इधर कुछ दिनों से काफी परेशान चल रहा था। सोचता हूँ क्यों कर रहा हूँ किस लिए कर रहा हूँ किसके लिए कर रहा हूँ| कुछ भी समझ नहीं आता है कि क्यों मैं हर रोज 15-16 घंटे काम में लगा रहता हूँ। परिवार, दोस्त, मित्र, शुभ चिन्तक सब बोलते है कि ऐसा काम क्यों कर रहे हो जिसमें कोई ‘फायदा नहीं है, परिवार और बच्चों का भविष्य दांव पर पर क्यों लगा रहे हो। मुझे भी कभी-कभी लगने लगता है कि जो कर रहा हूँ उसका कोई फायदा नहीं है। आजकल के इस समय में हर काम तो ‘फायदे के लिए ही किया जाता है। लेकिन जैसे ही भारत में किसी यात्रा पर निकलता हूँ रास्ता अपने आप चला आता है और और सारी उदासी खत्म हो जाती। काम करने का मकसद मिल जाता है और उत्साह चार गुना हो जाता है। यहाँ भारत यात्रा इस लिए बोल रहा हूँ कि मेरे हिसाब से दो देश हैं यहाँ एक इंडिया और दूसरा भारत। एक तरफ इंडिया केवल फायदा देखता है अपना व्यक्तिगत स्वार्थ देखता है और हर काम में केवल फायदा दूँढता है। बात भी करना हो तो कुछ फायदा होना चाहिए। खेलना, कूदना, टहलना, घूमना, व्यापार, समाज सेवा, राजनीति, पढ़ाईं, संबंध, रिश्ते हर चीज ‘फायदे के लिए की जाती है। मैं भी इसी इंडिया में रहता हूँ और इसी का हिस्सा हूँ।
दूसरी तरफ भारत है जो कि अपने आप को जिंदा रखने के लिए, अपने सर्वाइवल के लिए अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लगा रहता है। दिन रात काम करता रहता है और बिना किसी स्वार्थ के बिना फायदा सोचे लगा रहता है। वो नहुत ही संतोषी है, हर परिस्थिति में दिन रात काम में लगा रहता है। संघर्ष करता रहता है खुशी-खुशी बस दो जून के खाने और तन ढकने के लिये कपड़ों के लिए, बच्चों के बेहतर भविष्य के सपनो के लिए और बस इज्जत से सामान्य जिंदगी गुजारने के लिए। कोई लालच नहीं, किसी से भी शिकायत नहीं करता और देश को बेहतर बनाने में लगा रहता है। हर काम में निश्वार्थ भाव से लगा रहता है, प्यार से प्यार से खुल के बात करता है,बहुत भोला है ये भारत।
अब मैं अपनी यात्रा के बारे में बताता हूँ जिसने मुझे चार गुना उत्साह और काम करने का मकसद दिया। कुछ दिन पहले मैं दिल्ली से गाजीपुर अपने एक रिश्तेदार के यहाँ आया एक शादी में शामिल होने। बनारस से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी है। सुबह जल्दी आ गया बनारस और शादी में 6 बजे शाम तक पहुंचना था तो कोई जल्दी नहीं थी और सोचा की आराम से अपने भारत, अपनी मिट्टी से मिलते हुए चलूं। मैंने निर्णय लिया की मुख्य मार्ग से ना जाकर गाँवों से घूमते हुए चलूँगा। रास्ते में बहुत जगह रुकते हुए और एकदम अनजान लोगों से मिलते हुए लोगों से बात करते हुए चलता रहा। मैंने बहस को रोचक रखने के लिए अपनी पहचान इंडिया दिल्ली वाली बतायी। इस यात्रा में मैं 5 लोकसभा क्षेत्रों से होकर गुजरा। दो मुलाकातों का जिक्र करना चाहूँगा जिसने मर्गदर्शन किया और उत्साह बढ़ाया।
