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ज्ञानार्जन व उसे कंठस्थ करना ही नहीं उसकी पुनरावृत्ति भी महत्त्वपूर्ण होती है

सीताराम गुप्ता

साहित्य तथा भाषा विषयक, व्यंग्य, कथा-साहित्य, निबंध व कविताओं आदि पर लेखन एवं हिन्दी के अतिरिक्त रूसी, उर्दू, फारसी व अरबी भाषाओं के विशेषज्ञ

विचारों के आदान-प्रदान अथवा भाषा के प्रमुखतः दो रूप मिलते हैं – मौखिक व लिखित। एक समय था जब भाषा का लिखित रूप था ही नहीं अतः उसके प्रयोग का प्रश्न ही नहीं उठता था लेकिन आज भाषा के मौखिक व लिखित दोनों ही रूपों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज सभी महत्त्वपूर्ण बातों को लिखित रूप में अथवा दस्तावेज़ों की सूरत में रखना अनिवार्य हो गया है। ज्ञान-विज्ञान संबंधी जानकारी हो अथवा साहित्य सभी लिखित रूप में उपलब्ध हैं। आजकल तो अधिकांश चीज़ें लिखित रूप में ही नहीं डिजिटल रूप में भी उपलब्ध हैं। वर्तमान में इसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन लिखित व डिजिटल रूप के बावजूद भाषा के मौखिक रूप की उपेक्षा संभव नहीं। रोजमर्रा के जीवन में तो हम पूरी तरह से भाषा के मौखिक रूप पर ही निर्भर रहते हैं। संप्रेषण के लिए दैनिक जीवन के अतिरिक्त अन्यत्र भी आवश्यकतानुसार मौखिक अभिव्यक्ति का उपयोग अनिवार्य है अतः किसी भी सूरत में इसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। वेदों को पहले लिखा नहीं जाता था अपितु गुरु अपने शिष्यों को सुनाकर ही इन्हें याद करवा देते थे। ये परंपरा अनेक वर्षों तक चलती रही। सुनकर याद करने और बाद में दूसरों को याद करवाने की परंपरा के कारण ही वेदों को श्रुति कहा गया है। बहुत समय तक ज्ञान का प्रचार-प्रसार इसी श्रुत अथवा वाचिक परंपरा द्वारा होता रहा। लोग किसी भी पुस्तक को याद कर लेते थे और दूसरों को याद करवा देते थे। बाद में वे और लोगों को याद करवा देते थे। इसी प्रकार से ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संप्रेषित होता रहा। जिस श्रुत अथवा वाचिक परंपरा द्वारा ज्ञान का प्रचार-प्रसार होता रहा वो आज तक किसी न किसी रूप में विद्यमान अथवा प्रचलित है। आज भी अनेक व्यक्ति मिल जाएँगे जिन्हें बड़े-बड़े ग्रंथ कंठस्थ हैं। पारंपरिक शिक्षा पद्धति अथवा गुरुकुलों में आज भी इस पर विशेष रूप से बल दिया जाता है। आधुनिकता की चकाचौंध में इसे पुरातन पद्धति कहकर इसकी नितांत उपेक्षा नहीं की जा सकती।

मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय की सायंकालीन कक्षाओं की एक घटना याद आ रही है। डॉ0 रमानाथ त्रिपाठी जी ने जैसे ही कक्षा में प्रवेश किया बिजली चली गई। उस समय मोबाइल वगैरा तो होते नहीं थे अतः चारों ओर गहन अंधकार व्याप्त हो गया। उस गहन अंधकार में ही त्रिपाठी जी ने पूछा, ‘‘ पिछली कक्षा में कहाँ तक किया था?’’ पिछली कक्षा में कहाँ तक हो गया था ये बतलाने पर उन्होंने बिना रोशनी व बिना पुस्तक के आगे पढ़ाना प्रारंभ कर दिया। कारण स्पष्ट है और वो कारण है कि उन्हें सब कुछ कंठस्थ था। आज ऐसे अध्यापक अथवा प्राध्यापक कम ही मिलते हैं जिन्हें बहुत कुछ कंठस्थ हो। एक समय था जब ज्ञान-विज्ञान अथवा अन्य उपयोगी जानकारी व साहित्य को कंठस्थ करने पर बल दिया जाता था। किसी चीज को कंठस्थ करने अथवा लंबे समय तक याद रखने कि लिए उसे बार-बार पढ़ना अथवा रटना तक पड़ता है। आजकल किसी चीज को कंठस्थ करने या रटने की बजाय उसे समझना अधिक उपयोगी माना जाता है लेकिन इससे इस पारंपरिक पद्धति का महत्त्व एकदम कम नहीं हो जाता। जो चीज़ हमें कंठस्थ हो जाती है उसे न केवल याद रखना सरल हो जाता है अपितु उसे अच्छी प्रकार से समझना भी संभव हो जाता है।

