपन्न हुए तीनों चुनावों में बहुमत प्राप्त डॉक्टर छेदी जगन की सरकार को बार-बार अपदस्थ किए जाने के बाद सरकार ने भारतवंशी समाज के वि सांस्कृतिकरण के लिए जो कुछ किया वह भारतीयों की सांस्कृतिक अस्मिता को तोड़ने की गहरी साजिश थी जिसे पश्चिमी जगत का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनुमोदन प्राप्त था।

सन 1982 में सूरीनाम में हुए सैनिक विद्रोह के मूल में भी भारतीयों के बढ़ते महत्व और वर्चस्व को तोड़ना था। सन 1987 में फिजी की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से चुनी गई भारतवंशी बहुल सरकार को भी सैनिक विद्रोह द्वारा अपदस्थ कर दिया गया था और तत्पश्चात एक ऐसा संविधान बना दिया गया है कि फिजी में अब कभी भी भारतीयों का राजनीतिक सत्ता में वर्चस्व नहीं बढ़ सकेगा। ये द्वितीय  तो क्या तृतीय श्रेणी से भी गए बीते नागरिकों की हैसियत वाले हो गए हैं। मॉरीशस में फ्रांस और ट्रिनीडाड में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठानों का हस्तक्षेप इसी प्रक्रिया की देन है। भारतवंशी बहुल देशों में भारतीयों के वर्चस्व, उनकी भाषा हिंदी और उनकी अस्मिता को समाप्त करने, उन्हें गैर बराबर मानने तथा सत्ता में भागीदारी ना देने के कुचक्रो की एक लंबी परंपरा है जो आज ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जारी है।

भारत में भले ही हिंदी को प्रादेशिकता की सीमाओं में बांधकर देखने की प्रवृत्ति मिल जाएगी लेकिन भारत से बाहर हिंदी भारतीय होने के गौरव की मुखर अभिव्यक्ति है। वह भारतीयता और भारतीय मन की अस्मिता का प्रतीक है। संस्कृति मूल से जुड़ी रहने के कारण हिंदी भाषा और साहित्य, सहज ही,  हजारों साल से चली आ रही हमारी सामाजिक संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान की परंपरा से हमें जोड़ देती है। विश्व के किसी भी हिस्से में रहने वाला कोई भी व्यक्ति आज भारत की महान सांस्कृतिक विरासत वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत, अमीर खुसरो, जायसी, तुलसी, सूर, कबीर, मीराबाई, रसखान, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला जैसे महान ग्रंथों और रचनाकारों का सम्यक अध्ययन मनन करना चाहे तो हिंदी ही वह माध्यम है जो उसे इनकी नैसर्गिक सुगंध और सौंदर्य की प्रतीत करा सकती है। भारत की महान साहित्यिक परंपरा की पहचान यदि विश्व में होनी है तो वह अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीय साहित्यकारों से नहीं वरन् वह पहचान उपरोक्त रचनाकारों के साहित्य से ही होगी। वह होगी भारतीय भाषा में लिखे गए महान साहित्य से।

भारत की आत्मा की पहचान भारतीय भाषाओं और विशेष हिंदी में लिखे गए साहित्य से ही हो सकती है यह निर्विवाद है। इस बात की पुष्टि हेतु एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। अपने ट्रिनीडाड  प्रवास के दौरान सन 1990 में एक क्रिसमस पार्टी में अपनी एक मित्र के अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक वीएस नायपॉल से अचानक ही भेंट हो गई। वह ट्रिनीडाड में जन्मे भारतवंशी है। मेरा परिचय कराते हुए मेरी मित्र ने उनसे कहा कि यह भारतीय दूतावास में सांस्कृतिक अधिकारी है। हिंदी के लेखक है तथा यूनिवर्सिटी ऑफ द वेस्ट इंडीज में हिंदी शिक्षण का कार्य भी इन्होंने शुरू किया है।

एकांत प्रेमी नायपॉल ने बेहद आत्मीयता से मुझे पास बैठने को कहा। मैं इस अप्रत्याशित भेट से भौजक ही था कि उन्होंने मुझसे कहा कि यदि मैं उन्हें प्रेमचंद मीरा और कबीर के बारे में कुछ बता सकू  तो उन्हें अच्छा लगेगा क्योंकि अच्छे हैं अनुवादों के अभाव में उनके बारे में बहुत कम जानते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि बहुत कम जानने की बात कहते हुए भी वे इन सब के बारे में बहुत कुछ जानते थे मुझे याद है उन्होंने जानना चाहा था कि क्या प्रेमचंद्र इतने गरीब और अभावग्रस्त थे  जितना कि उन्हें चित्रित किया गया है ? उन्होंने प्रेमचंद के उपन्यास गोदान की रंगभूमि के बारे में बात की तथा उनकी पत्रिका हंस के प्रकाशन के बारे में कुछ जानकारी चाही श्री वीएस नायपॉल से हुई इस चर्चा में यह बात भी निकल कर आई थी आज हिंदी की अनेक महान कृतियों के अच्छे अनुवाद निकलने चाहिए।बेहतर अनुवाद के रहते हिंदी का महत्व विश्व साहित्य में निश्चय ही बढ़ेगा तथा तथा इसी के सहारे  इसी के सहारे पश्चिम के लोगों को भारत की सांस्कृतिक विरासत की सही जानकारी भी मिल सकेगी। इस तरह विश्व साहित्य की महान कृतियों के अनुवाद भी हिंदी में होने चाहिए। यह आदान-प्रदान का क्रम  ही हिंदी को विश्व भाषा के पद पर आसीन कराएगा।

विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजनों को हमें अपनी स्थानीय भाषा की राजनीतिक के परिपेक्ष में नहीं देखना चाहिए वरुण इसे विश्व परिपेक्ष में समझना चाहिए जहां हिंदी किसी प्रकार की राजनीतिक ना होकर विशुद्ध रूप से भारत को जानने समझने की आकांक्षा से जुड़ी है। यह आकांक्षा हिंदी कि भारतीय राजनीति से किसी प्रकार का सरोकार नहीं रखती है। वे  हिंदी को एक सशक्त और विश्व की तीसरी बड़ी भाषा के रूप में देखते हैं और समझते हैं। इस भाषा के विशाल साहित्य भंडार का अवगाहन करते हुए हमारी सुधिर्घ के सांस्कृतिक परंपरा की था लेना चाहते हैं। इसलिए जब हम ऐसे सम्मेलनों की आलोचना करते हैं तो वस्तुत हम कुछ ऐसे शुद्ध और स्वार्थी तत्वों की आलोचना करते हैं जो इन आयोजनों से अपनी स्वार्थ वृत्ति का पोषण करते हैं लेकिन इस आलोचना को अंग्रेजी परस्त वर्ग  और उसके हित साधक अखबार खूब उछालते हैं तथा उसे पढ़कर ऐसा लगता है जैसे हिंदी जगत में भयंकर मारकाट मची हो।

यदि हम हिंदी की राष्ट्रीय एवं स्थानीय भाषा की राजनीति से परे जाकर इसे विश्व भर में फैले प्रवासी और अप्रवासी भारतीयों के मनोभावों से जोड़कर देखें तो मैं पता चलेगा कि सचमुच अपने देश से दूर जाकर ही अपनी भाषा की गरिमा और उनके महत्व का आभास होता है। शायद इसीलिए जब कभी विदेश- यात्रा में अचानक कोई भारती का ही मिल जाता था तो अनायास परिचय पाने और परिचय देने में हिंदी शब्द ही होठों पर आते हैं यह एक यह है अपनी भाषा हिंदी की शक्ति जो प्रदेश में अपने देश की याद और गंध को रूपायित करती है।

यदि हम हिंदी के प्रचार-प्रसार को भारत से बाहर रहने वाले प्रवासी और अप्रवासी भारतीयों के संदर्भ में  देखने की चेष्टा करें तो हम पाएंगे कि उनके लिए हिंदी का प्रश्न उनकी अपनी पहचान के संकट से जुड़ा है। वस्तुत हिंदी के माध्यम से ही वह अपनी भारतीयता की पहचान को अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को बचा पाते हैं। ऐसे में यदि हम अपनी स्थानीय राजनीति को छोड़कर विश्व बंधुत्व की भावना से परिचालित होकर ऐसे आयोजनों का निष्ठा पूर्वक अपना सहयोग प्रदान करें तो निश्चित ही हम हिंदी को विश्व मन को उसका अपेक्षित रस –तत्व  तो सहज ही उपलब्ध करा सकेंगे। इन भारतवंशी बहुल देशों का भारत से नाता है हिंदी के माध्यम से जुड़ा हुआ है और इसे प्रगाढ़ बनाने में हिंदी की भूमिका निर्विवाद है। वस्तुत इन देशों का भारत से व्यापारिक संबंध तो ना के बराबर है जो भी संबंध है वह भावनात्मक और सांस्कृतिक है। भारत की वस्तुएं इनके लिए मात्र वस्तुएं नहीं वरन भारत मां की सौगात जैसी होती है। उनकी कलात्मकता उनके लिए गौरव और आत्मा अभिमान का सबब होती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे हमारे उच्च अधिकारी इस भावना को अभी तक नहीं पहचान पाए हैं। उनकी भावना और आकांक्षाओं का मूल्य हमारे अंग्रेजी राजनयिकों  के लिए नगण्य ही है।