1- सुबह से कुछ खाया नहीं था और भूख लगी थी लेकिन मैंने निर्णय ले लिया था कि दोपहर में लंच नहीं करूँगा और शादी में खूब खाऊँगा। भूख के कारण मैंने एक चाय की दुकान पर गाड़ी रोकी मैंने एक समोसा माँगा और बातचीत शुरू किया। तिवारी जी की दुकान थी और उनके बड़े भाई और बेटे दोनों काम में हाथ बँटा रहे थे। तिवारी जी भी काफी पढ़े-लिखे पोस्ट ग्रेजुएट थे और बहुत सज्जन पुरुष थे। उनकी उम्र 40 से 45 के बीच रही होगी। बेटा भी मकैनिकल इंजीनियरिंग 2017 में किए थे और नौकरी ढूँढ रहे थे। एक नौकरी राँची में मिली थी 5000 रुपए महीने की लेकिन काम अकाउंट और स्टोर का था जो उनकी पढ़ायी से सम्बंधित नहीं था तो छोड़ दिए कुछ दिनों में।
अभी रेनूकूट में एक बड़ी प्राइवेट कम्पनी में जुगाड़ लगा रहे हैं जहाँ तनख़्वाह तो कम है 3500 रुपए महीने लेकिन भविष्य अच्छा है। साथ ही सरकारी नौकरी का प्रयास बहुत मन लगाकर कर रहें हैं। इसी बीच मैंने बात को जारी रखने के लिए एक लोंगलत्ता ऑर्डर किया जो एक खास किस्म की मिठाई जो पूर्वी उत्तर प्रदेश में मिलती है।
मैंने आगे पूंछा कि आप के सांसद कौन हैं और आपने उनसे क्यों नहीं किया बात नौकरी के लिए। मैंने पूछा कि तिवारी जी क्या आप जानते नहीं सांसद जी को। तिवारी जी बोले कि जानते हैं और जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ था तो इस इलाके में मेरी दुकान से ही शुरू हुआ था और हमने खूब प्रचार किया। चुनाव जीतने के बाद मिल नहीं पाया। सांसद जी की व्यस्तता बढ़ गयी और मैं भी काम में व्यस्त हो गया थोड़ा। मैंने पूछा कि अबकी बार दोबारा बोट देंगे तो उन्होंने बोला कि 100% देंगे। बहुत काम हुआ है इलाके में गैस, बिजली, शौचालय और भी बहुत काम हुआ है।
कोई शिकायत नहीं है तिवारी जी को सरकार से या राजनीति से। 400-500 रोज की बिक्री हो जाती है दुकान पे और शायद 4 से 5 हजार रुपए महीने की कमायी हो जाती होगी। बहुत संघर्ष कर रहे हैं लेकिन फिर भी चेहरे पे कोई उदासी नहीं। दिन-रात मेहनत कर रहे हैं अपने परिवार के बेहतर भविष्य के लिए। समाज का भी सोचते हैं और देश के बारे में भी बहुत चिंता करते हैं।
मैंने बोला कि समोसा और लौंगलत्ता बहुत स्वादिष्ट था। लड़के ने बोला की छोले भी बहुत स्वादिष्ट हैं यहाँ के। फिर मैंने एक समोसे और छोले ऑर्डर किया और चाय पिया। उनसे इजाजत लिया कि क्या आपके साथ तस्वीर ले सकते हैं हम और उन्होंने खुशी से फोटो खिंचवाया।
चलते-चलते मैंने उनको अपना विजिटिंग कार्ड दिया और बोला कि अगर नौकरी नहीं मिली तो हमको फोन करके दिल्ली आ जाइयेगा। थोड़ा महँगा शहर है लेकिन मैं 14-15 हजार के नौकरी की व्यवस्था करवा दूँगा कोशिश करके और आप मेहनत करके तरक़्की कर जाएँगे। उन्होंने खुशी खुशी मेरा कार्ड लिया और धन्यवाद बोला और हम निकल गए आगे।
