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अबुल फजल का खत: महाकवि सूरदास (?) के नाम

कुमार निर्मलेन्दु

वर्तमान में उत्तर प्रदेश खाद्य एवं रसद विभाग में राजपत्रित अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। साहित्य एवं संस्कृति संबंधी विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में अनियमित लेखन। ‘राजकमल प्रकाशन समूह’ के लोकभारती प्रकाशन से 5 पुस्तकें प्रकाशित। ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार’ से सम्मानित।

मुगल बादशाहों ने बुद्धिमानी के साथ ग्राम-प्रशासन की पुरानी पद्धति को और लगान वसूल करने के हिंदुओं के पुराने तरीके को ज्यों का त्यों जारी रखा। मुगल-काल में लगान के महकमे में अधिकतर हिंदू कर्मचारी ही रखे जाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि राजधानी में शासन-सत्ता के बदल जाने के बावजूद भारत के करोड़ों ग्रामवासियों के जीवन पर कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ा। प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने अकबर के राज्यारोहण से लेकर मुहम्मदशाह के निधन (1556-1749 ई.) तक के 200 वर्षीय मुगल-शासन का मूल्यांकन करते हुए लिखा है—‘मुगल काल में जब कोई नया सूबेदार नियुक्त किया जाता था, तब उसे अन्य बातों के साथ ही यह हिदायत भी दी जाती थी कि रय्यत को इस बात के लिए प्रोत्साहन देना कि वे खेती को उन्नत करें। कोई चीज उनसे जबरदस्ती न छीनी जाए। यह याद रहे कि रय्यत ही राज की आमदनी का एकमात्र स्थायी जरिया है’। उस समय के ऐतिहासिक दस्तावेजों और पत्रों से जाहिर है कि मुगल साम्राज्य के अधिराज की नीति सदा यही होती थी कि रय्यत पर किसी तरह का अत्याचार न होने पाए। यह बात साबित की जा सकती है कि यह नीति केवल एक शुभकामना ही न थी, बल्कि यही उस समय की सच्ची हालत थी। शाहजहाँ और औरंगजेब के समय की अनेक ऐसी घटनाएँ उस समय के इतिहास से मिलती हैं, जिनमें कि ज्योंही माल के महकमे के किसी कर्मचारी या किसी प्रांत के सूबेदार की सख्ती या जबरदस्ती की कोई शिकायत प्रजा की ओर से बादशाह के कानों तक पहुँची, तुरंत उस राजकर्मचारी को या उस सूबेदार तक को बरखास्त कर दिया गया। (‘विश्ववाणी’ पत्रिका के जुलाई, 1931 अंक में प्रकाशित सर जदुनाथ सरकार का लेख ‘मोगल शासन की झाँकी’) मुगल बादशाह अकबर के एक दरबारी विद्वान और विश्वस्त मंत्री अबुल फजल ने भक्तकवि सूरदास (?) को उनके एक पत्र के जवाब में एक खत लिखा था। 

