अदाकारा मधुबाला 'खाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हा हो गई'
गोबिंद प्रसाद
कवि, आलोचक, ललित कला एवं संगीत समीक्षक, अनुवादक, चित्रकार, सम्पादक। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के जानकार। कोई ऐसा शब्द दो, त्रिलोचन के बारे में , मलयज की डायरी, आलाप और अंतरंग, कविता के सम्मुख, शमशेर : एक अभिनव राग आदि प्रमुख पुस्तकें। जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष रहे।
हमने शेख मुजीबुर्रहमान की बात की, उन्होंने मधुबाला का नाम लिया। हमने कहा कि क्यों साहब, गोलमेज कांफ्रेंस अब तो शुरू ही हो जाएगी। उन्होंने ठंडी साँस भरी और कहा कि मुझे आज फिल्म ‘महल’ याद आ रही है : कमबख्त ने क्या काम किया था!
यूँ हमें रफ़्ता-रफ़्ता एहसास हुआ कि आज कि अहम खबर यह है कि मधुबाला अल्लाह को प्यारी हो गई। हमने मुख्तलिफ नौजवानों को देखा कि सारे जिक्र भूले हुए हैं और बड़े दुःख और अफसोस के साथ मधुबाला का जिक्र कर रहे हैं।
अब तो खैर वह जमाना ही गुजर गया जब बम्बई की फिल्में पाकिस्तान में आती थीं और नर्गिस व मधुबाला मनचलों के दिलों पर हुक्म करती थी और हम समझते थे कि रात गई , बात गई। वो ताकरीबी खत्म हो गई जिस तकरीब से ये सूरतें नजर आती थी और दिलों में घर करती थीं। अब नए ख़्वाब हैं और ख़्वाबों में आबाद होने वाली नई सूरतें हैं – आँख ओझल, पहाड़ ओझल। जो सूरतें अब पाकिस्तान के सिनेमाघरों में तुलूअ नहीं होतीं, इनके बारे में इसके सिवा और क्या सूरत हो सकती है कि फिल्मों में आने वाले सूरतपरस्त अफसोस के साथ याद करें कि ‘ वै सूरतें – इलाही किस देश बस्तिया हैं।’
और फिर इन्हें भूल जाएँ इसलिए कि सूरतें तो आनी-जानी चीजें हैं। एक चेहरा गुरुब होता है तो दूसरा चेहरा तुलुझ हो जाता है। एक सितारा अंधेरता है तो दूसरा सितारा चमकता है। मगर आज हमें पता चला कि लोगों के दिलो- दिमाग के किसी अक्वी-गोशे मे मधुवाला जूँ की तूँ मौजूद थी। मरने ‘की खबर आई तो तस्वीर अक्बी-गोशे से उभरी और तसव्वुर पर छा गई।
दूसरे देश के शहर बम्बई में मरने वाली हसीना ‘का सोग मनाने के लिए कवा-क्या रस्ते निकाले और कैसे कैसे उज्र किये। एक नौजवान ने कहा कि, वो बम्बई मे थी तो का हुआ, थी तो वो पिंडी की खाक से। हमने कहा कि मियां ठीक कहते हो – हाथी फिरे जौँव-गाँव, जिसका हाथी उसका नाँव । हमारे एक दोस्त ने बड़े अफसोस के साथ कहा, यार आज मुझे अपने लड़कपन के दिन याद आ गए, जब मैंने पहला इस्क किया था। हमने कुरेदा तो कहने लगे कि जब ‘बसंत’ आई थी तो मै स्कूल में पढ़ता था। उस फिल्म में मधुबाला शांति की बेटी बनी थी। उन दिनों वो बिलकुल बच्ची वी। मैं भी बस लड़का था। मैं उस पर आशिक हो गया।
‘एक दोस्त ने बातें करते-करते अपनी कनपटी के सफेद बाल दुरुस्त किये फिर कहने लगे, यार बात यह है कि अब तो अपनी उम्र ही फिल्में देखने वाली नहीं रही। कभी फिल्म देखते भी हैं तो उसमें ‘रुमान को नजरअंदाज करके फन्नी खूबियाँ दँढते हैं। हां , मगर ‘महल’ में मधुवाला जो भी वी वो ‘हाफजे से नहीं उतरी।
