अंतर्राष्ट्रीय व्यावसायिक अध्ययन संस्थान देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापिका एवं स्वतंत्र लेखिका हैं।
स्त्री और पुरुष ये दो प्रतियोगी इकाईयां नहीं हैं, ये दोनों पूरक इकाईयां हैं। परिवार और समाज दोनों को चलाने के लिये स्त्री व पुरुष में पूर्ण सामंजस्य चाहिए। स्त्री व पुरुष एक-दूसरे से युद्ध करने वाली शक्तियां या सेनाएं नहीं हैं, अपितु प्रकृति ने इन्हें एक-दूसरे के साथ-सहयोग के लिए ही बनाया है। स्त्री और पुरुष मानसिक और शारीरिक रूप से एक-दूसरे के पूरक हैं। पुरुष में बल है तो स्त्री में तन्यता। पुरुष में शारीरिक क्रम की क्षमता अधिक है तो स्त्री में रोग प्रतिरोधक क्षमता। समाज व परिवार के हित में स्त्री व पुरुष दोनों का साथ रहना और साथ में ही काम करना आवश्यक है। किसी भी मतवाद का आश्रय ले कर ये दोनों टकराएंगे तो परिवार व राष्ट कमजोर होगा और दोनों ही दुख पाएंगे। नारी विकास की चुनौतियों पर बात करने से पहले इसके परिवेश को समझना होगा। वैदिक काल से यदि देखें तो स्त्री तब से ही हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में थी, जैसे जमदग्नि की पत्नी, ऋषि परशुराम की माँ रेणुका ने देवासुर संग्राम में देवसेना का नेतृत्व किया था। ऋषि अगस्त्य की पत्नि लोपामुद्रा ने रावण के विरोध में शस्त्र उठाया था। लोपामुद्रा ने रावण और दैत्य शक्तियों को विंध्य के उत्तर में आने से रोेक दिया था। गार्गी बहुत बड़ी चिंतक थीं, किसी भी तरह से वे समकालीन दूसरे महत्वपूर्ण चिंतक याज्ञवल्क्य से कम नहीं थीं। वैदिक युग में यदि नारी शिक्षा न होती तो लोपामुद्रा व गार्गी का जन्म न होता, रेणुका का भी जन्म न होता। मध्य युग में बाह्य आक्रांताओं के आने के बाद स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। जब इस देश में पर्दा-प्रथा आई उसके पहले स्वयंवर हुआ करता था।
उसमें स्त्री स्वयं अपने पति का चुनाव करती थी। यदि किन्ही राजनैतिक कारणों से उसके पिता या भाई ने वर चुन लिया तो भी निर्णय पर अंतिम मुहर उसी की लगती थी। परिपक्व अवस्था में उसका विवाह हुआ करता था। भगवान श्रीराम के विवाह संदर्भ में ये प्रचलित है कि उनके विवाह के समय उनकी उम्र 28 वर्ष व सीता जी की आयु 26 वर्ष की थी। मध्य युग में हुई क्रूरताओं से बाल विवाह जैसी कुरीति की शुरूआत हुई। पर्दा प्रथा भी मध्य युग में आई। स्वयंवर प्रथा की समाप्ति हुई, किन्तु मध्ययुग में नारी शक्ति ने कई महत्वपूर्ण कार्य किये हैं, ऐसे अनेक उल्लेखनीय हस्ताक्षर भी मिलते हैं। जीजा बाई, रानी दुर्गावती, रजिया सुल्तान, अहिल्याबाई होल्कर, झलकारी बाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई इत्यादि कुछ नाम हैं। स्वतंत्रता संग्राम में 1857 और उसके बाद भी देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजादी दिलाने में भी स्त्रियों का योगदान रहा। लेकिन अब उनकी स्थिति में गिरावट आई है, यह गिरावट मात्र भारतवर्ष में नही है सार्वभौमिक है। इस पूरे मसले पर हमें नये सिरे से विचार करना होगा और समाज के संजीदा लोगों को रणनीति बनानी होगी उसके अनुसार ही काम करना होगा। रणनीति के तहत ये होगा कि दलित वर्ग की, आदिवासी समुदाय की जो लड़कियां हैं उनकी प्रत्येक स्तर की शिक्षा निशुल्क होनी चाहिए, यहां तक कि उनके आवास की व्यवस्था भी राज्य को ही करना चाहिये। अनेकों वर्षों से स्त्रियों के लिए आरक्षण की बात चल रही है। सरकारी पदों पर पहुंचने से एक प्रकार का सशक्तिकरण होता है। सरकारी पद मात्र नौकरियां नहीं है वे एक प्रकार से सशक्तिकरण के उकरण भी हैं। राजनैतिक सत्ता भी सशक्तिकरण का उपकरण है। पंचायती राज आने के बाद जब महिलाओं के पंच सरपंच, प्रधान, पार्षद, पालिकाध्यक्ष, मेयर, जिला पंचायत अध्यक्षों के पद पर चक्रमानुसार आरक्षित किया तब परिणाम देखने को मिला। आज अनेक नगरीय निकाय पंचायत ऐसी हैं, जिनका शीर्ष नियंत्रण महिला के हाथ में है और कार्य भी श्रेष्ठ हो रहा है। सामान्यत: स्त्रियों के व्यवहार में गिरावट नहीं होती, जिससे भृष्टाचार नहीं पनपता व तंत्र पवित्र बना रहता है, अपवाद यहां हो सकते हैं। अंत में भृंगी ऋषि का उदाहरण लाना चाहूंगी जैसा कि भृंगी ऋषि को शिव जी ने बताया था, कि शिव व पार्वती अभिन्न हैं, अलग नहीं हैं, वे अर्द्ध नारीश्वर हैं अर्थात आधी नारी और आधे पुरुष हैं, ऐेसे ही समाज की हमेंं कल्पना करनी है। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं इसी अवधारणा को बल प्रदान करना है।