शेख अबुल फजल अल्लामी के भानजे अब्दुल समद बिन अफजल मुहम्मद ने 1606-1607 ई. में अबुल फजल के पत्रों का संकलन किया था। यह संकलन ‘मुकातेवात-ए-अल्लामी’, ‘इंशा-ए-अबुल फजल’ अथवा ‘मुकातेवात-ए-अबुल फजल’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस किताब के तीन भाग हैं। इसी किताब के दूसरे भाग में सूरदास के नाम लिखा गया वह खत संकलित है। गौरतलब है कि प्रशासनिक सुगमता के दृष्टिगत अकबर ने अपने साम्राज्य को 15 सूबों में बाँटा था- दिल्ली, आगरा, अवध, इलाहाबाद, अजमेर, अहमदाबाद, मालवा, बिहार, बंगाल-उड़ीसा, खानदेश, बरार, अहमदनगर, मुल्तान-सिंध, काबुल और लाहौर (पंजाब)। 1584 ई. में नवगठित इलाहाबाद सूबे में 10 जिले शामिल थे– इलाहाबाद, गाजीपुर, बनारस, जौनपुर, मानिकपुर, चुनार, मथखोडा, कालिंजर, कोडा और कड़ा। 1584 ई. में इलाहाबाद का किला बना और सूबे की राजधानी जौनपुर से स्थानांतरित होकर वहाँ चली गई। बनारस, इलाहाबाद सूबे का एक सरकार या जिला बन गया। बनारस सरकार का सबसे पहला फौजदार मिर्जा नवाब किलीच खाँ था। वह 1584 से 1589 ई. तक बनारस का फौजदार रहा। उसके आगरा वापस चले जाने के बाद उसका पुत्र चीन किलीच खाँ जौनपुर का फौजदार बना। व्यापारियों के प्रति चीन किलीच खाँ का रुख बहुत कड़ा था। जैनकवि बनारसीदास ने अपने आत्मकथात्मक ग्रंथ ‘अर्धकथानक’ में लिखा है कि 1598 ई. में जौनपुर के फौजदार चीन किलीच खाँ ने वहाँ के सब जौहरियों को पकड़ कर इसलिए बंद कर दिया था कि वह जो वस्तु उनसे चाहता था वे उनके पास नहीं थी। एक दिन उसने जौहरियों को बाँधकर चोरों की तरह अपने सामने खड़ा किया और उन्हें कटीले कोड़ों से पिटवाकर छोड़ दिया। बेचारे जौहरी इस अत्याचार से परेशान होकर अपनी चल-संपत्ति के साथ सुरक्षित स्थानों की ओर चले गए। इस विवरण से स्पष्ट है कि ये दोनों बाप-बेटे अत्याचारी प्रशासक थे। बाप के पदच्युत होने के बावजूद बेटे की प्रवृत्ति नहीं बदली थी। खैर, 1588 ई. में बनारस सरकार के ‘करोड़ी’ (प्रशासक) ने हिंदुओं पर अत्याचार करना शुरू किया। गौरतलब है कि जिस सरकार का वार्षिक कर-संग्रह ढाई लाख रुपये से अधिक होता था, वहाँ का हाकिम (प्रशासक) ‘करोड़ी’ कहलाता था। बनारस के ‘करोड़ी’ से त्रस्त हिंदुओं के हितों की रक्षा संबंधी फरियाद बादशाह अकबर तक पहुँचाने वाला कोई न था। अब्दुल समद की किताब ‘मुंशियात’ के अनुसार ऐसे में भक्तकवि सूरदास (?) ने बादशाह अकबर को काशी से एक पत्र लिखा था। उस पत्र में करोड़ी का नामोल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन निश्चित रूप से वह करोड़ी मिर्जा चीन किलीच खाँ ही था। जो भी हो, अबुल फजल के अनुसार भक्त-शिरोमणि सूरदास के पत्र को पढ़ कर बादशाह अकबर को काशी के प्रशासक पर बहुत क्रोध आया। और फिर बादशाह ने अदुल फजल से कह कर भक्त-शिरोमणि को आश्वस्तिपरक जवाब लिखवाया। उस खत का मजमून कुछ इस प्रकार है- ‘‘परमात्मा को पहचानने वाले ब्राह्मणों, योगियों, संन्यासियों और महापुरुषों के शुभ चिंतन से ही बादशाहों का कल्याण होता है। साधारण से साधारण बादशाह भी अपनी मति के विपरीत भगवद्भक्तों की आज्ञा का पालन करता है। तब जो बादशाह धर्म, नीति और न्याय परायण है, वह तो भक्तों की इच्छा के विपरीत चल ही नहीं सकता। मैंने आपकी विद्या और सद्बुद्धि की प्रशंसा निष्कपट आदमियों से सुनी है। आपको मैंने मित्र माना है। कितने ही विद्वानों एवं सत्यनिष्ठ ब्राह्मणों के मुँह से मैंने सुना है कि आप इस जमाने के भक्त-शिरोमणि हैं। आपकी तपश्चर्या की परीक्षा हुई है; और आप उसमें खरे उतरे हैं। हाल ही में हजरत अकबर बादशाह इलाहाबाद पधारने वाले हैं। आशा है आाप वहाँ आकर उनसे मिलेंगे। ईश्वर को धन्यवाद कि बादशाह आपको परम धर्मज्ञ जानकर अपना परम मित्र समझते हैं। भगवान मुझे भी आपके दर्शन का लाभ शीघ्र दें, जिससे इस दास को भी आपका सत्संग मिले और आपके वचनामृत सुनकर मैं भाग्यशाली बनूँ।’’ ‘‘सुना है काशी के ‘करोड़ी’ का बरताव अच्छा नहीं है। बादशाह को यह सुनकर बहुत बुरा लगा है। बादशाह ने उसकी बरखास्तगी का फरमान लिख दिया है। अब नए करोड़ी की नियुक्ति का भार बादशाह ने आपके ही ऊपर छोड़ा है। इस तुच्छ अबुल फजल को हुक्म हुआ है कि आपको इसकी इत्तला दे दूं। आप ऐसे करोड़ी का चयन कीजिए, जो गरीब और दुखी प्रजाजनों का समस्त भार सँभाल सके। आपकी सिफारिश (अनुशंसा) आने पर बादशाह उसकी नियुक्ति करेंगे। बादशाह आप में खुदा की रहमत देखते हैं इसलिए उन्होंने आपको यह तकलीफ दी है। वहाँ पर ऐसा हाकिम होना चाहिए, जो आपकी सलाह के मुताबिक काम करे। कोई व्यक्ति जिसे आप काबिल समझें, ऐसा व्यक्ति जो ईश्वर को पहचान कर न्याय और प्रेम से प्रजा का लालन-पालन करे, उसका नाम आपकी तरफ से आने पर करोड़ी नियुक्त कर दी जाएगी। परमेश्वर आपको सत्कर्म करने की श्रद्धा दे और आपको सत्कर्म के ऊपर स्थिर रखे।’’