यदि याद करने अथवा कंठस्थ करने का महत्त्व नहीं होता तो लोग अपने बच्चों को क्यों कविताएँ वग़ैरा कंठस्थ करवाते और उनसे सुन-सुनकर प्रसन्न होते? वास्तविकता ये है कि कई क्षेत्रों में आज भी इसका उतना ही महत्त्व है जितना पहले था। आज ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के अनेक साधन उपलब्ध हैं। छपी पुस्तकों के साथ-साथ इंटरनेट ने इस क्षेत्र में क्रांति ला दी है लेकिन याद करने का अब भी कोई विकल्प नहीं है। यदि किसी अवसर पर कोई उपयुक्त शेर अथवा किसी कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनानी हों तो हम उन्हें खोजने के लिए किसी पुस्तकालय अथवा इंटरनेट की शरण मंें नहीं जा सकते। ज्ञान अथवा जानकारी का उचित प्रभाव भी तभी अधिक पड़ता है जब वो हमें कंठस्थ हो। मैंने अनुभव किया है कि जो चीजें मुझे अच्छी तरह से याद हैं उन्हें अपेक्षाकृत सरलतापूर्वक न केवल दूसरों को समझा सकता हूँ अपितु याद भी करवा सकता हूँ। ये कार्य कहीं भी सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। किसी चीज को कंठस्थ करना वैसे भी लाभदायक होता है। किसी चीज को कंठस्थ करने अथवा कंठस्थ चीज को दूसरों को सुनाते समय हमारी एकाग्रता का विकास होता है।
जो चीज हमें याद है उसे कहीं भी किसी को भी बतलाया जा सकता है क्योंकि ऐसे में उसके लिए विशेष तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती। चाणक्य ने कहा है:

पुस्तकेषु  च  या  विद्या  परहस्तेषु  यद्  धनम्,

उत्पन्नेषु च कार्येषु  न सा  विद्या  न तद् धनम्।

अर्थात् पुस्तकों में रखी विद्या और दूसरे के हाथ में गया धन ये दोनों ही समय पर काम नहीं आ पाते अतः न वह विद्या है और न वह धन है। जिस प्रकार से हम अपनी गाँठ में अथवा पास होने पर ही धन का आवश्यकतानुसार सही उपयोग कर सकते हैं उसी प्रकार से कंठस्थ विद्या का भी अत्यधिक महत्त्व है। इसका ये अर्थ कदपि नहीं कि आधुनिक संसाधनों का कोई महत्त्व नहीं है लेकिन इन दोनों में सही संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है। कई भाषाओं को सीखने के लिए मैंने स्वयं आधुनिक श्रव्य-दृष्य सामग्री का भरपूर इस्तेमाल किया है लेकिन वस्तविकता ये है कि इन सब चीजों का इस्तेमाल भी वास्तव में चीजों को याद रखने के लिए ही किया गया था। शाब्दिक ज्ञान अथवा अन्य चीजों को लंबे समय तक याद रखने और दूसरों को अच्छी तरह से सिखाने-समझाने के लिए उन्हें याद कर लेना एक अच्छी पद्धति है।