2- दूसरी मुलाकात का जिक्र कर रहा हूँ अब। दोपहर के चार बज रहे थे भूख तो नहीं लगी थी लेकिन पूर्वांचल जाकर भूजा ना खायें ऐसा तो हो नहीं सकता। मैं भूजा वाले के ठेले के पास पहुँच गया और बोला की चने, मटर, चावल, मक्का, मूँगफली सब मिलाकर भून दीजिए। मैंने पूछा कि कितने का है तो उन्होंने बोला की 20 रुपए के 100 ग्राम। मैंने 20 का बनाने बोल दिया। मेरे पास 23 रुपए चेंज थे तो मैंने बोला की 3 रुपए का चना और बढ़ा दीजिएगा। मैंने नाम पूछा तो उन्होंने कतवारू बताया। 60 साल के आसपास उम्र लग रही थी। भूजा और चटनी दिया उन्होंने | वहाँ की चटनी खास होती है और ऐसा स्वाद सिर्फ वहीं मिलता है।
मैं भूजा खाने लगा और बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। कतवारू जी के साथ मुझे ज्यादा पहल नहीं करनी पड़ीं और वो अपने आप बहुत कुछ बताने लगे। मैंने बस इतना बोला की सड़क बहुत अच्छी है यहाँ की और वो शुरू हो गए बोलना। उन्होंने बताया कि बहुत विकास हुआ है यहाँ।
मैंने पूछा कि आप को कुछ फायदा हुआ है तो बोले कि नहीं हम को व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं मिला है और हम कमाते खाते हैं हमारे पास सब कुछ है जरूरत नहीं है हमको किसी व्यक्तिगत मदद की। यहाँ विकास बहुत हुआ है सड़कें, बिजली, पानी की व्यवस्था बहुत अच्छी है। बताया कि यही गोड़ मोहल्ला में रहता हूँ। बहुत गरीबी है यहाँ और सरकार ने बहुत कुछ किया है गरीबों के लिए। हरिजन बस्ती और गोड़ मोहल्ले में बहुत गरीब परिवारों को शौचालय मिला है। माँ-बहनें जाती थीं खुले में बहुत खराब लगता था लेकिन अब सरकार की मदद से शौचालय बन गया है। बहुत गरीबों को सरकार से मदद मिली है आवास योजना में और घर बन गए हैं उनके।
मैंने पूछा कि कितने की दुकानदारी हो जाती है रोज तो उन्होंने बताया की 150 से 200 रुपए की रोज हो जाती है । खर्च कुछ ज्यादा नहीं था इन्फ्रस्ट्रक्रर के नाम पर केवल एक चूल्हा, एक ठेला, एक कड़ाही, एक बैटरी वाला पंखा और एक बैटरी बाली लाइट थी । अनाज, नमक, मिर्च, लहसुन, अदरक इत्यादि और लकड़ी/ कोयला रोज का खर्च था। मैंने अनुमान लगा लिया कि सब खर्च काट कर 2 हजार रुपए महीने कमा लेते होंगे।
मुझे बातचीत में आनंद आने लगा और यकीन मानिए मुझे लगा कि भारत के सबसे बड़े अमीर से मिल रहा हूँ । 1 घंटे से ज्यादा का समय हो गया था खड़े-खड़े। मैं ज्यादा समय बात कर सकूँ इसलिए भूजा धीरे-धीरे खा रहा था। फिर मैंने पूछा यहाँ का सांसद कौन है हालाँकि मैं सांसद और विधायक दोनों को जानता था फिर भी पूछ लिया। मैंने पूछा कि यहाँ के सांसद कौन हैं। उन्होंने जो नाम बताया वो विधायिका थी लेकिन किसी और क्षेत्र की। फिर मैंने पूछा कि यहाँ से कोई मंत्री भी हैं क्या फिर उन्होंने वही नाम बताया विधायिका जी का। शायद उनको ये भी नहीं पता था की इस क्षेत्र के विधायक, सांसद, मंत्री कौन-कौन है। शायद उनको एक ही नाम पता था और उनसे ही मिले होंगे। फिर मैंने पूछा कि वो तो विधायक हैं यहाँ का सांसद कौन है। थोड़ा सोचने के बाद बड़े उत्साह से नाम बताया उन्होंने और जो नाम बताया अपने सांसद जी का वो प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। शायद मुख्यमंत्री जी कभी जनसभा किए होंगे और हर जगह उनकी तस्वीर लगी है तो कतवारू जी को लगा कि वही सांसद होंगे। मैंने उनके जबाब को गलत ठहराने की कोशिश नहीं की और वो बहुत खुश हुए ये सोचकर की उनका जवाब सही था।
