गौरवशाली भारत

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कागज के पन्नोंमें बसा एक अलग संसार

prafull rai executive editor gauravshalibharat

प्रफुल्ल राय शिवालिक

कार्यकारिणी संपादक 
गौरवशाली भारत पत्रिका 

कोविड का समय कुछ लोगों के लिए ऑनलाइन की दुनिया को समझने का समय था। ये समय था अपने सामने रखे फोन या कंप्यूटर के स्क्रीन से वातार्लाप करने का Meet, Team, Webex, Zoom में विचरण करने का। म्यूट और अनम्यूट के बीच बिखरने का। सेकंड हैण्ड किताब से कहीं दूर, पायरेटेड इ-बुक का इस्तेमाल करना। घर के आँगन या छज्जे में धूमकेतु से आते अखबार से कथिक संक्रमण के डर से, आॅनलाइन खबर की हर पल, बार बार, झलक लेना। कुछ लोगों की निजी और पेशेवर जिन्दगी में यह एक विचित्र अनुवाद था, जो शुरू तो इन्टरनेट और मोबाइल से हुआ था, पर कोविड की ऑनलाइन दुनिया ने उसे आम दिनचर्या मे स्थापित ही कर दिया।

आजकल जितनी भीड़ हलवाई, ठेके और मोबाइल की दुकान में नजर आती है,किताब और अखबार के विक्रेता शायद उतनी बिक्री के लिए तरस जायें। एक आधा कुंजी,कालनिर्णय और पंचांग बेच कर काम और घर चलाना मुश्किल है। किताब और अखबार, जिसे लिखने और सम्मिलित करने में शायद किसी लेखक या पत्रकार की शिद्दत और मेहनत शामिल हो, वो उस अमूर्त रचान्त्मक प्रयास के विरुद्ध है। हो सकता है की यह बात हर किताब या अखबार पर लागू हो, पर जब लोग एक स्मार्टफोन को इनसाइक्लोपीडिया समझ ले,10 रुपए का अखबार और 700 रुपए की किताब 3000 रुपए की जीन्स से महंगी लगने लगे, तब हमें थोड़े आत्म – निरिक्षण की जरुरत है।

कोविड ने डिजिटल को बेहद बढावा दिया, जो जरूरी भी बन गया था। स्थितियों के बनते -बिगड़ते परिवेश में, अखबार और किताब के छपने और उनके प्रसार के स्तर में कमी हुई, स्मार्टफोन की सतही सहूलियत की वजह से समाचार और विचार क्रमश: अपने मूर्त कागजी स्वरूप से विस्थापित हो, वेबपेज और कैरक्टर्स में सिमट गए है। कुछ के लिए यह क्रन्तिकारी रहा, क्योंकि सोशल मीडिया ने बहुत लोगों को लेखक और पत्रकार बनने का मौका जरूर दिया है। लेकिन बचपन से जो कलम से लिखने और एक पुस्तक एकाग्रता से पढने की आदत डाली जाती है, वो सिर्फ पढना ही नहीं अपितु मनाव अनुभूति के  विकास की प्रक्रिया भी होती है। ऑनलाइन से फायदा तो तकनीक को स्वयं बनाना ही पड़ा, ताकि लोग उसका इस्तेमाल कर पाएं। पर बात इस हद तक बड़ी है, की देश में स्मार्टफोन डी-एडिक्शन केंद्र शुरू करने पड़े है।

रेटिंग एजेंसी क्रिसिल (CRISIL) ने भारतीय प्रिंट मीडिया में अगले वित्त वर्ष तक 20 % बढ़त का अनुमान लगाया है। डिजिटल खबर की वजह से समाचार के प्रचार में कोई कमी नही आई, मगर प्रिंट माध्यम के नुक्सान की भरपाई होना बहुत जरूरी है। विज्ञापन और अंशदान से हो भी पाए,पर समय और पाठकों की पसंद के अनुरूप प्रिंट और डिजिटल में सामंजस्य बैठना आवश्यक होगा। चाहे वो सम्पादकीय हो या कथानक, राजनितिक हो या प्रेम प्रसंग्युक्त,पाठक से रिश्ता बनाये बिना उसका अपने अपेक्षित दर्शक पर कोई प्रभाव नही होगा। और इस प्रभाव-क्षेत्र के विकास में सबसे एहम कड़ी है उस छपे हुए अखबार को खरीदना और परखना।