     हम प्रायः साधन को साध्य मान लेने की भूल कर बैठते हैं। भाषा भी अभिव्यक्ति का साधन है साध्य नहीं। हमारे जीवन में अधिगम अथवा सीखने का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान होता है लेकिन इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण होता है कि हम क्या सीखते हैं अथवा हमने जो सीखा है जीवन में उसकी क्या उपयोगिता है? जिस सीखने की कोई उपयोगिता न हो उसे सीखना व्यर्थ है और जो सीखा हुआ समय पर काम न आए ऐसा सीखना भी कोई महत्त्व नहीं रखता। क्या सीखें और सीखना कैसे उपयोगी बने इस दोनों बातों पर ही विचार करना अति महत्त्वपूर्ण है। रामचरितमानस में अरण्यकाण्ड में एक स्थान पर गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं – सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ। जिन शास्त्रों का हमने भली-भांति चिंतन-मनन किया है उन्हें बार-बार देखते रहना चाहिए व अच्छी प्रकार से सेवा करने पर भी राजा को वश में नहीं समझना चाहिए। किसी भी स्थिति पर हमारा पूर्ण अधिकार तभी संभव है जब उससे हमारा अद्वैत संबंध स्थापित हो जाए। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे संबंध हों अथवा ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र उनसे हमारा निरंतर संबंध बना रहना चाहिए।

     जो शास्त्र अथवा अच्छी बातें हमें याद हो गई हैं उनकी भी पुनरावृत्ति होती रहनी चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसा क्यों कहा? जो शास्त्र हम अच्छी प्रकार से पढ़ चुके हैं उनको बार-बार पढ़ने अथवा दोहराने की क्या आवश्यकता है? इस बात का सबसे सरल उत्तर तो यही होगा कि यदि हम पूर्व में पठित किसी भी सामग्री अथवा शास्त्रों को नहीं दोहराएँगे तो उनके विस्मृत हो जाने की प्रबल संभावना बनी रहती है। यदि हम किसी प्रकार का ज्ञान अथवा विद्या प्राप्त करते हैं तो उसका उपयोग तभी संभव है जब वो हमें याद भी रहे। किसी उपयोगी से उपयोगी विद्या को प्राप्त करने के बाद अभ्यास अथवा पुनरावृत्ति के अभाव में उसे भूल जाना समय व संसाधनों का दुरुपयोग ही कहा जाएगा। इसका ये अर्थ कदपि नहीं कि आधुनिक संसाधनों का कोई महत्त्व नहीं है लेकिन इन दोनों में सही संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है।

     कई भाषाओं को सीखने के लिए मैंने स्वयं आधुनिक श्रव्य-दृष्य सामग्री का भरपूर इस्तेमाल किया है लेकिन वस्तविकता ये है कि इन सब चीजों का इस्तेमाल भी वास्तव में चीजों को याद रखने के लिए ही किया जाता है। शाब्दिक ज्ञान अथवा अन्य चीजों को लंबे समय तक याद रखने और दूसरों को अच्छी तरह से सिखाने-समझाने के लिए उन्हें याद कर लेना एक अच्छा तरीका है। जब चीजें याद हो जाती हैं और उन्हें दोहराया भी जाता है तो वे कभी नहीं भूलतीं। हम बचपन में जो कविताएँ इत्यादि याद करते हैं वे हमें जीवनभर याद रहती हैं। इसका प्रमुख कारण यही है कि हमने न केवल उन्हें याद किया होता है अपितु हम उन्हें दोहराते भी रहते हैं। जहाँ पुनरावृत्ति बंद हुई चीजें मस्तिष्क से भी ओझल होने लगती हैं। पुनरावृत्ति के अभाव में अथवा व्यवहार में न आने के कारण मेरी सीखी हुई कई भाषाएँ विस्मृति के कगार पर पहुँच चुकी हैं लेकिन उन भाषाओं की कविताएँ, गीत व कुछ अन्य चीज़ें आज भी काफी हद तक याद है।