                                                                     विशेष सलाम।

                                                                    दास, अबुल फजल।

 

ध्यातव्य है कि यद्यपि सूरदास (1478-1583 ई.) भी अकबर (1542-1605 ई.) के समकालीन थे, तथापि वे काशी में न रह कर आगरा के निकट गऊघाट पर रहते थे। 1583 ई. में ब्रजमंडल में गोवर्धन के निकट उनकी जीवनलीला का अंत हुआ था। संयोगवश समकालीन दूसरे भक्त-शिरोमणि तुलसीदास (1532-1623 ई.) उस कालखंड में प्राय: काशी में रहते थे। तुलसीदास ने अपने दीर्घ जीवन का अधिकांश समय काशी में ही बिताया था। जब वे बारह वर्ष के थे, तब काशी के पंचगंगाघाट पर अपने गुरु शेषसनातन जी के पास रहकर पढ़ने लगे। पंद्रह वर्षों तक अध्ययन करने के बाद वे काशी से अपने गाँव राजापुर (चित्रकूट) लौट गए। पैंतीस वर्ष की अवस्था में गृहत्याग करने के बाद, घूम-फिर कर पुन: काशी पहुँचे। सत्रह वर्षों तक तीर्थाटन किया, पुन: काशी आए और अंतत: यहीं रह गए। 1574 ई. में ‘‘रामचरितमानस’’ की रचना उन्होंने अयोध्या में शुरू की; परंतु ‘किष्किंधाकांड’ से लेकर ‘उत्तरकांड’ तक की रचना काशी में की। यह भी गौरतलब है कि बादशाह अकबर के प्रियपात्र अब्दुर्रहीम खानखाना 1589 से 1599 ई. तक जौनपुर के सूबेदार थे। रहीम बड़े मनसबदार होने के साथ ही अच्छे कवि भी थे और गोस्वामी तुलसीदास से उनकी मित्रता भी थी। अकबर के शासनकाल में पं. नारायण भट्ट और गोस्वामी तुलसीदास की प्रेरणा से भदैनी (काशी) के एक भूमिहार ब्राह्मण जमींदार टोडर राय द्वारा 1585 ई. में काशी के विश्वनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना की गई थी। राजा टोडर राय तुलसीदास के मित्र थे। तुलसीदास की काव्यकृति ‘विनयपत्रिका’ में अकबर-जहाँगीर युग की काशी की झलक मिलती हैं। काशी के तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक वातावरण से तुलसीदास बहुत क्षुब्ध थे। ‘विनयपत्रिका’ में एक जगह उन्होंने उस दुरवस्था का वर्णन किया है। वे कहते हैं- ‘‘हे दीनदयालु प्रभु राम तीन दारुण तापों–पाप, दारिद्रय और दु:ख–से दुनियाँ जली जा रही है। समस्त सुख दूर चले गए हैं। नास्तिकता ने राजनीति, धर्मशास्त्र, श्रद्धा, भक्ति और कुल-मयार्दा की प्रतिष्ठा को चौपट कर दिया है। संसार में न तो आश्रम-धर्म है और न वर्ण-धर्म। लोक और वेद–दोनों की मयार्दा नष्ट होती जा रही है। पापग्रस्त प्रजा का ह्रास हो रहा है, लेकिन लोग अपनी धुन में मग्न हैं। शांति, सत्य और सुमार्ग शून्य हो गए हैं और दुराचार एवं छल-कपट की वृद्धि हो रही है। सज्जन कष्ट पा रहे हैं और दुर्जन मौज कर रहे हैं।’’ उनकी एक अन्य रचना ‘’कवित्त रामायण’’ के उत्तरकांड में उस समय की आर्थिक दशा का जो वर्णन किया गया है, वह यद्यपि पूरे उत्तरी भारत के लिए है, तथापि काशी उसका अपवाद नहीं है। चूँकि तुलसीदास अक्सर काशी में रहकर ही रचना कर रहे थे, अत: इस कवित्त में काशी का स्पष्ट उल्लेख न होते हुए भी हम समझ सकते हैं कि वह काशी की आर्थिक दशा का परिचायक है। उन्होंने लिखा है-

