रवींद्रनाथ टैगोर को पूरा विश्व एक महान कवि- लेखक- कथाकार- उपन्यासकार -नाटककार और चित्राकार के रूप में जानता है। वे एक बड़े चिंतक और विचारक भी थे। उन्होंने भारत की संस्कृति को ‘महामानवेर सागर तीरे‘ कहा है और महामानव का अर्थ भी बताया है। लगता है कि उनके इस चिंतन की शुरूआत 1905 से होती है क्योकि उस ही वर्ष हुए ऐतिहासिक ‘बंग-भंग‘ के विरूद्ध चले आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की थी। उस आंदोलन की कुछ घटनाओं से वे उतने ही विचलित भी हुए थे। उन्हीं दिनों की अपनी ‘बंग माता‘ शीर्षक कविता में रवींद्रनाथ टैगोर राष्ट्रीयता के ऊपर मानवता को रखते हैं। लिखते हैं, ‘शांत कोटि संतानेर हे मुग्ध जननी/रेखेछि बंगाली कोटे मानुष कारे नी।‘ अर्थात ‘हे सात करोड़ संतानों की मुग्ध मां, तुमने हमें बंगाली तो बनाया किंतु मनुष्य नहीं बनाया।‘ इसके बाद उनके मनुष्यता को ले कर जो विचार थे, वे भी समय के साथ-साथ स्पष्ट और पुष्ट होते गए।
लगभग साढ़े आठ दशक पहले की बात है, गुरुदेव जब पेरिस में थे। उन्हें ईरान आने के लिए आमंत्रित किया गया था। ईरान से पूर्व उनका एक हवाई पड़ाव बगदाद था। बगदाद में उन्हें खबर दी गई कि ब्रिटिश नौसेना के सैनिक विद्रोही शेखों के कुछ देहातों पर बम बरसाने जा रहे हैं। इस सूचना से उनका कविमन उद्वेलित हो उठा और उन्होंने बगदाद से ईरान की उड़ान के दौरान विमान में कुछ पत्र लिखे थे। उनके एक पत्र के अंश का बांग्ला से हिंदी में रुपान्तरण इस प्रकार है। ‘जहाज ने उड़ान भरी। हम ऊंचाई पर पहुंचे और धरती से हमारी ज्ञानेंद्रियों का संबंध टूट गया। अंततः दृष्टि का ही संबंध बचा रहा किंतु साफ-साफ कुछ भी न दिखता था। पहले वहां अनंत रंग-रूपों वाली धरती थी, अब वहां धुंध थी। त्रिआयामी वास्तविकता अब मात्रा दो आयामों के सपाट रेखाचित्रा में सिमट गई। विविध रूसी सृष्टि की विशिष्ट वैयक्तिकता सिर्फ सुनिश्चित दिक्काल के संदर्भ में ही सुरक्षित रहती है। यह संदर्भ मिट गया तो मानो सृष्टि का भी लोप हो गया। विलय की इस प्रक्रिया में धीरे-धीरे धरती एकदम आंखों से ओझल हो गई और उसकी वास्तविकता का दावा भी जैसे खत्म हो गया। इस मनःस्थिति में जब कोई सर्वनाशी हथियारों की वर्षा करता है तो वह भयावह और दयाहीन हो जाता है। जिन मासूमों की वह हत्या करने जा रहा है, उनका उसे तनिक भी एहसास नहीं होता, इसलिए बम गिराते वक्त उसके हाथ नहीं कांपते।‘ हवाई यात्रा के अपने अनुभव को उन्होंने, उस समय की बमों की बौछार को भी आदमी की क्रूरता और अमानवीयता से जोड़ा। हिंदी में गुरुदेव की मनुष्यता संबंधी मौलिक और महान विचारों से परिचय कराती एक पुस्तक है ‘मनुष्य का धर्म।‘ मनुष्य जीवन के उद्देश्यों और उनकी प्राप्ति पर उनका जो चिंतन है, इन भाषणों पर वही व्याप्त है। जीव-दर्शन पर उनकी ये रचनाएं आज के गुमराह आदमी के लिए एक महान कवि का संदेश तो है ही, भारतीय चिंतन की एक अनमोल निधि भी हैं। उनके जीवन का आदर्श आत्मगतता (सब्जेक्टिविटी) के बाहर है। वहां वर्तमान हेतु त्याग करने का है। उसी निःस्वार्थता की ओर अग्रसर होने को ही रवींद्रनाथ टैगोर ने मानव का सच्चा स्वभाव, सच्चा धर्म कहा। समस्त मनुष्यों के मध्य एकात्मता करना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। उन्होंने बताया, ‘व्यक्तिगत शक्ति से स्वयं कोई जितना मुक्त हो रहा है, उसकी वह मुक्ति कोई मायने नहीं रखती, जब तक वह उसे सबको नहीं दे सकता।‘ रवींद्रनाथ टैगोर ने ग्यारह बार विदेश यात्रा कर लगभग विश्व का महत्वपूर्ण हिस्सा देख लिया। सारी दुनिया घूम कर गुरूदेव के मन में यह विचार प्रबल हो गया था कि सभी देशों की जनता की मित्राता और प्रेम भावना से आदान-प्रदान के बिना संसार से सुख-शांति की आशा करना व्यर्थ है। विश्व भारती की स्थापना के पीछे विश्व कवि की यही एकमात्र अभिलाषा थी कि संसार के सभी देशों की शिक्षा-संस्कृति के प्रतिनिधि एकत्र हों। तभी तो उन्होंने विश्व भारती के आदर्श वाक्य के रूप में संस्कृत का यह सुभाषित चुना ‘यत्रा-विश्वम्भवत्येकनीड़म‘अर्थात जहां सारा संसार एक ही घोंसला बन जाए।
रवींद्रनाथ टैगोर बनावटी एवं दिखावटी बातों से बचते थे । उनका देश प्रेम गहरा था हम जैसे हैं, वैसे ही सहज एवं सच्चाई के साथ रहें, तभी हम स्वस्थ एवं मजबूत राष्ट्रीय संस्कृति का सृजन कर सकेंगे। ऐसी संस्कृति एवं सृजनात्मकता जो हमारी प्राचीन ज्ञान भूमि में गहरे से समायी हो पर जिसकी जीवन्त शाखाएं आज के सूर्य की किरणों को स्वतः स्वीकारने के लिए चारों ओर सहजता से फैली हो। रवींद्रनाथ टैगोर संसार से भाग कर जंगल में जाने का उपदेश नहीं देते- ‘वैराग्यसाधने मुक्ति से आमार नय।‘वरन् मानव समाज के सदस्य की हैसियत से मानव की अपरिमेय असीम संभावनाओं को अनुभव करने और मानव जाति की सेवा में स्वयं को संपूर्णतः समर्पित कर देने का आव्हान वे करते हैं। आज जब भारत की अभिजात बिरादरी ने पश्चिम से आती कृत्रिम बुद्धि के आगे घुटने टेक दिए हैं और संप्रदायवाद, आतंकवाद, बाजारवाद, साम्राज्यवाद के खतरे आदमी पर भारी पड़ रहे हैं। गुरुदेव का मानव धर्म हमें एक राह तो दिखाता है।