     कई व्यक्ति जीवन में पर्याप्त स्वाध्याय करते हैं तो क्या जितना भी स्वाध्याय किया है, पढा-लिखा अथवा चिंतन किया है उसे पूरा का पूरा याद रखना अपेक्षित है? यदि हम बहुत अधिक बातों को याद रखेंगे तो क्या इससे मानसिक उद्विग्नता नहीं बढ़ जाएगी? इससे अन्य समस्याएँ उत्पन्न नहीं हो जाएँगी? यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना अनिवार्य है और वो ये कि हमारी स्मृति की क्षमता की कोई सीमा नहीं होती। हम सबमें सीखने व याद रखने की अपरिमित क्षमता होती है। अधिक बातें सीखने अथवा याद रखने से हमारे मस्तिष्क पर कोई बुरा प्रभाव पड़ने जैसी कोई स्थिति नहीं होती। लेकिन क्या अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण अथवा अव्यावहारिक बातों को भूल जाना उचित नहीं होगा? हम जितना पढ़ते हैं अथवा जितना चिंतन करते हैं वो सभी अत्यंत उपयोगी हो ये संभव ही नहीं। कई बार तो हम जो जानते हैं उसी को सर्वोत्तम अथवा उपयोगी सिद्ध करने का प्रयास करते रहते हैं जिसका कोई लाभ अथवा औचित्य दिखलाई नहीं पड़ता। वैसे भी हर व्यक्ति के लिए हर बात लाभदायक अथवा उपयोगी नहीं हो सकती। हमें अच्छी बातें याद रखनी चाहिएँ लेकिन मात्र इसलिए शास्त्रों को हमेशा याद रखने का भी विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर नहीं होता है।

     लेकिन गोस्वामी जी कोई बात अकारण तो नहीं कह सकते। उनकी इस बात से एक बात और स्पष्ट हो जाती है और वो ये कि हम केवल उपयोगी व सार्थक चिंतन ही करें और उसे दोहराते रहें ताकि वो स्थायित्व प्राप्त कर ले। वो हमारे व्यवहार में आकर हमारे जीवन का अंग बन जाए। सुचिंतित शास्त्र से भी यही भावना व्यक्त होती है कि जिसे हमने भली-भाँति गहन चिंतन-मनन के पश्चात चुना है वो ज्ञान अथवा अनुभव बहुत महत्त्वपूर्ण है और उसके दोहराते रहने से भी यही तात्पर्य निकलता है हमने बहुमूल्य समय और संसाधनों के द्वारा अपने जीवन में जो महत्त्वपूर्ण व उपयोगी चिंतन किया है अथवा जो कुशलताएँ प्राप्त की हैं वे व्यर्थ न जाएँ। उनसे हम ही नहीं पूरा समाज व राष्ट्र लाभांवित हो। हमारा चिंतन हमारे जीवन को सही दिशा प्रदान करता रहे। वो किसी भी स्थिति में हमसे छूट न जाए। हमने परिश्रम से जो भी अर्जित किया है वो व्यर्थ न चला जाए। हमारे जीवनभर का परिश्रम उचित समय पर हमारे काम आए।

     कुछ व्यक्ति बहुत कुछ पढ़ते-लिखते हैं। वे सदैव जीवनोपयोगी व प्रेरक साहित्य का पठन-पाठन व चिंतन ही करते रहते हैं लेकिन अपने स्वाध्याय अथवा चिंतन को अपने जीवन में उतार नहीं पाते। दुनिया में अच्छी-अच्छी बातों की भी कोई सीमा नहीं। निरंतर नई-नई बातें सीखना अच्छी बात है लेकिन पूर्व में सीखी हुई अच्छी बातों को भूल जाना भी उचित नहीं। इसके लिए पूर्व में सीखी हुई अच्छी बातों को बार-बार दोहराते रहना अनिवार्य प्रतीत होता है। उन्हें बार-बार दोहराने का ये प्रभाव होगा कि उन बातों के लिए हमारे मन की कंडीशनिंग हो जाएगी और हम उन बातों को अपने व्यवहार में लाने के लिए स्वाभाविक रूप से बाध्य हो जाएँगे। इस प्रकार की सकारात्मक कंडीशनिंग हमारे सही व संतुलित विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण व उपयोगी होने के कारण हमारे लिए अनिवार्य भी है। यदि हम अपनी अर्जित योग्यताओं को अक्षुण्ण रख पाते हैं तो उनके सार्थक उपयोग के अवसर भी अवश्य ही उपलब्ध हो जाएँगे।

