लेखक एवं समाजिक कार्यों के क्षेत्र में भी सक्रीय है।
किसी देश की विदेश नीति, जिसे विदेशी सम्बन्धों की नीति भी कहा जाता है, अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए और अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों के वातावरण में अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राज्य द्वारा चुनी गई स्वहितकारी रणनीतियों का समूह होती है।’ किसी राष्ट्र द्वारा अपने देश के हितों की पूर्ति के लिए बनाए गए सिद्धान्त ही विदेश नीति कहलाते हैं। विदेश नीति दूसरे देशों के साथ आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा सैनिक विषयों पर पालन की जाने वाली नीतियों का एक समुच्चय है। आखिर भारत ने अपनी विदेशनीति में इतना बदलाव क्यों किया ? ये जानकर हैरानी होती है कि एस. जयशंकर हमारे देश के तीसवें विदेश मंत्री हैं और अभी तक किसी ने इतना सख्त रुख नही अपनाया। हालाँकि कई बार विदेश मंत्री का कार्यभार प्रधानमंत्री ने भी सम्भाला है, जिनमें जवाहर लाल नेहरु, इन्दिरा गाँधी, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर सिंह, पी.बी.नरसिम्हा राव, राजीव गाँधी, आई.के. गुजराल, मनमोहन सिंह भी शामिल थे। विदेश मंत्री किसी भी देश का ऐसा पद होता है जो विदेशों में उस देश का प्रतिनिधित्व करता है और अपने कुटनीतिक फैसलों से प्रभाव बनाता है। कभी भी किसी भी विदेश मंत्री को इतनी छूट नहीं मिली जितनी एस. जयशंकर को मिली हुई है शायद ये उनके अनुभव और कूटनीतिक ज्ञान का नतीजा है कि प्रधानमंत्री द्वारा उनपर पूरा भरोसा और छूट दिया गया है। अन्तराष्ट्रीय मंचों पर हाल के दिनों में दिए गए बयान से ये पता चलता है कि भारत अब बचाव ही नहीं अब प्रहार करने की स्थिति में पहुँचगया है चाहे वो रूस यूक्रेन युद्ध हो, भारत चीन मतभेद हो या अमेरिका और यूरोप द्वारा बनाये जा रहे दबाव को लेकर क्यों न हो ।
ऐसा नहीं है कि इनके पास विदेशी मामलों के सम्बन्ध में अनुभव की कोई कमी रही हो चाहे वो 2015-18 तक सयुंक्त राष्ट्र में विदेश सचिव हो, 2013-15 तक अमेरिका में भारतीय राजनयिक या चाइना में 2009-13 में भारतीय राजनयिक के रूप में कार्य करने का अच्छा अनुभव हो। इसी अनुभव के आधार पर इनको ये पदभार दिया गया जो एक देश के रूप में सही कदम था। 68 वर्षीय एस.जयशंकर ने बहुत से ऐसे कूटनीतिक फैसले लिए जो काफी सराहनीय रहे पर हाल के दिनों में जो सबसे चर्चित उनका बयान रहा जिसमे उन्होंने रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस के प्रतिबन्ध पर था जिसमें उन्होंने यूरोप और अमेरिका को आईना दिखाते हुए बोला कि हमने रूस से तेल का आयात किया जो मात्रा में बहुत कम था पर वो हमारे उर्जा सुरक्षा के लिए जरूरी था। हम जितना एक महीने में रूस से तेल आयात करते हैं उतना यूरोप एक दिन में करता है।
विदेशमंत्री एस, जयशंकर का हाल के दिनों में सबसे चर्चित बयान रूस-यूक़ेन युद्ध में रूस के प्रतिबन्ध पर था। जिसमें उन्होंने यूरोप और अमेरिका को आईना दिखाते हुए बोला कि हमने रूस से तेल का आयात किया जो मात्रा में बहुत कम था पर वो हमारी उर्जा सुरक्षा के लिए जरूरी था। हम जितना एक महीने में रूस से तेल आयात करते हैं उतना यूरोप एक दिन में करता है।
