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अनन्य जिजीविषा का प्रतीक हैं काशी विश्वनाथ

डॉ. आनंद वर्द्धन

विरासत विज्ञानी

kashi-vishvanath

कहते हैं काशी के राजा मनसाराम मिश्र जब मृत्युशय्या पर थे, अपने पुत्र व राजसिंहासन के उत्तराधिकारी बलवन्त सिंह को यह उपदेश दिया कि ‘वह काशी को अपने पिता के द्वारा सौंपी गई जमींदारी न समझें। अपितु वे काशी को सनातन धर्म की आत्मा मानकर इस मुक्तिदायी भूमि की अहर्निश सेवा करें’। प्रकारान्तर में ऐसा हुआ भी। पर एक प्रश्न हमेशा मन में उठता है कि रामनगर में दुर्गा मंदिर, विशाल तडाग एवं दुर्ग आदि का निर्माण करने वाले बलवन्त सिंह ने स्वयं ज्ञानवापी परिसर या तथाकथित आलमगीर मस्जिद पर हमला बोलकर ध्वस्त क्यों नहीं कर दिया या स्वयं उस स्थान पर काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण क्यों नहीं किया?

फिर काशी के राजा तो शिव के भक्त थे। ‘जपत शिव-शिव आठों याम मिश्र कुल पंडित मनसाराम’ जैसा आभाणक काशी के नारायण वंश के प्रथम राजा के विषय में प्रचलित रहा। यहाँ तक की काशी के राजा को शिव का अंशावतार माना जाता रहा है। यह सब होने के बाद भी आलमगीर मस्जिद में हस्तक्षेप न करने के कारण को प्रथमत: समझना आवश्यक होगा। वर्ष 1740 में काशी की राजपदता ग्रहण करने के बाद बलवन्त सिंह निरन्तर क्षेत्रीय युद्धों में व्यस्त थे।  विशेषकर बंगस पठान, रोहिल्ला, अवध के नवाब शुजाउद्दौला आदि के आक्रमण का खतरा काशी पर बना रहता था। आलमगीर मस्जिद के अन्तर्गत ज्ञानवापी पर अधिकार करने का सीधा मतलब था मुस्लिम धर्म को चुनौती देना। ऐसे में सारी मुस्लिम शक्तियाँ एकत्र होकर पुन: काशी का विनाश कर डालतीं, ऐसा अनुमानित करना अकारण नहीं था।

बलवन्त सिंह ने रानी भवानी जो नैटोर राज्य, बंगाल से थीं,  को बनारस में मंदिरों के निर्माण में सहयोग एवं संरक्षण दिया। कालान्तर में बलवन्त सिंह के उत्तराधिकारी चेत सिंह ने पिता की नीतियों का अनुसरण करते हुये अहिल्या बाई को आलमगीर मस्जिद से ठीक सटे हुये भू-भाग को शुजाउद्दौला अर्थात् अवध के नवाब से खरीदने का सुझाव दिया। इसका कारण था कि अवध के नवाब से भूमि खरीदने से मुस्लिम सत्ताओं से अन्तर्विरोध का प्रश्न समाप्त हो जाता तथा निर्विवादित भूमि पर आसानी से मंदिर का निर्माण संभव हो पाता। वस्तुत: वर्तमान काशी विश्वेश्वर मंदिर का निर्माण इसी कुटनीतिक सूत्र पर हुआ, जो मंदिर बना वह शिल्प की दृष्टि से साधारण कहा जायेगा। किन्तु महाराजा रणजीत सिंह द्वारा पर्याप्त सोना भेजे जाने से मंदिर की भव्यता में अपूर्व वृद्धि हुई। यह परिसर हिन्दू जनमानस पर अंकित ज्ञानवापी परिक्षेत्र की पूर्वकालिक भव्यता से अधिक प्रभावी सिद्ध न हो सका।

लोगों के स्मृतिपटल पर पूर्ववर्ती काशी विश्वेश्वर मंदिर की दिव्य अलंकृति बनी रही। विशेषकर ज्ञानवापी की ओर लिंगोन्मुख नंदी प्रतिमा और सहज ही प्राचीन ‘अर्चा विग्रह’ की ओर ध्यानाकर्षित करती रही है। इस ज्ञानवापी परिसर के प्रति अद्वितीय अनुरकि का कारण है वह अनन्य जिनीविषा, जो अमर्त्य है और धर्म भाव को जीवन्त बनाये रखने की अभिप्रेरक शक्ति है। इसका कारण है हिन्दू मानस की अद्वितीय संघर्ष गाथा। एक रोचक कथावृत जो हमें सहज ही भावुक बना डालता है।

