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रवि शंकर राय

लेखक. प्रख्यात उद्यमी होने के साथ ही समाजिक कार्यों और लेखन के क्षेत्र में भी सक्रीय है। स्वतंत्र टिप्पणीकार के रूप में राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न ज्वलंत, सम-सामाजिक विषयों पर लेखनरत रहते है।

आज कल अभिव्यक्ति की आजादी बहुत बड़ा मुद्दा हो गया है। सोशल मीडिया के दौर में हर व्यक्ति पत्रकार हैं। आज का  समाज बहुत बुद्धिजीवी हो गया है और आजादी के नाम पर कुछ भी परोसने को बेताब रहता है। अभिव्यक्ति की आजादी किसी विषय पर शोध के द्वारा अर्जित ज्ञान को बाँटना होता है ना की कुछ भी परोसना। आजकल आजादी के नाम पर कुछ भी करने की स्वतंत्रता चाहिए। आजकल फैशन हो गया है बोलने का की ले के रहेंगे आजादी, छिन के लेंगे आजादी। भले ही आजादी के बहाने कुछ भी करने की स्वतंत्रता से समाज का कितना भी नुकसान हो जाए इस बात की कोई चिन्ता नहीं रहती है आजादी माँगने वाले को। 
रोज नई नई आजादी की माँग खड़ी हो जाती है। हिजाब और बुर्का पहनने की आजादी, मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लगाकर अजान देने की आजादी, गली मोहल्लों में लाउडस्पीकर लगाकर हनुमान चालीसा पढ़ने की आजादी, सड़क जाम करने की आजादी, धर्म के नाम पर जहर उगलने की आजादी इसके अलावा और भी रोज नई-नई आजादी की माँग उठने लगती है। आजादी की माँग करने वालों के पास अपनी माँग के पक्ष में भले ही कोई ठोस तर्क ना हो लेकिन चाहिए। समाज में बिना सत्यता जाँचे  कुछ भी परोसने का रिवाज बढ़ता जा रहे है और हर झूठ को सत्य मानने वाले लोग भी बढ़ते जा रहे हैं। हमारे बचपन में सोशल मीडिया तो नहीं था लेकिन खबरें तो मिल ही जाती थी। झूठ परोसने वाले लोग पहले भी थे लेकिन उनको सुनने और मानने वाले लोग नहीं थे। पहले भी लोग तरह तरह की बातें बताते थे जैसे वो रोज सुबह- सुबह भूत से कुश्ती लड़ते हैं, उनके दादा के पास सोने का पहाड़ था, उनके दादा शेर से कुश्ती लड़ते थे, उनके अमरूद के पेड़ पर आम फलता था और ऐसी ही बहुत बातें। लेकिन कोई भी ऐसी बातों को गम्भीरता से नहीं लेता था केवल सुनकर मजे लेता था और सच नहीं मानता था। सच उसी को लोग मानते थे जिसका साक्ष्य हो, गवाह हो और प्रमाणित हो। आजकल झूठ को मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है और झूठ सच से भी बड़ा होता जा रहा है।
अभी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पढ़ा था। लिखने वाले एक युवा पत्रकार हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं उनका हर पोस्ट पढ़ता भी हूँ। उनके एक पोस्ट का जिक्र करना चाहूँगा यहाँ जो अभिव्यक्ति की आजादी से भी जुड़ा है –