एक और बयान में उन्होंने बोला कि यूरोप ने अपना एक माइंडसेट बना लिया है कि यूरोप की समस्या, विश्व की समस्या है पर विश्व की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है। जब अमेरिका ने मानवाधिकार के मामले पर भारत को कहा उनकी नजर भारत पर है, इसके जवाब में जयशंकर साहब ने कहा भारत भी अमेरिका पर पैनी नजर बनाये हुए है। इससे पहले जब भी अमेरिका द्वारा भारत को या किसी भी देश को ऐसा बोला जाता था तो सभी देश चुप्पी साध लेते थे और सफाई देने लगते थे पर इस बार ऐसा नहीं हुआ। ऐसे बयान देने के लिए भी कूटनीतीक ज्ञान और अनुभव की जरूरत होती है जो इनके पास है। देश की विदेश नीति में बदलाव साफ साफ देखा जा सकता है- एक वक्त नटवर सिंह, जार्ज फर्नाडिस, मुलायम सिंह यादव तात्कालिक रक्षामंत्री से पूछा गया था कि क्या पाकिस्तान को नंबर- 1 दुश्मन के तौर पर देखा जाना चाहिए तो इन्होने चीन का जिक्र किया था। परन्तु जब हम व्यापार की बात करते हैं तो चीन से हमारा व्यापार बढ़ता ही गया। पिछले साल की ही तुलना में 30 बिलियन डॉलर की बढ़ौतरी हुई जबकि चीन के साथ हमारा संबंध बिलकुल असहज है। ऐसी कौन सी परिस्थिति है जो आजादी के बाद हमे ये बदलाव देखने को मिल रहा है। एस.जयशंकर ने ऐसे कूटनितीक बदलाव पर क्यों जोर दिया, शायद ये उनकी दूरदर्शिता हो सकती है कि भारत को विश्वपटल पर एक उच्च स्थान पर पहुँचाया जाए। इनको ये कूटनीतिक ज्ञान अपने पिता के.सुब्रह्मण्यम से पुश्तैनी जायदाद के रूप में भी प्राप्त हुआ है जो खुद एक IAS ऑफिसर रह चुके हैं और एक रणनीतिक विश्लेषक रह चुके हैं। उन्हें फादर ऑफ इंडियन स्ट्रेटेजिक थॉट्स भी कहा जाता है।
अब परिस्थितियों में बदलाव आया हैं अब हर हाल में भारत अपनी जरूरतों को प्राथमिकता देने लगा है जो किसी भी राष्ट्र के लिए सकारात्मक पहलू है। एक तरफ हम कहते आ रहे थे हम विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश हैं, दूसरी सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश, चौथी सबसे बड़ी मिलिट्री पॉवर है पर जब विदेशनीति की बात आती थी तब हम इतने पीछे क्यों रहते थे। यूरोप ने कभी हमारा साथ नहीं दिया, अमेरिका हमेशा हमे आँखे दिखाता रहा और बस हम बचाव करते रहते थे ये बदलाव पहले भी हो सकते थे पर हुए नहीं जिनका एक ही जवाब है विदेश नीति का सही ना होना। विश्व मंच पर आज आस्ट्रेलिया हमसे व्यापार बढ़ाना चाहता है। यूके हमारा साथ मांग रहा है यहाँ तक कि जो विश्व की महत्वपूर्ण संस्थाएं है IMF, WORLD BANK जो कभी हमें आँखें दिखाती थी आज हमसे निवेदन कर रही हैं।
आज हम कह सकते है कि स्थितियों में बदलाव हुआ है जो इससे पहले कभी नहीं हुआ या यह भी कह सकते हैं कि देश की विदेशनीति का स्वर्णिम काल चल रहा है जो भविष्य में दशकों तक याद किया जायेगा ‘विश्व मंच पर भारत अब अपने हित साधने में लग गया है जिसकी पूरी जिम्मेदारी इनके कन्धों पर दे दी गयी है जो सम्भव तो नहीं है पर असम्भव भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता सबसे प्रमुख बिन्दु है जो चीन के बिना सम्भव नहीं है, आर्थिक मोर्चे पे चीन को पछाड़ना हो वो अमेरिका के बिना सम्भव नहीं है या अपनी ऊर्जा और रक्षा जरुरतों को पूरा करना हो वो भी किफायती दामों पर और उच्च गुणवत्ता के साथ वो रूस के बिना सम्भव नहीं। विश्वमंच पर ये तीनों ऐसे त्रिभुज के समान है जो तीन अलग केन्द्र बिन्दु पर हैं और ये तीनों देश एक-दूसरे से असहज और असुरक्षित महसूस करते हैं। इन तीनों को एक केन्द्र बिन्दु पर आना और सामन्जस्य स्थापित करना बहुत ही मुश्किल है जो कोई भी देश नहीं करना चाहता जो कोशिश भी करता है उसको इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे पडोसी मुल्क से अच्छा उदाहण कोई हो नहीं सकता पर विश्वमंच पर भारत की बदलती विदेश नीति से उम्मीद की किरणें जगी हैं और कहीं-कहीं इसका सकरात्मक रूप भी देखने को मिला है जो बहुत ही गर्व की बात है पूरे देश के लिए।