लेखक. प्रख्यात उद्यमी होने के साथ ही समाजिक कार्यों और लेखन के क्षेत्र में भी सक्रीय है। स्वतंत्र टिप्पणीकार के रूप में राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न ज्वलंत, सम-सामाजिक विषयों पर लेखनरत रहते है।
इस साल आजादी के 75 साल पूरे होने पर हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहें हैं। इन 75 सालों में एक राष्ट्र के तौर पर बहुत सारी उपलब्धियाँ मिली हैं। इन 75 सालों में लगभग 55 साल कांग्रेस के प्रधानमन्त्री रहे, लगभग 14 साल भाजपा के और लगभग 6 साल विभिन्न अलग दलों जैसे जनता पार्टी, समाजवादी जनता पार्टी, संयुक्त मोर्चा के रहे। देश को 15 प्रधानमन्त्री मिले और हर एक की उपलब्धियों पर बहुत सारी किताबें लिखी गयी हैं । राजनैतिक लेखक और इतिहासकार अभी हजारों किताबें और लिखेंगे पिछले 75 साल की उपलब्धियों पर।
पिछले 75 सालों के सभी प्रधानमंत्रियों की बहुत सारी उपलब्धियाँ रही हैं। मैं पूर्वांचल से हूँ इसलिए मैं अपने यहाँ के प्रधानमंत्री की उपलब्धियों पर ही थोड़ा प्रकाश डालूँगा। ऐसा करने के पीछे एक कारण यह भी है की अगर मैं उपलब्धियों के बखान में कुछ अधिकता कर गया तो भी देश बुरा नहीं मानेगा। अपने मिट्टी की तारीफ करते वक़्त कोई तटस्थ लेखक भी थोड़ा पक्षपात कर ही देता है। मेरी जन्मभूमि पूर्वांचल ने भी तीन प्रधानमंत्री दिए देश को लेकिन दुर्भाग्य से कोई अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। सबसे पहले लाल बहादुर शास्त्री बने 1964 में जो 1 साल 216 दिन रहे, उसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह बने 1989 में जो 343 दिन रहे और अन्त में चंद्रशेखर जी बने 1990 में जो मात्र 223 दिन रहे। दो प्रधानमंत्री तो अपना एक साल भी पूरा नहीं कर पाए इसलिए उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन करना ठीक नहीं है। किसी को भी काम करने के लिए 1-2 साल का कम से कम समय चाहिए होता है। एक तो उस समय सरकार बनाने और बचाने की प्रक्रिया इतनी विकसित नहीं थी। दूसरी उनकी पार्टियाँ दूसरी राष्ट्रीय पार्टियों की तरह अमीर नहीं थी की सरकार बचाने के उपायों पर शोध कर पाती। देखा जाए तो केवल लाल बहादुर शास्त्री जी को लगभग डेढ़ वर्ष का समय मिला देश को नेतृत्व देने के लिए।
लाल बहादुर शास्त्री हिंदुस्तान के सच्चे ‘लाल’ जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में सादगी और ईमानदारी की मिसाल कायम किया। ‘बहादुर’ और स्वाभिमानी इतने की 1965 की लड़ाई के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने शास्त्री को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे। उन्होंने देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक वक्त भोजन नहीं करेंगे, उसकी वजह से अमरीका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी। ‘शास्त्री’ (विद्वान) इतने की केवल 8 महीने प्रधानमंत्री रहे और हिंदुस्तान को सफलता की बुलंदियों पर पहुँचा दिया। जव जवान जय किसान, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और भी बहुत से अनगिनत उदाहरण हैं।
