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काशी के मुक्ति-नायक “द्विजराज महाराजा बलवन्त सिंह”

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डॉ.आनंद वर्द्धन

विरासत विज्ञानी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब काशी-विश्वनाथ के जीर्णोद्धार एवं प्राकार के विस्तारीकरण के बाद अपना संबोधन दे रहे थे, उसमें कई इतिहास नायकों का उल्लेख किया गया। निश्चय ही अहल्या बाई का उल्लेख तो महत्वपूर्ण था ही  कई और नायकों का नाम भी आया। यथा सुहलदेव एवं छत्रपति शिवाजी। संभवत: साम्प्रतिक राजनीति में ये दोनों नामों की अपनी प्रासंगिकता रही होगी। किंतु यह विमर्श एक प्रश्न-चिह्न भी छोड़ गया। क्या हमारे नेताओं को रामनगर का विराट् प्रासाद कभी नहीं दिखता ? या घाटों पर चेतसिंह का दुर्ग नहीं दिखता ? कभी हमारे राजनीति के श्लाका-

पुरूषों को यह नहीं समझ आया कि काशी के वैभवशाली विस्तार, प्रासाद निर्माण एवं समस्त सांस्कृतिक पुनर्जीवन के पार्श्व में कौन सी शक्ति कार्य कर रही थी ? आज हमें अपने विरासत- संरक्षण – धर्म और उसकी ऐतिहासिकता को समझना होगा। काशी तो अवध के अधीन थी। होली भी मुगलों का प्रतिनिधि बनकर ‘मीर’ खेलता था। हास्यास्पद नहीं क्या मुगल प्रतिनिधि काशी का नायक बन गया था ? और जनता ‘रसिया मीर’ की प्रशस्ति गा रही थी। तथाकथित हिन्दू चेतना के ठेकेदारों को काशी की मुक्तिगाथा का परिज्ञान नहीं या सुनियोजित रूप से उसे विस्मृत कर देने का षड्यंत्र है ?  यह भूल नहीं अपितु षड्यंत्र है। मुझे तो ऐसा ही लगता है वर्षों पूर्व ‘काशी का इतिहास’ मोतीचंद्र नामक एक इतिहासकार ने लिखा तो उसका दुराग्रह पूरी पुस्तक में छाया रहा। खैर! विद्वत-समाज को काशी-मुक्ति-संघर्ष पर स्वतंत्र चिंतन तो करना पड़ेगा। साथ ही काशी के मुक्ति – नायक राजा बलवन सिंह के शौर्य एवं कूटनीति का विश्लेषण भी करना होगा। हम यदि ध्यान दें तो सहज स्पष्ट होता है कि त्रिस्थल मुक्ति अर्थात प्रयाग, काशी एवं गया की मुगलों से स्वतंत्रता का प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। नारायण भट्ट संभवत: इस भावना के प्रथम उद्भावक थे। स्वयं तुलसीदास एवं नारायण भट्ट दोनों के संरक्षक-मित्र पंडितराय टोडर कम से कम काशी की मुक्ति तो अवश्य चाहते थे। टोडर के पुत्र गिरधारी के अहर्निश प्रयत्न से काशी-विश्वनाथ का पुननिर्माण भी हुआ था। पर पुन: काशी ध्वस्त हुई। नागाओं की अपूर्व वीरता भी इस विनाश लीला को रोक नहीं पाई अर्थात मुक्त काशी की अवधारणा कुंठित ही रही। पं बलदेव उपाध्याय वैसे मर्मज्ञ शास्त्रविद् ने ‘काशी की पाण्डित्य परंपरा’ नामक ग्रंथ में यह उद्धृत किया है कि काशीराज बलवन्त सिंह का जन्म गौतम गोत्री कृष्ण मिश्र नामक तपस्वी भूमि-अग्रहार ब्राह्मण कुल में हुआ था। ‘बलवन्तनामा’ बलवन्त सिंह की आत्मकथा है। इसके लेखक खैरुद्दीन ने भी बलवत सिंह की कुल-कथा का वर्णन किया है। इसके अनुसार भी राजा बलवन्त सिंह गंगापुर के अयाचक ब्राह्मण वंश के थे। इनके पिता मनसाराम मिश्र ने स्वतंत्र काशीराज्य की स्थापना की थी किन्तु राज्याधिकार