     इसमें संदेह नहीं कि ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो जो भी अच्छा पढ़ते-लिखते अथवा चिंतन करते हैं उसे दोहराते रहते हैं और इससे वे बातें स्वाभाविक रूप से उनके आचरण में आ जाती हैं लेकिन जिन व्यक्तियों को अच्छी बातों की जानकारी ही नहीं होती या जिन्हें अच्छी बातें कंठस्थ नहीं होतीं वे कैसे अपने आचरण अथवा व्यवहार को उत्तम बनाएँ? ऐसे व्यक्तियों को भी अच्छी बातों को अपने सामने रखने का प्रयास करना चाहिए जिससे वे उनके जीवन को सकारात्मकता प्रदान कर उनके व्यक्तित्व को प्रभावशाली व उनके आचरण को सात्त्विक बना सकें और इसके लिए शास्त्रों की अच्छी बातों को बार-बार पढ़ने अथवा उन्हें दोहराते रहने के अतिरिक्त अन्य कोई प्रभावशाली उपचार दिखलाई नहीं पड़ता। हम प्रायः देखते हैं कि एक निश्चित अंतराल पर सामूहिक रूप से धर्मग्रंथों के अखण्ड पाठ होते रहते हैं। उद्देश्य यही होता है कि बार-बार सुनने से उनकी अच्छी बातें हमें याद होकर हमारे आचरण अथवा व्यवहार का अंग बन जाएँ। सेवाकाल के दौरान कर्मचारियों के लिए सेमिनार अथवा अन्य प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने का भी यही प्रमुख उद्देश्य होता है।

     कई व्यक्ति बातचीत अथवा लेखन में कविता, शाइरी अथवा लोकोक्तियों का भरपूर इस्तेमाल करते हैं। ये सब अभ्यास के कारण होता है। शेरो-शाइरी हो अथवा लोकोक्तियाँ व मुहावरे हम जब तक उनका प्रयोग करते रहते हैं वे हमें याद रहते हैं। हम जैसे ही उनका अभ्यास अथवा प्रयोग करना छोड़ देते हैं अथवा कम कर देते हैं वे विस्मृति के गर्त में चले जाते हैं। एक अच्छा खिलाड़ी चाहे उसे किसी स्पर्धा में भाग लेना हो अथवा नहीं कभी अभ्यास करना नहीं छोड़ता। वो निरंतर अभ्यास करता रहता है। ये निरंतर अभ्यास ही उसकी जीत अथवा सफलता का कारण बनता है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि उसके निरंतर अभ्यास करने के मूल में भी एक विचार होता है और वो विचार है मुझे जीतना है अथवा सफलता प्राप्त करनी है। वो जिस दिन इस विचार को त्याग देगा अभ्यास करना बंद हो जाएगा। साथ ही वह मात्र एक खेल विशेष का ही अभ्यास नहीं करता अपितु स्वयं को स्वस्थ व सक्रिय बनाए रखने के लिए भी अपेक्षित व्यायामादि करता रहता है। इसी प्रकार से जो बातें हमारे लिए उपयोगी अथवा प्रेरक होती हैं उन्हें याद रखना चाहिए और इसका एकमात्र उपाय है उनकी पुनरावृत्ति करते रहना।