इसका यह अर्थ कतई नही है की जनसंचार का कोई एक माध्यम सबसे अच्छा है। सबकी अपनी खूबियाँ है और खामियाँ हैं। इन कमियों और अच्छइयो के बीच एक दूसरे के सहयोगी है’ डिजिटल भी जरूरी है, जैसा की ऑस्कर पुरूस्कार के लिए नामित डाक्यूमेंट्री ‘खबर लहरिया’ से जान पड़ता है। इसी तरह CG Net Swara भी एक पहल है। सीमित साधनों में, जहाँ लिखित से जयादा एहेमियत मौखिक की हो, वहां यह एक जायज कदम है। पर महानगरों में लोगों की घटती ध्यान अवधि को देखते हुए ये सोचना चाहिए की तकनीक कहीं हमें अक्षम तो नहीं बना रही है? बात बस खबर या कहानी पढने से नही, बल्कि उस प्रक्रिया की पृष्ठभूमि को समझने की है। सिर्फ कागज या स्क्रीन पर लिखे शब्दों में एक क्रम बंधना ही पढना नहीं होता। आज के समय में क्रिटिकल थिंकिंग पर जो जोर डाला जा रहा है, वो स्मार्टफोन को घूरने से कई कोसों दूर है।

इस मुद्दे को उत्पादन और उपभोग के परिपेक्ष्य से समझ सकते है। प्रिंट को बढावा देना रोजगार के कई अवसरों को बढाने से जुड़ा है। वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ़ न्यूज पब्लिशर्स के 8से 10 मार्च 2022 को हुए डिजिटल मीडिया इंडिया वर्चुअल सम्मलेन में पूरा जोर इस बात पे था कि ऑनलाइन न्यूज के मॉडल को कैसे बढाया जाए। दुनिया के अखबारों ने अपने डिजिटल संस्करणों के बारे में ब्यूरा दिया। इसमें दी हिन्दू, हिंदुस्तान टाइम्स, गूगल न्यूज लैब इंडिया जैसे कुछ और मीडिया कंपनियों ने भाग लिया और अपने डिजिटल राजस्व मॉडल को मजबूत बनाने की बात की ’ जाहिर सी बात है की आर्थिक मांग और पूर्ती की इस लीला में अब ज्ञान और विचार का उपभोग भी शामिल हो गया है।

कोई भी ज्ञान या सूचना अर्जित करने के लिए माध्यम कितना महत्त्वपूर्ण है ? अखबार छपने और खरीदे जाने के बीच का सफर लम्बा है। खरीदे और पढ़े जाने का और भी। खबर भी अब सिर्फ सूचना तक सीमित नही है। समय और समाज को पार करती हुई, सोशल मीडिया के जरिये, समाचार का प्रारूप अब त्वरित, निरंतर और संक्षिप्त हो गया है’ और अगर खबर बनाने में बदलाव आएं हैं, तो उसके उपभोग में भी। मगर अखबार को हाथ में थामकर,पेंसिल से रेखांकन कर, देश से शहर, शहर से विश्व, विश्व से व्यापार का एक सफर होता है। स्मार्टफोन के स्क्रीन से कई गुना विस्तृत, स्वाभाविक सा लगने वाला अखबार पढ़े जाने के बाद भी एक सुती कपडे की तरह अलग अलग काम में लगाया जाता है।

अखबार पढ़ने में एक विहंगम दृष्टि जन्म लेती है। नजरें सिर्फ टॉप -डाउन स्क्रॉलिंग की गुलाम नही होती। नेविगेशन की डोर पढने वाले के हाथ में होती है, वेबसाइट डिजाइनर के नहीं। हाशिये से परे कोई आपको बीमा, गाड़ी, रम्मी या जूते खरीदने के लिए बार बार लालायित नही करता। किसी एक खबर को पढने के लिए अखबार की तह तक बन सकती है। धूप में छांव भी दे सकता है और बारिश में आपके कुर्ते की तरह भीग कर सूख भी सकता है। अगले दिन रोटी बाधने के काम भी आ सकता है या किसी कॉपी में सालो-साल तक संभाल कर रखा भी जा सकता है। बहुमुखी और बुलंद दस्तावेज भी है और कबाड़ में बिकने लायक भी। डिजिटल की अमूर्त दुनिया में, जहाँ चलती-फिरती खबरें, आसानी से, दिन भर आपके सामने बिखेरी जाती है, अखबार कहीं ना कहीं बहकती हुई खबरों को एक सूत्र में कसने की कोशिश तो करता ही है। माध्यम का चुनाव और समय का आबंटन तो पाठक के ही हाथ में है। ’’