 

खेती न किसान को भिखारी को
न भीख बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविकाविहीन लोग, सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई का करीं’।
बेदहू पुरान कही लोकहू बिलोकियत,
साँकरे सबै पै रामरावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी दीनबंधु,
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।

तुलसीदास के वर्णनों से स्पष्ट है कि अकबर तक के समय में काशी में किसानों-मजदूरों और व्यापारियों की दशा सोचनीय थी। लोगों को काम नहीं मिल पा रहा था। बेरोजगार लोग इधर-उधर भटक रहे थे। भिखारियों को भिक्षा देने वाला भी कोई नहीं था। काशी सहित पूरे उत्तरी भारत में सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा था। उस पूरे कालखंड में प्रजा रोजी-रोटी की चिंता से परेशान थी। बार-बार दुर्भिक्ष पड़ रहे थे। शासकीय उथल-पुथल के कारण अनिश्चितता का वातावरण था। परंपरागत रोजगारों से भरण-पोषण नहीं हो पाने के कारण लोग अपने पैतृक रोजगारों को छोड़कर दूसरे धंधे तलाश रहे थे। प्रशासनिक अमला और छोटे कर्मचारी किसानों को बहुत परेशान कर रहे थे। जब-तब फैलने वाली महामारियों के प्रकोप से लोग कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे थे। लोगों की दशा सुधारने वाला तो दूर, कोई सुधि लेने वाला भी नहीं था। आम लोग किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मन में ‘कहाँ जाई का करी’ के भाव लेकर चतुर्दिक भटक रहे थे। महाकवि तुलसीदास अपनी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से इसी युग-सत्य का उद्घाटन कर रहे थे। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब्दुल समद की किताब ‘मुंशियात’ में काशी के करोड़ी द्वारा प्रजा को उत्पीड़ित करने की उक्त घटना 1588 ई. (वि. संवत् 1645) की बताई गई है; जबकि सूरदास 1583 ई. में ही दिवंगत हो गए थे, इसलिए अधिक संभव है कि काशी के लोगों के हितों की रक्षा के संबंध में वह पत्र भक्तकवि तुलसीदास ने बादशाह अकबर को लिखा हो; और अबुल फजल ने बादशाह के निर्देश पर तुलसीदास जी को ही उसका प्रत्युत्तर भेजा हो। ऐसा प्रतीत होता है कि अबुल फजल के भानजे अब्दुल समद की किताब ‘मुंशियात’ में भ्रमवश तुलसीदास के स्थान पर सूरदास का नामोल्लेख कर दिया गया है।’’