फलक आज हिंदी भी इन  भारतवंशी लोगों के मनों में हमारे दूतावासों के प्रति एक गहरे शोक और वितृष्णा का भाव मिलता है। उनकी यह प्रतिक्रिया बड़ी स्वभाविक है क्योंकि उनके मनों में हमारे दूतावास भारत के मंदिर और हमारे राजदूत देवताओं के समान है। लेकिन भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा के महत्व आदर्शों को ना समझने वाले अधिकांश अधिकारी गण मात्र कुछ वर्षों की नौकरी करके चले जाते हैं। यह देश उनके लिए मैं जैसे ही स्टेशन है जहां कुछ वर्षों के लिए उनकी पोस्टिंग की गई है। क्या ही अच्छा होता यदि भारत सरकार कम से कम मॉरिशियस, फिजी, गयाना सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे देशों में राजदूतों एवं अधिकारियों के चयन के बारे में एक नीतिगत निर्णय ले कि इन देशों में ऐसे लोग भेजे जाए जिनके मन में भारतीय संस्कृति भारतीय भाषाओं और विशेष रूप से हमारी राजभाषा हिंदी के उच्च  आदर्शों एवं महत्व की समयक जानकारी हो। इन देशों में किया जाने वाला दैत्य कर्म अमेरिका या यूरोप के देशों में किए जाने वाले व्यक्ति दैत्य कर्म से नितांत भिन्न है। वस्तुत इन देशों के साथ हमारी कूटनीति का मूल तत्व सांस्कृतिक कूटनीति ही हो सकता है।

श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस तत्व के महत्व को समझा था उनके प्रधानमंत्री काल में मास्को मॉरीशस पीजी गयाना सूरीनाम जैसे देशों में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना की गई तथा लंदन सहित इन देशों के दूतावासों में हिंदी अधिकारियों की नियुक्ति की गई इन प्रयासों के बड़े अच्छे परिणाम भी सामने आए भारतीय संस्कृति कला साहित्य में रंगमंच गतिविधियों का विस्तार हुआ। उदाहरणार्थ मॉरीशस में नियुक्त के दौरान श्री मोहन महर्षि के  निर्देशन में अंधा युग का मंचन मॉरिशस के कलाकारों ने किया तो श्री दया प्रकाश सिन्हा के निर्देशन में अनेक कार्यक्रम उनके फिजी प्रवास के दौरान आयोजित किए गए। सन 1991 में त्रिनिडाड में आगमन कार्यक्रम की मंच प्रस्तुति भी इसी परंपरा का विस्तार थी लेकिन यह सारी गतिविधियां संबंधित अधिकारी के भारत लौट आने के बाद रुक जाती है क्योंकि अनेक बार यह पद काफी अरसे तक खाली पड़े रहते हैं या भरे  ही नहीं जाते या  फिर इन पदों पर ऐसे व्यक्तियों को भेज दिया जाता है जो कार्य का कार्यालय ढंग से अपना कार्यकाल पूरा करने में जुटे रहते हैं। मात्र अधिकारी ही बने रहते हैं तथा अपने दर्प में वह सांस्कृतिक सेतु  बनने का महत्वपूर्ण  कार्य करने में असमर्थ रहते हैं। उस देश में बह रही सांस्कृतिक ऊर्जा की नदी का सतत प्रवाह ठहर जाता है।

इस कार्य हेतु व्यक्ति का चयन कार्य  कि विशिष्ट प्रकृति को समझे बिना किया जाता है। यह स्थान मात्र अध्यापक या हिंदी अधिकारी की नियुक्ति भर कर देने से पूर्ण नहीं होते हैं। इन पदों पर कार्य करने वाला व्यक्ति भारत का सांस्कृतिक दूत भी होता है। इसलिए इन पदों पर भारतीय संस्कृति के ऐसे आस्थावान विद्वानों को भेजा जाना चाहिए जो भारतीय साहित्य नृत्य एवं अन्य कलाओं की जानकारी के साथ-साथ जनसंपर्क में भी दछ हो । इन पदों पर कार्य करने वाला व्यक्ति यदि सिर्फ इसे नौकरी करने जैसा कार्य मानकर कार्य करेगा तो वह इस पद की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहेगा। आवश्यकता इस बात की है कि इन पदों के लिए चयनित व्यक्ति इन देशों में हिंदी प्रचार व प्रसार हिंदी प्रचार व सांस्कृतिक मूल्यों के प्रसार में कारगर भूमिका निभाने मैं समर्थ होना चाहिए ना कि एक अधिकारी मात्र। क्या ही अच्छा हो यदि हमारी विदेश नीति में इन देशों के बारे में नितांत भिन्न दृष्टिकोण एवं अवधारणाओं का विकास किया जाए ताकि भारत से बाहर बिखरे इन अनेक भारत खंडों को सांस्कृतिक एवं भाषाई डोर से जोड़कर भारत की अस्मिता का एक विश्वव्यापी पट बुना जा सके।

हिंदी के भविष्य की चिंता करने वाले अधिकांश सुधीजन  की गहरी जड़ों को नजरअंदाज कर देते हैं। वस्तुत हिंदी का भविष्य अंधकार में हो नहीं सकता। यदि वह अंधकार में है तो निश्चय ही भारत के लिए गहरे अनिष्ट का सूचक है। यदि भारत की शक्ति इस देश की जनता है तो चाहे जितनी भी राजनीतिक चाल चल ली  जाए हिंदी इस देश की एकता की रीढ़ है और रहेगी।

लेखक:
सुरेश ऋतुपर्ण

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