इस पोस्ट में लिखी सभी बातों  को मैं नहीं नकारता हूँ लेकिन मुझे ये संदेह है की अन्तिम पैराग्राफ में  दिया गया कथन पूरा सत्य तो नहीं हो सकता है। बकरीद एक मात्र ऐसा  त्योहार तो नहीं हो सकता है। अगर इस एक मात्र सत्य को सत्य मान लिया जाए तब तो हजारों साल के त्योहार परम्परा पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा।
पोस्ट पढ़ कर धर्म के बारे में जानने का अवसर मिला। हम तो बचपन से जो धर्म पढ़ते आए हैं वो मुझे फर्जी लगने लगा। जीयो और जीने दो, वसुधैव कुटुम्बकम्, मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है, नर सेवा नारायण सेवा और ऐसी बहुत सारी बातें अनेकों धर्मों द्वारा कही गई हैं।
हर त्योहार अपने आप में अलौकिक है और मानवता, वैज्ञानिकता के सिद्धान्तों पर आधारित है। चाहे दीपावली, दुर्गा पूजा, दशहरा, होली, बैशाखी या कोई भी त्योहार किसी भी धर्म का हो अमीरी- गरीबी से परे मानवता के सिद्धांतों पर आधारित है।
दिवाली में  गरीबों के घरों में बना हुआ दीपक  अमीरों के घरों में प्रकाश फैलाता था और बनाने वाले के घर में भी समृद्धि लाता था। दुर्गा पूजा में माँ की मूर्ति बनाने के लिए पहली मिट्टी समाज के सबसे बदनाम लोगों के घर से आती है। दुर्गा पूजा में मूर्तियाँ बनाने वाला वर्ग उद्योगपति और पूँजीपति नहीं होता है। इसी तरह दशहरा में रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण  के पुतले बनाने वाले भी शायद उद्योगपति नहीं हैं।
बचपन से लेकर आज तक कबीरदास,सूरदास,तुलसीदास, सन्त रविदास, रसखान, कालिदास, नानक देव और बहुत सारे विद्वानों को पढ़ा लेकिन ये ज्ञान कहीं नहीं मिला।

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल ।

जो नर बकरी खात हैं, तिनकौ कौन हवाल।।

बाबा कबीर इस दोहे को लिखते समय शायद गहन अध्ययन नहीं किए होंगे और इस बात की तरफ ध्यान नहीं दिए होंगे। ये भी हो सकता है कि उस जमाने में बकरी पालने वाले उद्योगपति और पूँजीपति रहे होंगे।
समय समय पर मानवता की रक्षा के लिए धर्म में बदलाव हुए हैं और गलत परम्परा को धर्म से हटाया गया। कभी दधीचि जी ने मानवता को बचाने के लिए अपना शरीर दान कर दिया था। जटायु जी धर्म की रक्षा करने के लिए अपने प्राणो का मोह किए बिना रावण से लड़ गए। ऐसे ही बहुत सारे मनुष्य, पशु, पक्षी, पेड़, पौधों, पहाड़, नदी और प्रकृति के सभी अंगों ने समय-समय पर मानवता की रक्षा के लिए कुबार्नी दी है।
सदियों से मनुष्य और पशु, पक्षी एक साथ बड़े प्रेम से रहते आए हैं। साथ रहने वाला अपने परिवार का हिस्सा होता है और मानवता कहीं से भी ये नहीं सिखाती है की साथ वाले को अपनी खुशी के लिए कुर्बान कर दिया जाए। हो सकता है धरती पर कभी अकाल पड़ा हो और मानवता खतरे में आ गयी होगी तो पशु-पक्षियों ने मिलकर मानवता की रक्षा के लिए कुबार्नी दी होगी। उनकी कुर्बानियों को परम्परा और धर्म से जोड़कर जारी रखना न्यायोचित नहीं है। ये शोध का विषय है और मैं सिर्फ अनुमान लगा रहा हूँ।
धर्म के भी अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा है और वो सीमा लांघना अधर्म है।

‘हर धर्म श्रेष्ठ है ये धर्म की महानता है

केवल एक धर्म सर्वश्रेष्ठ है ये अधर्म है’

अभिव्यक्ति की आजादी की भी अपनी सीमाएँ हैं और ये सीमा वहीं तक है जहाँ तक किसी और व्यक्ति या समाज को नुकसान ना हो। हर व्यक्ति को बोलने, दिखाने, लिखने से पहले इस बात का ध्यान रखना चाहिए की उसकी आजादी से समाज का नुकसान तो नहीं होगा।

सही मायने में आजादी का मतलब सिर्फ एक अच्छा नागरिक बन कर मानवता को सबसे ऊपर रखकर देश और समाज के सर्वांगीण विकास में सहयोग करना होता है।

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रवि शंकर राय

लेखक. प्रख्यात उद्यमी होने के साथ ही समाजिक कार्यों और लेखन के क्षेत्र में भी सक्रीय है। स्वतंत्र टिप्पणीकार के रूप में राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न ज्वलंत, सम-सामाजिक विषयों पर लेखनरत रहते है।