मैं अपने सीमित शोध के आधार पर ये बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का जो पाठ उन्होंने पढ़ाया वो ना तो उनसे पहले कभी देखने को मिला ना उनके बाद कभी देखने को मिला। मेरी बातों को अन्यथा ना ले या किसी और चश्मे से ना देखें। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी सिर्फ वित्तीय भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं होती है। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी इससे कहीं बहुत बड़ी होती है जैसे योग्यता को दरकिनार करते हुए अपने परिचित को बड़ा पद देना, अपनी राजनैतिक पार्टी को बढ़ाने में मदद करना, अपने परिवार और प्रियजनों को राजनीति में स्थापित करना, विरोधियों को दबाने के लिए सत्ता का उपयोग करना, सत्ता को बनाए रखने के लिए गलत राजनैतिक समझौते करना, पद पर बने रहने के लिए अपनी पार्टी के लोगों की सही गलत बातों को मानना, सर्वोच्च पद पर बैठे होने के बावजूद किसी दूसरे के आदेश पर काम करना और ऐसे बहुत सारे और पैमाने होते हैं ईमानदारी को परिभाषित करने के लिए। पिछले 75 सालों में हमारा देश हर क्षेत्र में तरक़की किया। शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, आईआईएम, ए.आई.आई.एम. एस. जैसे बड़े-बढ़े शिक्षण संस्थान बने जहाँ से निकले छात्रों ने पूरी दुनिया में हिंदुस्तान का परचम लहराया। बड़े-बड़े अस्पताल बने, अंतरिक्ष में मंगलयान, चंद्रयान भेजने लगे, मिसाइल बनने लगा, परमाणु सम्पन्न हो गए, हमारी सेनाएँ ताकतवर हुई, हर बड़े शहर में एयरपोर्ट बना, रेलवे लाइनों का जाल बिछा, मेट्रो रेल का जाल बिछा, हाइवे का जाल बिछा, बड़ी-बड़ी गगनचुंबी इमारतें बनने लगीं, औद्योगीकरण हुआ, बड़े-बड़े उद्योग लगे, मेक इन इंडिया का डंका बजने लगा, डिजिटल इण्डिया हुआ, हर व्यक्ति की पहुँच बैंकों तक हुई, बुलेट ट्रेन का सपना साकार होने लगा, बड़े-बड़े बन्दरगाह बनने लगे, हमारे देश के उद्योगपतियों का दुनियाँ में डंका बजने लगा, समाज के अन्तिम पायदान पर बैठे लोग हर क्षेत्र में पहुँचने लगे, समाज के अन्तिम पायदान पर बैठे लोग प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनने लगे, लोकतंत्र लगातार मजबूत हुआ इसके अलावा भी बहुत विकास हुआ जिसको लिखने में कई किताबें कम पड़ जाएँगी।
ब्रिटिश हुकूमत हिंदुस्तान में अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए समय-समय पर धार्मिक बँटवारे को ट्रम्प कार्ड की तरह प्रयोग में लाती थी। आजादी मिलने के 2-3 साल पहले और 2-3 साल बाद तक देश में धर्म का परचम लहरा रहा था। हिन्दू और मियाँ दोनो कट्टर धार्मिक हो गए थे और बँटे हुए थे। इस धार्मिक कट्टरता का विभत्स रूप देखने को मिला और देश खुल कर पूरे दिल से आजादी मिलने की खुशी नहीं मना पाया। इसका परिणाम निकला भारत और पाकिस्तान के रूप में देश के टुकड़े हो गए। पाकिस्तान लगातार धार्मिक उन्माद का जहर फैलाते हुए एक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ता गया। हिंदुस्तान धार्मिक उन्माद से आगे निकल कर एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में विकास और तरक्की के रास्ते बनाने लगा।