‘एक किसी कद्र उम्र वाले और फिल्म बीनी के शौक से बेताल्लुक बुजुर्ग बोले कि साहब मुझे तो कभी फिल्मों से दिलचस्पी नहीं रही मगर मधुवाला से एक मोड़ पर मेरी मुठभेड़ अजब तौर से हुई। हमने इश्तियाक से पुछा कि बताइए किस तौर से हुई। बोले कि मै कराची में रिक्शा में बैठा चला जा. रहा था। बच्दर रोड पर दैड़ते-दौड़ते रिक्शा वाले ने अचानक ब्रेक लगाए और उसके पीछे आती हुई ‘गड़ियाँ और रिक्शें एक शोर के साथ रुकते चले ‘गए। मैंने रिक्शे वाले से कहा कि भले मानस, तुझे क्या हुआ। क्या तू हादसा कराएगा? वो सामने इशारा करता हुआ बोला, साब जी, क्या करता, मधुबाला आ गई। हमने सामने जो नजर डाली तो कोई सिनेमाघर था जिसके रूबरू मधुवाला की ‘कद्दें-आतिम तस्वीर आवेजाँ थी।
आते-जाते हमारी एक पनवाड़ी से मुलाकात, हुआ करती थी। वो हिर-फिर कर हमसे सियासत: पर गुफ़तगू करता है। आज मुलाकात हुई तो उसका मौजू ही बदला हुआ था। पान लगाते हुए कहने लगा, ‘साब , बहुत अफसोस हुआ हमने पूछा, किस बात का वह बोला, ‘मधुबाला मर गई।’ चुप हुआ, फिर बोला, ‘कल इस पर ‘लाहौरनामा’ आएगा? ” हमने कहा, ‘हाँ आएगा! वह बोला , ‘जरा अच्छा आना चाहिए।’
एक और पनवाड़ी की दसस्तान वे है कि अब वो अधेड़ उम्र की मंजिल में है। उसकी दुकान में मधुबाला के मुख्तलिफ पोज सजे हुए हैं। कहता है कि मधुबाला से मेरी रूहानी शादी हुई है। सब बात यह है कि मरना-जीना तो आदमी के साथ लगा हुआ है मगर फिल्मी सितारों का मामला यह है कि फिल्म के रसियाओं को उनके जगमगाने का तो पता रहता है मगर उनके गुरुब हो जाने का उन्हें पता नहीं चलता। इसलिए कि अदाकारा की उम्र ढलने के साथ-साथ उसकी शोहरत भी ढलने लगती है। बुढ़ापे के साथ-साथ या तो वो अदाकारी से रिटायर हो जाती है वा ऐसे रोल अख्तियार करती है कि उसकी हैसियत जिमनी ( दूसरे दर्जे की ) रह जाती है और राफ़्ता-रफ़्ता वो फिल्म के पर्दे से गुमनामी के पर्दे में चली जाती है। जब वो इस दुनिवा से उठती है तो उसकी मौत या तो खबर ही नहीं बनती, खबर बनती भी है तो इस तरह कि नौजवान इसका नोटिस नहीं लेते। बूढ़े लोग दम भर के लिए. चौंकते हैं कि अच्छा, ये वो है जिसे उन्होंने जवानी के जमाने में फलाँ-फलाँ फिल्म में देखा था और फिर इसे भूलकर वो अपने बुढ़ापे के गम मं खो जाते हैं। मगर मधुबाला तो जिंदगी की भरी बहार में अल्लाह को प्यारी हुई है। वो पैतीस साल की थी। उसकी अदाकारी का बोल-बाला था। जिन फिल्मों के जरिये उन्होंने शोहरत हासिल की और देखने वालों के दिलों में घर किया था वो फिल्में भी ऐसी पुरानी नहीं हुई हैं और इन फिल्मों को देखने वाले भी अभी बूढ़े नहीं हुए हैं। इसलिए मधुबाला की मौत साहिब-दिलों (शौकीन) के लिए एक अच्छा- खासा सानिहा (सदमा) बन गई। इन्होंने उसकी मौत को अदाकारी की मौत तो शायद नहीं समझा मगर थोड़े वक्त के लिए इनके लिए वे मौत हुस्न की मौत जरूर है।
इंतिजार हुसैन
1925-2016, . जन्म- डिबाई, बुलंदशहर, उ. प्र) को उर्दू के प्रमुख साहित्यकार के रूप में पहचाना जाता है. इनका परिवार 1947 में पाकिस्तान चला गया था।
इन्हेने उर्दू में लघु कथाएँ, विशिष्ट गद्य, उपन्यास और कविताएँ लिखीं और ‘डॉन’ अखबार और ‘डेली एक्सप्रेस’ अखबार के लिए साहित्यिक स्तंभ भी लिखे। ‘सातवाँ द्वार’, ‘पत्तियाँ’ और ‘बस्ती’ उनकी पुस्तकों मे से हैं जिनका अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। उनके द्वारा लिखे गए पांच उपन्यासों में -‘चौँद गहन’ (1952), ‘दिन और दास्तान’ (1959), ‘बस्ती’(1980), ‘तजकिरा’ (1987), ‘आगे समंदर है’(1995) बस्ती को वैश्विक प्रशंसा मिली।