प्रथमत: तो तुर्की आक्रमणों के काल में ही काशी विश्वेश्वर मंदिर भग्न किया गया। यह मंदिर गहड़वाल राजाओं के काल में निर्मित था। पुन: खिलजी काल में इस मंदिर परिसर पर आक्रमण कर ध्वस्त कर दिया गया। इसके साथ ही काशी में व्यापक धर्मान्तरण भी हुआ। दीर्घकाल तक यह मंदिर भग्नावशेष के रूप में विखण्डित पड़ा रहा।

ऐसा प्रतीत होता है कि शर्की,  सुल्तानों के समय पुन: काशी में कुछ गतिविधियाँ एवं निमार्णात्मक कार्य आरंभ हुये। परन्तु लोदी व अफगान काल में काशी को एक बार फिर से ध्वंस का सामना करना पड़ा। बाबर के समय तो मानो सम्पूर्ण उत्तर भारत मंदिर विहीन हो गया था। अकबर, बनारस की यात्रा पर आया तो दुर्भाग्यवश शैव और वैष्णव संप्रदायों की आपसी विरोध लीला का प्रत्यक्ष दर्शन कर प्रसन्न होता रहा अर्थात काशी स्थल पूजा की नगरी होकर स्वंय साम्प्रदायिक संघर्षों का शिकार बनी रही। यह वही काल था जब काशी की धरती पर तीन महापुरुषों ने काशी के विश्वेश्वर धाम के पुनर्निर्माण की बात सोची। ये थे महाकवि तुलसीदास, नारायण भट्ट एवं राय टोडरमल। तुलसीदास को तो सभी जानते हैं। निस्संदेह काशी विश्वनाथ के निर्माण में वे प्रेरणा के मुख्य स्रोत थे। तुलसी के संरक्षक थे राय टोडरमल भद्रवेणी अर्थात भदैनी के राजा। भद्रवेणी भूमि- अग्रहार थी। इस प्रकार राय टोडरमल भूमि-अग्रहार ब्राह्मण थे। तृतीय महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे नारायण भट्ट, एक महाराष्ट्रीय क्षितिपावन (चितपावन) ब्राह्मण। वस्तुत: तुलसी एवं नारायण भट्ट दोनों ही अप्रतिग्रही परम्परा के ब्राह्मण थे। तीनों का ही मत था कि काशी विश्वेश्वर का जीर्णोद्धार हो। अत: इस कार्य के लिए टोडरमल के पुत्र गिरधारी को नारायण भट्ट के साथ अकबर के दरबार में आगरा भेजा गया, बीरबल के पास। बीरबल स्वयं ब्राह्मण थे तथा नारायण भट्ट और गिरधारी के प्रस्ताव से प्रसन्न थे।

बीरबल के सहयोग से गिरधारी मंदिर निर्माण हेतु अकबर का स्वीकृति पत्रक प्राप्त करने में सफल रहे।  नारायण भट्ट एवं तुलसी दोनों को टोडर जैसे आश्रयदायी पर पूर्ण भरोसा था। तुलसी ने तो मात्र चार अग्रहार गाँवों के प्रधान टोडर की प्रशंसा की ‘चार गाँव के ठाकुरों (जमींदार) मन को बड़ो महीप।’ तुलसी की इस प्रशंसा का कारण था टोडर की मंदिर निर्माण हेतु कृतसंकल्पता। वैसे वाराणसी के लोकगीतों में अकबरयुगीन काशी विश्वेश्वर का वास्तविक निमार्ता टोडरमल के पुत्र गिरधारी को माना जाता हैं। कहते हैं ग्राम-ग्राम यात्रायें कर धनराशि एकत्र कर मंदिर का निर्माण हुआ। पर 1669 में औरंगजेब का आदेश पाकर मुगलिया फौज काशी विश्वेश्वर पर आक्रमण करने आई दशनामी नागाओं का दल मंदिर के रक्षार्थ युद्ध में उतर आया। युद्ध में अपूर्व बलिदान कर नागा दल ज्ञानवापी परिसर में सब कुछ शिवार्पित कर गया। आक्रान्ता मंदिर के शिखर, मण्डप, अधिष्ठानआदि पर प्रहार करते रहे। मंदिर के मुख्य पुरोहित ने अर्चा विग्रह लिंग को ज्ञानवापी में तिरोहित कर दिया। विध्वंस व विनाश के इस कृत्य का दर्द स्थानीय जनमानस कभी नहीं भूला। अहिल्याबाई निर्मित मंदिर में यों तो पूर्जाचन जारी रहा किन्तु भावदृष्टि ज्ञानवापी पर गड़ी रही।

हाँ वही ज्ञानवापी जो मुक्तिदायिनी है, लिंग पुराण में उल्लिखित है।

देवस्य दक्षिणं भागे वापी तिष्ठति शोभनम्।

तस्योदकम पित्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥’

आज जब लिंग के पनुप्रकटन का प्रश्न हम सब के सामने है, काशी विश्वेश्वर के ऐतिहासिक संघर्ष की संस्मृतिका उभर आना भी स्वभाविक है।