आजादी के 2-3 सालों बाद ही हिंदुस्तान ने धार्मिक कट्टरता पर काबू पा लिया और सैकड़ों सालों की गुलामी के बाद खोखले हो चुके राष्ट्र को संवारने में लग गया। अब देश राजनैतिक रूप से मुख्यतः दो विचारधाराओं में बंट गया था। पहली विचारधारा समाज में फैले ऊँच-नीच, भेदभाव, छुआ-छूत, जात-पाँत, अमीरी-गरीबी और अन्य सामाजिक बुराइयों को प्राथमिकता देना चाहती थी। मुख्यतः सोशलिज्म और कम्युनिज्म की विचारधारा को लेकर आगे बढ़ना चाहती थी। दूसरी विचारधारा देश को विकास के रास्ते पर ले जाने को प्राथमिकता देना चाहती थी और अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी। दोनो विचारधाराओं की नियत साफ थी और मकसद भी एक ही था। पहली विचारधारा समाजवाद के रास्ते देश का विकास करना चाहती थी और दूसरी विकास के रास्ते देश का सामाजिक ताना बाना ठीक करना चाहती थी। दोनो विचारधाराएँ पूरी मजबूती के साथ मौजूद थी और एक दूसरे का सम्मान करती थीं या ये भी बोल सकते हैं की एक दूसरे की सहमति से ही आगे बढ़ती थी। मैं पाठक की सहूलियत के लिए पहली विचारधारा को ‘समाजवाद’ और दूसरी विचारधारा को ‘आधुनिकतावाद’ कह कर सम्बोधित करूँगा। आधुनिकतावाद से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री बने और समाजवाद को जीने वाले राजेन्द्र बाबू प्रथम राष्ट्रपति बने। समाजवाद और आधुनिकतावाद दोनो विचारधाराएँ सरकार (कांग्रेस) के अन्दर और बाहर विपक्ष दोनो तरफ थी।
16 साल तक सत्ता के शीर्ष पर बैठे रहने के बावजूद नेहरू जी को कभी भी इस बात का भ्रम नहीं हुआ की वो देश के सबसे बढ़े नेता हैं । हजारों नेताओं जैसे राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, जे.बी. कृपलानी, संपूर्णानंद, पुरुषोत्तम दास टंडन, सी राजगोपालाचारी, चंद्रभानु गुप्ता, श्रीकृष्ण सिंह, मौलाना आजाद, पट्टाभि सीतारमैया, अलगु राय शास्त्री, द्वारका प्रसाद मिश्रा को अपने से बड़ा नेता समझते थे। नेहरू कभी इतने ताकतवर नहीं हुए की अपनी पार्टी और विपक्षी नेताओं की सहमति के बिना कोई काम कर पाए। नेहरू की ताकत के एक उदाहरण के तौर पर एक घटना का जिक्र करना चाहूँगा जो मैंने बचपन में सुनी थी और जिसका कोई साक्ष्य वा सत्य होने का प्रमाण मेरे पास नहीं है। एक बार देश में चुनाव होने वाला और अलगु राय शास्त्री शायद उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे या किसी और पद पर थे। टिकट बाँटने में अलगु राय शास्त्री का ही मुख्य रोल था। नेहरू जी ने अपने दामाद फिरोज गाँधी के लिए पूर्वांचल की किसी ऐसी सीट से टिकट चाहते थे जो कांग्रेस का गढ़ थी और वहाँ से कांग्रेस की जीत निश्चित थी। अलगु राय शास्त्री ने नेहरू को यह कह कर टिकट देने से मना कर दिया की तुम्हारा दामाद होना टिकट पाने की योग्यता नहीं है।
राजेन्द्र बाबू के बारे में बात करना मतलब सूरज को रोशनी दिखाने जैसा होगा। स्वतंत्र भारत का वर्तमान और भविष्य हमेशा इस बात से गौरवान्वित रहेगा की राजेन्द्र बाबू जैसे महान देश के पहले राष्ट्रपति थे। राजेन्द्र बाबू के बारे में एक घटना का जिक्र करना चाहूँगा जो मैंने बचपन में सुनी थी और जिसका कोई साक्ष्य या प्रमाण मेरे पास नहीं है। एक बार राजेन्द्र बाबू के बचपन के 5 मित्र कुछ पूर्वांचल और कुछ बिहार के थे जिसमें 1-2 कोलकाता रहते थे उनसे मिलने