     मान लीजिए हम मिष्टान्न खाना चाहते हैं लेकिन यदि मिष्टान्न हमारे समक्ष नहीं रखे होंगे तो हम मिष्टान्न नहीं खा सकते। जिस प्रकार से मिष्टान्न अथवा अन्य अपेक्षित उपयोगी भोजन का उपभोग करने के लिए वो हमारे समक्ष होना अनिवार्य है उसी प्रकार से जीवन की गुणवत्ता को सुधारने अथवा उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हमने जो भी अच्छा सीखा है अथवा जो स्वाध्याय अथवा चिंतन किया है वो हमारे सम्मुख रहना ही चाहिए। यदि ऐसा होगा तो देर-सवेर उसका प्रभाव भी अवश्य ही हम पर पड़ेगा। साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसका उपयोग भी संभव हो सकेगा। यदि समय पर किसी चीज का उपयोग न हो पाए तो उसका होना या न होना बराबर है। यदि हमें मिठाइयाँ खानी हैं तो मिठाइयाँ लाकर रखनी होंगी और यह तभी संभव है जब हम याद रखें कि हमें मिठाइयाँ लानी हैं अथवा बनानी हैं। इसके लिए हमें मिठाई शब्द याद रखना होगा और तब याद रखना होगा जब तक उसकी छवि हमारे मन पर अंकित न हो जाए।

     घर में हम अनेक प्रकार की वस्तुओं अथवा उपकरणों का प्रयोग करते हैं। वे सालों तक हमारे काम आते रहते हैं लेकिन यदि किसी कारण से किसी उपकरण का प्रयोग लंबे समय तक न किया जाए तो बिना प्रयोग किए ही उसके खराब हो जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। कई बार हम भूल तक जाते हैं कि ऐसा कोई उपकरण हमारे घर में रखा भी है। कुछ ऐसा ही प्राप्त अथवा संचित ज्ञान अथवा कुशलताओं के साथ होता है अतः मात्र सीखना अथवा याद रखना पर्याप्त नहीं होता उसे व्यवहार में लाना भी अनिवार्य है। एक बार जो चीज हमारे व्यवहार में आ जाती है उसे याद रखना अत्यंत सरल हो जाता है और याद रखने के लिए किसी बात को दोहराते रहने से अधिक अच्छी बात कोई अन्य हो ही नहीं सकती। कुछ लोग अंग्रेजी भाषा बड़ी आसानी से बोलते हैं लेकिन कुछ लोग उनसे अच्छी अंग्रेजी जानते हुए भी अंग्रेजी बिलकुल नहीं बोल पाते हैं। कारण स्पष्ट है। हम जो सीखें उसे याद रखें व व्यवहार में लाएँ। हम प्रायः पुनरावृत्ति के अभाव में अनेक उपयोगी व महत्त्वपूर्ण चीज़ों को विस्मृति के गर्त में डाल देते हैं और उनके लाभों से वंचित रह जाते हैं।

     हम सब अपने कमाए हुए धन व दूसरी कीमती वस्तुओं की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हैं ताकि हमारा धन व वस्तुएँ समय पर हमारे काम आ जाएँ। जिस प्रकार से कमाए हुए धन व अन्य कीमती वस्तुओं की सुरक्षा व सदुपयोग अनिवार्य है संचित ज्ञान अथवा कुशलतओं की सुरक्षा व सदुपयोग भी अनिवार्य है। वैसे भी संचित ज्ञान अथवा कुशलतओं से बड़ा धन और क्या हो सकता है? संचित ज्ञान अथवा कुशलतओं से ही हमारे व्यक्तित्व का विकास होता है और इन्हीं से प्रत्यक्ष अथवा परोक्षा रूप से धनार्जन भी संभव होता है। धनार्जन हो, व्यक्तित्व विकास हो अथवा चरित्र निर्माण इन सब बातों के मूल में एक नन्हे बीज की तरह कुछ सकारात्मक विचार ही होते हैं जिनसे हमारा जीवन वट वृक्ष की तरह विस्तार पाता है। जीवन रूपी वृक्ष को अपेक्षित विस्तार देने के लिए विचार रूपी बीजों की पूर्ण सुरक्षा व उनको बोना अनिवार्य है और इसके लिए भी अपेक्षित है कि हम न केवल विचार-बीजों को निरंतर दोहराते रहें अपितु उनको व्यवहार में भी लाते रहें।

