भारतीय प्रायद्वीप में प्राग्ऐतिहासिक काल से निरन्तर अनेक समुदाय अपनी-अपनी मान्यता लेकर आते रहे और समावेशी समग्र संस्कृति का गठन करते रहे। जिसमें ऋषि मुनि, लोक-वेद, आगम-निगम, सनातन-श्रमण, भाव-भौतिक, आर्य-अनार्य देव-असुर, देव-किन्नर-गंधर्व आदि की सभी विभिन्नताएं भारत को निरन्तर एकत्व में बांधते रहे। भारत सभी नस्लों का विचारों, संप्रदायों, भाषाओं, परंपराओं का आत्मसातीकृत बाहर में बहुलतावादी, किन्तु अन्तर्वस्तु में एकत्व को अपनाते हुए समग्र का स्वरूप ग्रहण किया। हमारे वैविध्य के भीतर ही एक व्यापक एकरूपता अस्तित्वमान रही है। यह निरन्तर परिवर्तन और समन्वय की प्रक्रिया से अंतर्भुक्त होते हुए अपने सार तत्व को अक्षुण्ण रखती है। सदैव परिस्थितियों के अनुरूप ढलते, बदलते, नकारात्मक को त्यागते तथा सकारात्मक को संजोते हुए अस्तित्वमान रहती है। इसी परिवर्तनकारी अर्थ में यह सनातन है, अहर्निश है, निरन्तर है, सार्वभौम है, सार्वजनीन है एवं शाश्वत है। इसकी नींव की आधारभूत वैचारिकी बहुत ही मजबूत है जो कबिलाई-समाज, दास-मालिक समाज, सामन्ती समाज, पूंजीवादी समाज और उत्तर-आधुनिक समाज को धारण करने में समर्थ है। गीता इसकी वैचारिक प्रतिनिधि पुस्तक है जिसकी प्रासंगिकता आदिकाल से लेकर वर्तमानकाल तक एवं आने वाले कालखंड में भी बनी रहेगी।
भारतीय वांग्मय की कुछ पंक्तियां संस्कृति की सनातनता को समझने में सहायक होती हैं। क – ‘एक ही सदविप्रा बहुधा वदन्ति’-अर्थात सत्य एक है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति अनेक हैं। ख – ‘वसुधैव-कुटुंबकम’-अर्थात समस्त संसार के प्राणी एक परिवार के सदस्य हैं। ग – ‘चरैवेति चरैवति’ – अर्थात सदैव गतिशील रहो। घ – ‘कृणवण्त विश्वआर्यम’-अर्थात संसार को अंधकार से प्रकाश में लाओ, श्रेष्ठ बनाओ। ड – ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’-अर्थात सभी चर-अचर, जड-चेतन प्राणी सुखी हों। च – ‘एको मानुष जाति’ -अर्थात सभी मनुष्य की जाति एक ही है। छ – ‘मात: भूमि पुत्रो अहं पृथ्व्या’ – अर्थात हम सभी पृथ्वी की सन्तान हैं। झ – ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन सन्निधि कुरू’ इसमें काराकोरम से लेकर मलयानिल तक भारत का भूगोल वर्णित है। ञ – ‘गायन्ति देवा किल गीत कानी धन्य अस्तु, ते भारत भूमि भागे’ – अर्थात सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा। ट – ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’- अर्थात जन्मभूमि से बढ़कर स्वर्ग भी नहीं है। ठ – वाल्मिकी रामायण के अनुसार भगवान राम, लक्ष्मण से कहते हैं – ‘‘यद्यपि लंका सोने की है तथापि यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा है, हम सब शीघ्र अयोध्या चलें।’’ ड – बरात्य कांड में कहा गया है – ‘वे बरात्य भी गौरवशाली हैं जो अन्य मत के हैं’। ढ – कबीरदास का कथन है -‘लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल’- वे समस्त प्राणी में एक ही तत्व का दर्शन करते हैं। ण – गीता उन्हीं आचार-विचार का समर्थन करती है जो लोककल्याणकारी और समानता का आचरण करते हैं। देवल स्मृति का कथन है – उन्हीं आचार-विचार का पालन करने चाहिए जो न्यायपूर्ण और कल्याणकारी हों। रामानुज भी सभी प्राणियों में एक ही ईश्वर को देखते हुए समानता का उपदेश करते हैं। त – तुलसीदास लिखते हैं – ‘‘जित देखूं तित तोय, कंकड पत्थर टीकरी सबमें देखूं तोय।’’ थ – इकबाल कहते हैं – मेरे लिए वतन का हर जर्रा देवता है। द – जनक्रांति के दृष्टा सहजानंद के सुर में सुर मिलाकर राष्ट्रकवि दिनकर भी समानता का उपदेश करते हैं।‘‘शान्ति नहीं तब तक जब तक सुख भाग न नर का सम हो नहीं किसी को बहुत अधिक हो नहीं किसी को कम हो।।’’ जैन ग्रन्थ में इसी को अपरिग्रह कहा गया है। भारतीय राष्ट्रवाद में चारों पुरूषार्थ सन्निहित हैं, यह दमन पर टिका हुआ नहीं है। यह संवाद और विमर्श पर जोर देता है। यह भारतीय राष्ट्रवाद इतिहास और अर्थशास्त्र के साथ-साथ संस्कृति का परिप्रेक्ष्य लेकर चलता है। इसने समन्वय की नीति के अनुसार नागालैंड, मिजोरम, बोडोलैंड आदि में लोककल्याण को ज्यादा महत्व देकर समाधान तक पंहुचाया। यही कारण है कि भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद युगयुगीन तथा समकालीन है। संस्कृति की भारतीय परंपरा में नारी शक्ति को देखने की भारतीय दृष्टि पश्चिम से भिन्न है। यह नर-नारी के समता का उद्घोष करती है। इसी हेतु अर्धनारीश्वर की परिकल्पना की गई जिसमें मातृ एवं पितृसत्ता के बीच समन्वय किया गया है। इस लक्ष्य की पूर्ति के क्रम में राम को कौशल्यानंदन, कृष्ण को देवकीनंदन, अर्जुन को कुन्तीपुत्र, हनुमान को आंजनेय, कार्तिक स्वामी को कृतिकापुत्र, कर्ण को राधासुत, दैत्य को दितिपुत्र, आदित्य को अदितिपुत्र, गरूड को विनितापुत्र आदि संबोधन उनकी माता के नाम पर है। दुर्गा सप्तशती में महामाया का स्थान विष्णु से भी ऊपर रखा गया है। सावित्री, द्रौपदी, सीता, शकुन्तला, तारा आदि स्त्रियां दृढ एवं संकल्पित व्यक्तित्व की हैं। नर-नारी समानता की तरह भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में न्याय और समानता को महत्व दिया गया है। गोस्वामी तजी लिखते हैं – ‘‘बन्दउ सीताराम पद जिन्ही परमप्रिय खिन्न’’ गीता के अनुसार भी भारतीय परंपरा में ईश्वर के प्रियजन दुखी एवं गरीब लोग हैं। स्वामी सहजानंद ने गीता का मर्म समाज कल्याण और बराबरी में दशार्या है। गीता में मार्क्स का अर्थ, फ्रॉयड का काम, महाभारत का धर्म, वेदान्त का मोक्ष सभी आ जाता है, इसलिए यह सार्वकालिक ग्रंथ है। भारतीय संस्कृति अटूट है। इसके राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य समुज्जवल है। ’’