दिल्ली राष्ट्रपति भवन पहुँचे। सभी लोग 2-3 दिन राष्ट्रपति भवन में रहे। पहले ही दिन रात के समय राजेन्द्र बाबू के शयनकक्ष में बातचीत का दौर चल रहा था। इसी दौरान 1-2 दोस्तों ने नोटिस किया की राजेन्द्र बाबू जिस बेड पर सोते थे उसकी बेडशीट (चद्दर) 2-3 जगह से फटी थी। सुबह जब पाँचो मित्र दिल्ली घूमने निकले तो मित्रों ने आपस में इस बात की चर्चा की और बोले की लगता है राजेन्द्र बाबू अभी आर्थिक तंगी में हैं। दोस्तों ने निर्णण लिया की पहले चल कर 3-4 बेडशीट खरीदा जाए क्योंकि अब राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति हो गए हैं और बड़े लोगों का आना जाना होता होगा। पाँचो मित्रों ने अपने अपने जेब से जो भी पैसे पड़े थे निकाले और सब मिलाकर 4 बेडशीट खरीदे। घूम कर फिर राष्ट्रपति भवन वापिस आए और शाम को खाने पर गपशप शुरू हुआ। दोस्तों ने बेडशीट वहीँ बेड के बगल में टेबल पर रख दिए।
राजेन्द्र बाबू पूछे की कहाँ-कहाँ घुमे और क्या-क्या खरीदे हो। दोस्तों ने बताया सब और फिर ये भी बताया की भैया बेडशीट यहाँ बहुत सुन्दर-सुन्दर और सस्ता मिल रहा था। हम लोग आपके लिए कुछ लाए नहीं थे और मन था की धोती कुर्ता खरीदेंगे लेकिन फिर सोचा की साइज का दिक़्कत हो जाएगा। फिर हम लोगों को बहुत सुन्दर और सस्ता बेडशीट दिखा तो खरीद लिए। राजेन्द्र बाबू दोस्तों के मनोभाव को पढ़ गए। दो दिन बाद जब सब दोस्त कोलकाता जाने लगे तो राजेन्द्र बाबू ने बड़ी विनग्रतापूर्वक दोस्तों को बोला की आप लोग ये चारो बेडशीट हावड़ा ब्रिज पर गरीब मजदूर सोए रहते हैं, इतनी ठंढ़ में उनके ऊपर डाल दीजिएगा। देश में इतनी गरीबी है और हमारे यहाँ राष्ट्रपति भवन में तो सारी सुविधाएँ हैं।
जवाहरलाल नेहरू के बाद गुलजारी लाल नन्दा और फिर लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तब तक समाजवाद भी मजबूत रहा। समाजवाद को जीने बाले बहुत सारे नेता जैसे जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फर्नान्डस, अटल बिहारी जैसे बहुत से नेता काफी मजबूत स्थिति में थे। विकासवादी सोच वाला आधुनिकतावाद और समाजवाद एक दूसरे का सम्मान करते रहे और देश आगे बढ़ता रहा। हालाँकि विकास के पीछे पूंजीवाद भी खड़ा रहता है लेकिन इस समय तक पूँजीवाद की कोई ताकत नहीं थी।
फिर इन्दिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनी और समाजवाद और आधुनिकतावाद दोनो अपनी-अपनी ताकत बढ़ाने में लग गए। इन्दिरा गाँधी अपने आपको लगातार शक्तिशाली बनाती गयी। 1971 के आम चुनावों में इन्दिरा गांधी गरीबी हटाओ के नारे के साथ चुनाव में उतरी और कांग्रेस को भारी बहुमत से जीत दिलाया। कांग्रेस को इस चुनाव में पिछले लोकसभा में 283 सीटों के मुकाबले 352 सीटें मिलीं। भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 में युद्ध शुरू हो गया और पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए। बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का जन्म हुआ। इन्दिरा गाँधी की ये बहुत बड़ी जीत थी और उनकी ताकत सिर्फ देश में ही नहीं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ रही थी। उन्हें लौह महिला, दुर्गा और भी कई नामों से पुकारा जाने लगा। पूंजीवाद जो पहले विकासवाद के पीछे छुपा रहता था धीरे-धीरे भारतीय राजनीति में अब दिखाई देने लगा। धीरे-धीरे भारतीय राजनीति में बाहुबल का भी प्रवेश होने लगा। संजय गांधी जैसे युवा नेताओं के सहयोग से इन्दिरा की ताकत लगातार बढ़ती गई।