का आदेशपत्रक अपने पुत्र के नाम से मुगल बादशाह द्वारा प्राप्त किया था। ‘द गोल्डन बुक ऑफ इंडिया’ के लेखक आर. लेथब्रेज ने  भी बलवन्त सिंह के वंश को अयाचक एवं तपस्वी ब्राह्मण कुल बताया है जिसे ‘कोट-असलहा गंगापुर’ में सामन्ताधिपति  होने का गौरव प्राप्त था। इस संदर्भ में अमेरिकी इतिहासकार क्रिस्टोफर बेली का अध्ययन सबसे प्रभावी है। उनका अभिमत है कि काशी में मनसाराम मिश्र एवं बलवन्त सिंह शासन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष था नौपट्टी के बैंकर समूह द्वारा दी गई आर्थिक सहायता। यह सहायता संभवत: काशी की मुक्ति हेतु थी। मनसाराम ने अपनी शूरता, वीरता एवं युक्तिप्रियता से अराजक तत्वों का दमन किया। उनके इस कार्य को आगे बढ़ाया उनके पुत्र बलवन्त सिंह ने। बलवन्त सिंह का आरंभिक जीवन युद्ध-संचालन की अद्वितीय क्षमता की प्रभावी गाथा है। जब बलवन्त सिंह राजा हुये, काशी को अवध के नवाब के साथ-साथ बंगस पठानों एवं रोहिल्लाओं से भी खतरा था। वस्तुत: व्यापारिक एवं सामरिक दृष्टि से काशी कई महत्वपूर्ण राज्यों के मध्य था। मुगल एवं मुर्शिदाबाद नवाब के अलावा मराठा हस्ताक्षेप का खतरा भी काशी पर मंडराता रहता था। ऐसे में काशी को अविमुक्त बनाये रखना एक कठीन कार्य था। बलवन्त सिंह ने अपूर्व कुटनीतिज्ञता का पालन करते हुए काशी में स्वतंत्र टकसाल का निर्माण किया जो उनकी स्वतंत्र-प्रियता का प्रमाण है। इसके साथ ही बलवन्त सिंह ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला को कर देना भी बंद कर दिया। इस कारण काशीराज पर आक्रमण का खतरा बना रहता था। बलवन्त सिंह ने इस समस्या से बचने हेतु किलेबन्दी की प्रभावशाली योजना का निर्माण किया। सर्वप्रथम उन्होंने गंगापुर से हटकर रामनगर दुर्ग का निर्माण गंगातट पर किया जो नगर के मुख्य भाग के आगे विपरीत दिशा में बना जलदुर्ग की भांति प्रतीत होता है। बलवन्त सिंह का यह दुर्ग सम्पूर्ण मध्यगंगा घाटी में दिल्ली, आगरा आदि के दुर्गों के बाद सर्वोत्तम है। इसके साथ ही बलवन्त सिंह ने जौनपुर के रास्ते पिंडरा एवं मड़ियाहु  के दुर्ग पर तोपखाना स्थापित कर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। पुन: प्रयाग के मार्ग पर स्थित भदोही के किले पर सशस्त्र दुर्गबन्दी कर काशी के लिए सुरक्षा घेरा खड़ा किया। दुर्गों पर अधिकार एवं जीर्णोद्धार की उनकी योजना ही स्वतंत्र काशी के अस्तित्व का कारण बना। बलवन्त सिंह ने सिरिंजा एवं चौसा के ऐतिहासिक दुर्गों पर अधिकार कर गंगा के किनारे सम्पूर्ण बक्सर क्षेत्र के सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों पर अधिकार कर पटना एवं बंगाल क्षेत्र से संभावित आक्रमणों से काशी को सुरक्षित किया। बलवन्त सिंह की सबसे महत्त्वशाली दुर्गबन्दी वर्तमान के सोनभद्र एवं मिर्ज़ापुर क्षेत्र में थी। उदाहरणस्वरूप लतीफगढ़, पचिहट्टा, अघोरी एवं विजयगढ़, ये चारों दुर्गों को राजा बलवन्त  सिंह ने अपने न केवल अधिकार में लिया बल्कि  इन्हें महत्वपूर्ण सैनिक ठिकाना भी बनाया। इनका सौन्दर्यीकरण भी किया। बलवन्त सिंह के सेनाध्यक्ष बाबू