मैंने फिर एक मंत्री जी का नाम लेकर पूछा कि क्या आप उनको जानते हैं तो उन्होंने बताया कि… हाँ.. हाँ… और ये भी बताया की बहुत अच्छे हैं वो। उन्होंने बहुत काम कराया है जितना काम पिछले 40 सालों में नहीं हुआ उतना उन्होंने 3-4 सालों में ही कर दिया।
मैंने पूछा कि आप शुरू से यही भूजा का काम करते हैं तो उन्होंने बताया कि शुरू में बचपन से वो एक्का ( घोड़ा गाड़ी) चलाते थे लेकिन पिछले 5-7 सालों से वो काम बंद हो गया अब टेम्पो(ऑटो) और बहुत सारी गाड़ियाँ आ गयी हैं तो बंद हो गया उनका एक्का। पहले यही एक साधन था लोगों के आने जाने का। बताने लगे कि बचपन से करते आ रहे थे पैसा भी ठीक था और बहुत आनंद आता था। जमनिया रेलवे स्टेशन से एक्का चलाते थे और जहाँ की सवारी मिली चले जाते थे। कभी दिन भर कभी रात में कभी सुबह जल्दी रेल गाड़ी के आने जाने के हिसाब से सवारी मिलती थी। कभी गाड़ी लेट हो जाती थी रात को 12 बजे के बाद आती थी और कोई एक्का वाला तैयार नहीं होता था लेकिन हम चल देते थे कहीं भी।
उन्होंने बताया कि स्टेशन से गाजीपुर शहर जो की लगभग 30 किमी है चले जाते थे एक्का लेकर 20 पैसे एक सवारी का मिलता था। स्टेशन से बिहार में भभुआ, मोहनिया और भी कहाँ-कहाँ चले जाते थे। शादी-ब्याह लगन में शान से दूल्हा-दुल्हन को एक्का गाड़ी में बैठा कर ले जाते थे। मैंने बोला कि अब तो अगली पीढ़ी को पता ही नहीं चलेगा कि एक्का गाड़ी क्या होती है। अब मुझे निकलना था करीब डेढ़ घंटे हो चुके थे। मैंने 23 रुपए दिए उनको 20 का नोट और 2 का सिक्का और एक का सिक्का दिया। उन्होंने ने 1 का सिक्का वापिस कर दिया ये बोल कर कि अब ये चलता नहीं है। मैंने बोला कि 500 का नोट है तो उनके पास खुल्ला नहीं था। मैंने फिर बोला की ये एक का सिक्का रख लीजिए अब चले ना चले रख लीजिए मैंने उनसे भी एक साथ में फोटो खिंचाने की इजाजत ली और फोटो खिंचाकर निकल पड़ा।
अब मैं रास्ते भर और जब तक 2 दिन वहाँ रहा सोचता रहा इन भारत के अमीरों के बारे में जिनको कोई शिकायत नहीं है किसी सरकार से। दिन रात काम में लगे रहते है और भारत के गरीबों के बारे में सोचते हैं। अपने आप को स्वाभिमान से अमीर बोलते हैं और चाहते हैं की सरकारी मदद का फायदा ईमानदारी से सिर्फ गरीबों को मिलना चाहिए।