1971 का चुनाव और बांग्लादेश युद्ध जितने के बाद इन्दिरा गाँधी बहुत ताकतवर हो गयी थी और समाजवाद की नजर में तानाशाह की तरह लगने लगी। समाजवाद भी पूरी मजबूती के साथ अपनी अंतिम लड़ाई लड़ने के लिए तैयारी करने लगा। 1971 के लोकसभा चुनाव में इन्दिरा के खिलाफ रायबरेली से कोई मजबूत उम्मीदवार उतारने की तैयारी चल रही थी। इन्दिरा इतनी ताकतवर थी की उनके सामने कोई भी लड़ने से घबराता था। चंद्रभानु गुप्ता, चंद्रशेखर या किसी भी अन्य दिग्गज नेता की हिम्मत नहीं हुई इन्दिरा से टकराने की। तब राजनारायण 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली से इन्दिरा के खिलाफ चुनाव लड़े। राजनारायण चुनाव हारने के बाद इन्दिरा गाँधी के चुनाव को अवैध ठहराने के लिए अदालत गए।
राजनारायण ने समाजवाद को बचाने के लिए हर मोर्चे पर इन्दिरा को घेरा। चुनावी मैदान, अदालत से लेकर सड़क तक हर मोर्चे पर पूरी ताकत के साथ लड़े। समाजवाद को इन्दिरा पर राजनारायण के प्रहार से ताकत की जड़ी-बूटी मिल गई और जो लोग इन्दिरा से खौफ खाते थे उनका डर खत्म होने लगा। इन्दिरा को हर जगह से चुनौती मिलने लगी
जयप्रकाश नारायण ने 1974 में इन्दिरा को ललकारा सिंहासन खाली करो जनता आती है। जे.पी. आन्दोलन पूरे देश में फैल गया। फिर 12 जून 1975 को इन्दिरा गाँधी के खिलाफ फैसला आया और अदालत ने इन्दिरा गाँधी के रायबरेली चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। राजनारायण और समाजवाद की इन्दिरा गाँधी के खिलाफ बहुत बड़ी जीत थी।
इन्दिरा गाँधी पहली बार बुरी तरह से डर गई थी और इतिहास इस बात को मानता है की लौह महिला इन्दिरा गांधी को अगर किसी ने डराया तो वो राजनारायण ही थे। इस फैसले के दो हफ़्ते के अंदर ही इन्दिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। देश की जेलें नेताओं और जनता से भर दी गयी। आजाद भारत के लोकतन्त्र पर एक काला धब्बा लग गया। आपातकाल लगाने की असल वजह भी राजनारायण ही थे। राजनारायण अपने 69 साल के जीवन में 80 बार जेल गए और कुल 17 साल का समय जेल में गुजारे। इन 17 सालों में से 14 साल आजाद भारत की जेल में बिताए। राजनारायण ने सही मायने में समाजवाद और लोकतंत्र की रक्षा के लिए पूरा जीवन लगा दिया। महान समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया जी अक्सर कहते थे जब तक राजनारायण जिंदा हैं, देश में लोकतंत्र मर नहीं सकता।
21 महीनों के आपातकाल के बाद 1977 में लोकसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस को हार मिली और जनता पार्टी को बहुत बड़ी जीत मिली। देश की सबसे मजबूत नेता प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी रायबरेली सीट पर राजनारायण से चुनाव हार गई हिंदुस्तान में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार की नींव पड़ी और मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बने लेकिन वो इस पद पर सिर्फ 2 साल, 26 दिन ही रह पाए। जनता पार्टी की सरकार आपसी कलह का शिकार हो गयी। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने लेकिन वो भी 170 दिन ही रहे। चुनाव में बहुमत मिलने के बाद भी जनता पार्टी अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं। जनवरी 1980 में दुबारा चुनाव हुए और कांग्रेस पार्टी की जीत हुई और इन्दिरा गाँधी की सत्ता में वापसी हुई। इन्दिरा गाँधी के बाद फिर राजीव गाँधी बने उसके बाद सत्ता विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर से होते हुए दुबारा कांग्रेस के पास आ गयी और 1991 में कांग्रेस के पी. वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने।
समाजवाद और आधुनिकतावाद दोनो पूरी तरह मर चुके थे और देश की राजनीति अब पूरी तरह बदल गई थी। जब तक समाजवाद और आधुनिकतावाद दोनो विचारधाराएँ जिन्दा थी तब तक राजनीति का मतलब समाज सेवा और देश सेवा थी। राजनीति का मतलब बदल गया और ये कई टुकड़ों में बँट गयी। राजनीति व्यापार हो गयी, व्यवसाय हो गई, रोजगार हो गई, धर्म हो गयी, जात-पात हो गई, बाहुबली हो गयी, अपराधी हो गई, भ्रष्टाचारी हो गई, पूँजीवादी हो गई, अवसरवादी हो गयी, सत्ता हो गयी, चुनाव जीतना हो गयी, ताकत हो गयी, बहुरूपिया हो गई और भी ना जाने क्या क्या हो गयी। राजनीति पूरी तरह से पूंजीवाद के चंगुल में फंसती चली गयी या ये भी बोल सकते है कि पूंजीवाद ही निर्धारित करने लगा की सत्ता पर कौन बैठेगा। पूँजीवाद ने समाजवाद और आधुनिकतावाद का गला घोंट दिया।
मैं इस सवाल से हमेशा जूझता रहा हूँ की भारतीय राजनीति के बदलाव का मुख्य कारण क्या रहा है। कभी सोचता हूँ की शायद जनता पार्टी की सरकार का गिरना मुख्य कारण थी और कभी ये सोचता हूँ. की जनता पार्टी की सरकार का बनना मुख्य कारण था। अगर जनता पार्टी की सरकार नहीं गिरी होती और बिना आपसी कलह के 5 साल पूरा कर गई होती तो शायद कुछ अच्छा हो गया होता। क्या उस समय राजनारायण, जगजीवन राम, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी या कोई और प्रधानमंत्री बनता तो अच्छा हुआ होता। फिर सोचता हूँ कि अगर जनता पार्टी चुनाव नहीं जीतती तो शायद समाजवाद जिंदा होता और मजबूत भी होता।
सरकारी बसों में आगे की दो सीटों पर विधायक सीट और सांसद सीट लिखा होता था और माननीय शान से बसों में जनता के साथ यात्रा करते थे। जनता आज भी उसी तरह अनवरत यात्रा कर रही है लेकिन वो दो सीटें चोरी हो गई और माननीय की जनता के साथ यात्रा बन्द हो गई। सिंहासन खाली करो जनता आती है का सपना बसों में विधायक सीट और सांसद सीट के खाली होने से पूरा हो गया। जनता अब केवल एक वोट बैंक बन कर रह गई है और आज भी इस आशा के साथ हर चुनाव में वोट देती है कि कोई उनका अपना ‘गुदड़ी का लाल’ आएगा और उनकी तकदीर बदलने का ईमानदारी से प्रयास करेगा।
1980 से पहले भारत की राजनीति एक खूबसूरत इतिहास है और उसके बाद का सब वर्तमान है। मेरा बचपन वर्तमान में बीता है और मैं इतिहास को अपनी नजरों से नहीं देख पाया। मैं आजादी का ये अमृत महोत्सव इतिहास को समर्पित करना चाहूँगा और राजनैतिक सपना देखता रहूँगा की वो इतिहास एक बार फिर वापस लौट आए।