यदि हम केंद्र को रद्द कर दें तो भी इस तथ्य को विस्मृत नहीं कर सकते कि अन्य नए केंद्र स्थापित हो रहे हैं।आज साहित्य व कलाओं के समारोह व उत्सव आयोजित होने लगे हैं। इसकी पश्चिमी शाखा में जाने से पहले भारतीय मूल में जाएं तो शंकरदेव अपने नाटकों व लोक प्रसंगों का असम, पूर्वोत्तर व अन्य हिस्सों में आयोजन करते थे। इसमें पारंपरिक कथानकों के माध्यमों से अपने समय की बात की जाती थी, अपने समय को समझा जाता था। पश्चिम में इसके बरक्स साहित्यकारों के सम्मिलन, संभाषण, आयोजन आदि की परंपरा बनी।
भारत में साहित्यकारों का एक साथ जुड़ना अनेक समाजशास्त्रीय व सांस्कृतिक प्रश्न खड़े करता रहा है। विद्वान बाड़ों को तोड़कर मास अपील के आधार पर भाषा-विचार, विचारधारा, क्षेत्र, लेखक संगठन से परे बृहत रूप में इकटठे हों, विमर्श करें, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। मास अपील के बावजूद संपूर्ण आयोजन स्तर से नीचे न जाए, यह भी बड़ी चुनौती रहती है। कार्यक्रम की गरिमा, उसमें विषय का उचित निर्वहन, उचित वक्ता, अन्य कलाओं से समानुपातिक संबंध-निर्वहन आदि से स्तरीयता बनी रहती है। लोकप्रिय आयोजन, लोकप्रिय कविता, लोकप्रिय साहित्य आदि पद विविध अर्थ देते हैं। कई बार लोकप्रियतावादी होने के चक्कर में श्रोताओं की तात्कालिक रुचियों को आधार बनाकर हल्का बनने की कोशिश की जाती है। यहीं मंच अपनी आभा खो देता है। माना कि मंच की अपनी आवश्यकता होती है परंतु गंभीर व संप्रेष्य के बीच उचित पुल होना ही चाहिए। उत्तर भारत में मास अपील के साहित्यिक-कलात्मक आयोजनों की कुछ गंभीर चुनौतियां रही हैं। इसी तरह से नाटकों के प्रदर्शन, शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक आयोजनों की भी। असम महाराष्ट्र, बंगाल, गुजरात आदि में यह वर्षों से होता रहा है जिसमें आम आदमी, कलाकार, साहित्यकार आदि समवेत भाव से मिलते-जुलते रहे हैं।
उत्तर भारत में बड़ा से बड़ा कवि अपने शब्द से लाख दो लाख श्रोता जुटा ले, यह चुनौती होगी। कोलकाता मेंअनेक बार महत्वपूर्ण कवियों के प्रोफेशनल पाठ का टिकट खरीद कर आनंद उठाया जाता है। उत्तर भारत में यह वातावरण निर्मित होना चाहिए। भिखारी ठाकुर के बिदेसिया नाच में लोक के सांस्कृतिक तत्व होने तथा धरती की गंध होने के कारण जनता भारी संख्या में उसका आनंद उठाने आती थी। बड़ी बात यह कि भिखारी ठाकुर की रचनाओं का स्तर भी पाया जाता है। वह अपनी कविता भी बीच-बीच में सुनाते थे। आज रचनाओं की संप्रेषणीयता बहुत बड़ा प्रश्न है। एक ऐसा टेक्स्ट विकसित होना चाहिए जो अपने समय को तो कहे, कहने के शिल्प को समकालिक भी बनाए रखे लेकिन वह दूसरों तक पहुँचे भी। भाषाई व सांस्कृतिक संपर्क बहुत आवश्यक है। कविता में वह छंदमुक्त हो सकता है, छंद युक्त भी। नाटक में पौराणिक हो सकता है, समकालीन भी। संगीत में पारंपरिक हो सकता है और नए प्रयोगों से समन्वित भी। हमें कोई बाधा न बनाकर समाहार का प्रयत्न करना चाहिए। लोक का प्रयोग भी समन्वयकारी रहेगा।
साहित्यिक उत्सवों के संस्कृतिशास्त्र में बाड़े-बंदी को परे हटाना होना। वर्जनाओं से मुक्ति आवश्यक है तथा कोशिश हो कि सबको जोड़ा जा सके। सबसे बड़ी बात यह कि लेखक कलाकार स्वयं जनता के गहरे संपर्क में होने की इच्छा रखें। जनता को भी अपना स्तर सामान्य से ऊंचा उठाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। अनेक बार कई ऐसे आयोजन असामान्यीकृत बयानों के लिए अधिक चर्चित हो जाते हैं। जैसे एक बार आशीष नंदी का हुआ था। कई लेखक अपनी निजी जिंदगी, व्यवहार, स्वतंत्रता के प्रसंगों के लिए चर्चित हो जाते हैं, जैसे-सलमान रुश्दी या वी.एस. नायपाल आदि। साहित्य के साथ बेशक जीवन में साहित्य के इतर पक्ष भी लगातार चलते रहते हों, इसमें लोगों की रुचि हो या बनाई जा रही हो पर सबसे महत्वपूर्ण है, थीम का केंद्र में बने रहना।