रामरूच सिंह की इसमें सशक्त भूमिका थी। ज्ञात हो, विजयगढ़  के ज्यादातर भवन एवं वहाँ का तोपखाना बलवन्त सिंह के समय का निर्मित है। इस प्रकार सारा दुर्गम पर्वतीय एवं वन्य क्षेत्र पर सैनिक तैनाती कर बलवन्त सिंह ने काशी की चतुर्दिक सुरक्षा को सुनिश्चित किया | राजा बलवन्त एक ऐसे नायक थे जिन्होंने अपने रणकौशल एवं वीरता का परिचय देते हुये इलाहाबाद के सुबेदार मोहम्मद कुली खाँ को भदोही और गोपीगंज के आगे पराजित कर काशी को अजेय बना दिया। वस्तुत: सल्तनत काल से मुगल युग के मध्य यह पहला अवसर था जब एक सनातनधर्मी योद्धा ने मुगल सेना को मध्यगंगाघाटी में आमने-सामने के युद्ध में पराभूत किया। इतना ही नहीं पिंडरा के युद्ध में शुजाउद्दौला के सैनिकों एवं नागाओं को समझौता हेतु विवश किया। इसी प्रकार बलवन्त सिंह ने सम्पूर्ण कन्तित अर्थात मिर्ज़ापुर एवं सरकार-ए-इलाहाबाद का बड़ा भाग विजित कर स्वतंत्र हिन्दु-राज की प्रतिष्ठापना की। सरकार-चुनार, सरकार-गाजीपुर, सरकार-टाउनपुर एवं सरकार-इलाहाबाद के साथ-साथ बलिया, बक्सर, जौनपुर आदि नगरों तक काशी राज्य का विस्तार एक आश्चर्यजनक घटना थी। जिसका कारण द्विजराज नाम से विख्यात बलवंत सिंह की रणनीति कुशलता थी। वस्तुत: राजा बलवन्त सिंह छयानबे परगनों पर शासन कर रहे थे। उनका राज्य मुगलों के चार-सूबों तक विस्तारित था। ये सूबे थे  बनारस, इलाहाबाद, अवध एवं बिहार। काशीराज की सेना अत्यंत प्रभावशाली तोपखाना का वर्णन तो स्वयं वॉरेन हेस्टिंग्स ने किया है। साथ ही मराठा दस्तावेजों से भी स्पष्ट है कि बलवन्त सिंह के पास सशक्त तोपखाना  एवं घुड़सवार दस्ता था। मराठा नाना फड़नवीस काशी मुक्ति का श्रेय बनारस राजा को देते हैं। स्वयं पेशवा बाजीराव की इच्छा काशी को मुक्त करने की थी पर इसका वास्तविक श्रेय तो बलवन्त सिंह को प्राप्त है। इतिहासकार क्रिस्टोफर बेली के अनुसार काशी की समृद्धि में बलवन्त सिंह की सर्वोत्तम भूमिका थी। बलिया का ददरी मेला, बक्सर का ब्रहम्पुर मेला, मिर्ज़ापुर का घाट बाजार एवं गोपीगंज का हाट बाजार बलवन्त सिंह की आर्थिक कार्ययोजना के परिणामत: विकसित हुये थे। द्विजराज बलवन्त सिंह काशी को सनातन धर्म की आत्मा मानते थे। देश के विविध भागों के राजाओं ने यदि काशी में स्थान पाया या मंदिर बनवाया तो इसमें काशीराजा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। बंगाल की रानी भवानी के तो राजा बलवन्त संरक्षक ही थे। स्वयं बलवन्त सिंह ने काशी के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण का दुर्लभ कार्य किया। जिस काशी में मंदिर भग्न पड़े थे, वहीं घंट ध्वनि, मंत्र ध्वनि एवं शंख ध्वनि राजा बलवन्त के प्रभाव से पुन: गुंजित हुये। रामनगर में शिवमंदिर एवं दुर्गामंदिर का निर्माण भी उनकी कला-साधना के उदाहरण हैं। इसी शिवमंदिर के एक अभिलेख में काशी के नायक  द्विजराज बलवन्त की कीर्तिगाथा अंकित हैं।

वीर: श्री बरिबण्ड सिंह
नृपतिर्वर्वति सर्वोपरि।
यश्चतुर्दिक्षु काशीत:
सौराज्यं कुरुतेतराम्।।
” हम काशी का सर्वतोमुखी विकास करें किन्तु इस नगरी के मुक्ति-नायक को न भूलें। “