     गोस्वामी तुलसीदास शास्त्रों की बात कर रहे हैं। यदि हम आधुनिक संदर्भों में शास्त्रों की बात करें तो हर व्यावहारिक व व्यावसायिक योग्यता व कुशलता एक शास्त्र ही है। धर्म-दर्शन अथवा अध्यात्म ही नहीं अर्थशास्त्र अथवा पर्यावरण अध्ययन भी एक शास्त्र है। दूसरों से कैसे व्यवहार करें अथवा बदलती हुई परिस्थितियों में सामंजस्य कैसे बनाएँ ये भी एक शास्त्र है। जीवन में सफल होने के लिए व्यावहारिक व व्यावसायिक कुशलता भी अनिवार्य है। इसके लिए अनिवार्य है कि हम जब तक अपने क्षेत्र में कुशलता प्राप्त न कर लें निरंतर सीखते रहें और जो सीखा है उसे याद रखने के लिए उसे दोहराते रहें। जिस प्रकार से सीखे हुए ज्ञान को दोहराना अनिवार्य है उसी प्रकार से सीखी हुई कलाओं अथवा शिल्प का अभ्यास करना भी अनिवार्य है। जब कोई कलाकार अभ्यास करना छोड़ देता है उसकी कला में गुणवत्ता का ह्रास होने लगता है। कलाकार की सर्जनात्मकता बुरी तरह से प्रभावित होने लगती है।

     निरंतर पुनरावृत्ति अथवा अभ्यास का प्रभाव ये होता है कि अर्जित ज्ञान अथवा सीखी हुई विद्याएँ विस्मृत नहीं होतीं और बार-बार की पुनरावृत्ति व अभ्यास से कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाते हैं। अभ्यास बढ़ने के साथ-साथ न केवल किए गए कार्यों की गुणवत्ता में सुधार होता जाता है अपितु उनको करने में समय भी कम लगने लगता है। दूसरे जब हम किसी भी कार्य को बार-बार करते हैं तो हमें उसकी आदत पड़ जाती है और वो हमारे जीवन का अंग बन जाता है। व्यावहारिक  दृष्टि से ही नहीं व्यावसायिक दृष्टि से भी चीजों का याद रखने का बड़ा महत्त्व है। एक गायक को यदि उसके द्वारा गाए जाने वाले गीत कंठस्थ नहीं होंगे तो उसका तो सारा खेल ही बिगड़ जाएगा। इसी प्रकार से एक नृत्यांगना का उसकी नृत्य शैली में पारंगत होना अनिवार्य है। एक उपदेशक को भी जो कहना है उसे अच्छी प्रकार से याद होगा तभी वो उसे अच्छी तरह से प्रस्तुत कर पाएगा और उसका अच्छा प्रभाव भी सुनने वालों पर पड़ेगा।

     मन का ये स्वभाव है कि उसमें कुछ न कुछ नया आता रहता है जो अच्छा अथवा बुरा दोनों प्रकार का हो सकता है। बुरे से बचने के लिए भी हमें अच्छे को प्राथमिकता देनी पड़ेगी। अच्छी बातों को सामने रखकर उनके लिए मन की कंडीशनिंग करनी पड़ेगी। अच्छी बातें जब तक हमारे व्यवहार में न आ जाएं उन्हें याद रखना होगा। उन्हें पहाड़ें की तरह सही-सही रटना और याद रखना होगा। यदि हम पहाड़े भूल जाएँ तो गणित के आसान से आसान प्रश्न भी हल नहीं कर पाएँगे। जीवन के गणित को ठीक से हल करने के लिए, उसमें अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए हमें अच्छी बातों अथवा जीवनोपयोगी सूत्रों को भी पहाड़ों की तरह ही सदैव याद रखना होगा। एक विद्यार्थी अथवा परीक्षार्थी परीक्षा भवन में प्रवेश करने तक अपने याद किए हुए उत्तरों को बार-बार दोहराता रहता है ताकि वो किसी भी सूरत में उन्हें भूल न जाए। जीवन के अंतिम क्षणों तक शास्त्रों की उपयोगी बातों अथवा जीवनोपयोगी कुशलताओं को कंठस्थ करना व उन्हें दोहराते रहने का प्रयास करना न छोड़ना हमारे हित में ही होगा इसमें संदेह नहीं।