यह अच्छी बात है कि खतरे में शामिल भाषाओं को विषय बनाया जाय। भारत व विश्व की अनेक भाषाएं ऐसी स्थिति में पहुंच चुकी हैं, जिन पर बराबर लुप्त होने का खतरा है। अडंमान में अनेक भाषाएं लुप्त हों चुकी हैं तथा भारत के उत्तर पूर्व में भी लुप्त हो रही हैं। एक भाषा के मरने का अर्थ है, संस्कृति का मरना, प्रकारांतर से वहां के मनुष्य व पर्यावरण का मरना। इसे बचाने के लिए प्रयत्न आवश्यक है। स्त्री स्वाधीनता इस समय का प्रबल पक्ष है। उसे अबाधित रखना समाज का उददेश्य होना चाहिए। साहित्य का भी प्रकारांतर से यह पक्ष है। दिल्ली में हुई कई घटनाओं ने साहित्य-समाज को उद्वेलित किया है। विश्व में अपराध व दंड के रूप बदले हैं, उन पर एक स्वस्थ बहस जरूरी है जबकि लोकतांत्रिक संवाद के बगैर लोकतांत्रिक समाज चल ही नहीं सकता। वास्तव में देखें तो साहित्य एक लोकतांत्रिक संवाद ही है। इस तरह के आयोजनों से जनता साहित्य व कलाओं से जुड़ना चाहती हैं। इसमें फोकस साहित्य, विचार, कलाओं पर ही रहे तो उचित वरना इससे अन्य दिशा में मुड़ने का खतरा रहता है। वैचारिक स्वाधीनता का सम्मान किया जाना चाहिए। आयोजन को स्तरयुक्त आभा दी जानी चाहिए। निजी जीवन पर इंगित न करना अच्छा ही रहेगा। लोकप्रियता को स्तरहीनता नहीं, विजन व संप्रेषण के रूप में लेना चाहिए।
जनता की सांस्कृतिक चेतना व शिक्षा का इस बहाने विकास संभव होगा। यही वह अवसर है, जब कविता पाठ के अनेक रूप खोजे जा सकते हैं। भारतीय भाषाओं की इन आयोजनों में सम्मानपूर्ण स्थिति होनी चाहिए। कहीं यह संदेश न जाये कि समकालीन भारतीय अंग्रेजी साहित्य ही प्रतिनिधि भारतीय साहित्य है। आज भारतीय साहित्य बड़े पैमाने पर तथा बेहतर रूप में रचा जा रहा है। हमारे पास ऐसे रचनाकार हैं जो भारतीय भाषाओं में लिखते हैं और जिन्हें विश्व के किसी भी सम्मान के योग्य माना जा सकता है। उनकी भाषाओं में लिखित रचनाओं के अनुवाद के लिए भी सोचा जाना चाहिए। सरकार भी ऐसी पहल कर सकती है। इससे श्रेष्ठ साहित्यकारों के रचना संसार को विश्व प्रसार मिल सकता है। भारत की संस्कृति बहुलतम व समाज बहुलता का इससे अच्छा आदर और क्या हो सकता है? विश्व के विशिष्ट लोगों का ऐसे आयोजनों में आना ही इसे उत्सव बना देता है। उन्हें देखना, उनके साथ बैठना, उनको सुनना एक अनुभूति है। कई बार साहित्य-पाठ की उनकी लयें, तरकीबें सुनते ही बनती हैं। यही शिल्प उन्हें विशिष्ट आभा देता है। उनके विचारों की फलश्रुतियां आज के समय को समझने में मदद करती हैं। राजनीति का बृहत लक्ष्य मनुष्यता व समानता की स्थापना करना रहा है किंतु कई बार समकालीन राजनीति संवादहीनता, विद्वेष, स्पर्श से संचालित होती व उसे ही परिपुष्ट करती रही है।
अब नई संभावनाएं व सृजनशीलताएं उभरने लगी हैं। साहित्य की राजनीतिक वर्जनाएं टूटी हैं। भाषा और साहित्य सच्चाई का कितना चित्रणकर पाएंगे, यह द्वंद्व है क्योंकि यह निर्णय कर पाना कि सच्चाई क्या है, कठिन है। विभिन्न साहित्यिक आयोजनों के मूल में उभरते हुए संस्कृतिशास्त्र को इस रूप में समझना होगा कि सांस्कृतिक परंपराओं की सुरक्षा, सांस्कृतिक परिवर्तन, गतिशील सांस्कृतिक समंजन और उससे जुड़े द्वंद्व किस तरह हुए?