एक तरफ हमारी तरह इंडिया के गरीब और बहुत सारे गरीब उद्योगपति हैं जो सरकार को दिन-रात कोसते रहते हैं। सरकार से बेल आउट माँगते रहते हैं। बैंक के लोन नहीं चुका पा रहे हैं और शान से अपने आप को दिवालिया घोषित करने में लगे हैं। बहुत सारे बैंको का पैसा डूब रहा है और बैंक दिवालिया होने के कगार पे हैं इन गरीबों के कारण। अब मैं अपने मूल प्रश्न पे आता हूँ जो कि सबसे शुरू में है। जब भी मैं परिस्थितियों से परेशान होता हूँ और उदास होता हूँ रास्ता अपने आप चल कर आ जाता है मेरे पास। इस यात्रा ने और मुलाकातों ने मेरे लक्ष्य को और ज्यादा स्पष्ट कर दिया। अब मुझे पता है मैं क्या कर रहा हूँ किसके लिए कर रहा हूँ।
जब हमने सावित्री टेलिकॉम शुरू किया था तो मकसद एकदम स्पष्ट था। ये तिवारी जी के बेटे की तरह बहुत से लोग थे जिनको रास्ता दूँढना था और सावित्री ने पूरी ईमानदारी से कोशिश किया सही रास्ता दिखाने की। यही तो किया है 20 सालों से सावित्री ने और केवल यही एक फायदा है।
हरिशंकर, सुशील, अमित, बिमलेश, बरुन, संजीव, रिंकु, राहुल, ब्रजेश, अमित यादव, सौरभकांत, रेणु, रिचा, मौर्या जी, दूबे जी, विनोद, सेन दादा, मिश्रा जी, गुप्ता जी, शैलेश, अमित सिंह और भी अनगिनत नाम हैं। कुछ अभी भी सावित्री के हिस्से हैं और हर साल कुछ नए आते हैं और कुछ जाते भी हैं। सबने अपनी मेहनत से एक अच्छा मुकाम हासिल किया बस एक रास्ता दिखाया सावित्री ने। हाँ पिछले 3- 4 सालों की परेशानियों ने थोड़ा दिग्भ्रमित कर दिया था लेकिन अब स्पष्ट है। समाज एक नए दौर से गुजर रहा है जहाँ हर काम का मकसद सिर्फ फायदा कमाना हो गया है। पिछले 25-30 सालों में बहुत कुछ बदला है। बहुत कुछ अच्छा हुआ और कुछ बुरा भी हुआ।
तीन चीजें बदली हैं जो देश के लिए अच्छी नहीं हैं मेरे हिसाब से।
1- शिक्षा पूरी तरह से व्यवसाय हो गया।
2- व्यवसाय पूरी तरह जल्दी से जल्दी पैसा बनाने का जरिया हो गया। अब ये जुनून, इन्नोवेशन, रोजगार सृजन नहीं रहा।
3- राजनीति और सामाजिक कार्य अब समाज सेवा नहीं रहे । अब ये सबसे आकर्षक कैरियर की श्रेणी में आते हैं।
अब लालबहादुर शास्त्री,जयप्रकाश नारायण, राजनारायण, राम मनोहर लोहिया, कर्पूरी ठाकुर, राजेन्द्र प्रसाद, स्वामी सहजानन्द सरस्वती और भी अनगिनत नाम हैं जैसे जन नेता और समाज सेवक शायद पैदा नहीं होंगे। ये तीन बदलाव किसी भी देश को पूरी तरह खत्म करने के लिए काफी हैं।
मैं रोज कुछ लिखता हूँ और मेरा शौक है ये । लेकिन मैंने आज का संदर्भ सार्वजनिक किया है और इसके पीछे केवल एक ही मंशा है कि अगर 2-4 लोगों को भी प्रभावित कर पाया अपने विचारों से तो प्रयास सफल हो जाएगा। मेरी कोई मंशा नहीं है प्रसिद्ध होने की या कुछ साबित करने की।
दोबारा से फिर बड़ा संघर्ष करना है और भारत के लिए कुछ करना है। हम बहुत बड़ा नहीं कर सकते हैं लेकिन बहुत कुछ करना है। अगर हम इंडिया के गरीब उद्योगपति और राजनेता थोड़ी ईमानदारी से प्रयास कर ले तो भारत बदल सकता है।
लेखक:
रवि शंकर राय
लेखक, प्रख्यात उद्यमी होने के साथ ही सामाजिक कार्यों और लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं स्वतंत्र टिप्पणीकार के रूप में राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न सामाजिक विषयों पर लेखन का कार्य करते हैं