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भारत के मुक्ति-संग्राम में तवायफों का योगदान

राम कुमार निराला

स्वतंत्र पत्रकार 

समाज जब किसी बड़े उद्देश्य के लिए संघर्ष करता है, तब समाज के सभी तबके एवं सभी पीढ़ियों के लोग साथ मिलकर संघर्ष करते हैं। इतिहास ने उनके योगदान को रेखांकित भी किया है, लेकिन समाज का एक बहिष्कृत तबका है तवायफों का, जिसके योगदान को अंकित करना जरूरी नहीं समझा गया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर इतिहास में विस्मृत कर दी गई तवायफों के मुक्ति संघर्ष का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन अपेक्षित है। गाँधीजी की प्रेरणा से काशी में एक ‘तवायफ सभा’ की स्थापना हुई, जिसकी अध्यक्षा निर्वाचित हुई- हुस्नाबाई। यह सभा 1920-22 के असहयोग आंदोलन में सक्रिय थी, हुस्नाबाई ने तवायफों से आत्मसुधार करने और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की अपील की। उनके एवं विद्याधरी बाई के कारण तवायफ सभा में चट्टानी एकता आ चुकी थी। तभी तो इस सभा के द्वारा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने और स्वदेशी अपनाने पर जोर दिया गया। सभा के सदस्यों को यह भी कहा गया कि देश की आजादी के लिए आभूषणों के स्थान पर लोहे की हथकड़ी पहनने के लिए तैयार रहो। गाँधीजी ने हुस्नाबाई से कहा कि जिन रियासतों में आपका संगीत कार्यक्रम आयोजित होता है, वहाँ स्वतंत्रता संबंधी गीत अवश्य गाएँ। गाँधीजी की नीति कुशलता इसमें भी थी कि उन्होंने तवायफों को दुत्कारा नहीं, न ही नीचा दिखाया, बल्कि तवायफों के वंचित तबके को भी राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ दिया। हुस्नाबाई ‘टप्पा’ गायन में पारंगत थीं और वे भारतेन्दु से भी निकट थीं। 

भारत न रह सकेगा हरगिज गुलामखाना,
आजाद होगा होगा, आया है वो जमाना।
खूं खौलने लगा है अब हिन्दुस्तानियों का,
कर देंगे जालिमों के बन्द बस जुर्म ढाना।
कौमी तिरंगे झण्डे पर जाँ निसार उनकी,
हिन्दू, मसीह, मुस्लिम गाते हैं, तराना।
परवाह अब किसे है, इस जेल, वो दमन की,
एक खेल हो रहा है फाँसी पे झूल जाना।
भारत वतन हमारा भारत के हम हैं बच्चे,
माता के वास्ते है मंजूर सर कटाना।

विद्याधरीबाई अपने जीवन की सांध्य बेला में बनारस के समीप जसूरी गाँव में स्थायी रूप से रहती थीं। हिन्दुस्तान की प्राय: सभी रियासतों में इनके गीत-नृत्य का जलवा गूंजता था। ये मालकौंस, खयाल व तराना गाने के लिए सुविख्यात थीं। गाँधीजी के असहयोग आदोलन में इन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और अपनी सहेलियों को भी आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। विद्याधरी, जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ को महफिलों में अद्भुत ढंग से प्रस्तुत करती थीं। जद्दनबाई का जन्म बनारस में 1892 ईष्वीं में हुआ। जद्दनबाई के पिता मियां जान ने उन्हें संगीत की बेहतर शिक्षा दी। जद्दन ने ठुमरी गायिका के रूप में काफी शोहरत पायी। कई शहरों में रहने के पश्चात बनारस के दालमंडी के कोठे पर जद्दन जा बैठीं। सनद रहे कि जद्दनबाई सुप्रसिद्ध अभिनेत्री नर्गिस की माँ थीं। वह कभी गया (बिहार) में कथक सीखने गई थीं। जद्दनबाई के दालमंडी के कोठे पर आजादी के दीवानों का आना-जाना लगा रहता था। ब्रिटिश प्रशासन ने उनके कोठे पर छापा भी मारा। अंग्रेजी प्रशासन की प्रताड़ना से बाध्य होकर उन्होंने दालमंडी की गली को छोड़ दिया। 

इस विषम परिस्थिति में भी जद्दन महफिलों से मिलने वाले पैसों को क्रांतिकारियों के बीच प्रसन्नतापूर्वक वितरित करती थीं। देश की आजादी को उन्होंने लक्ष्य बनाया। 8 अप्रैल, 1949 को उनकी मृत्यु हो गयी। उनका जीवन संघर्ष और करुणा की गाथा है। रसूलन बाई ने गाँधीजी के स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित होकर आभूषण और रेशमी वस्त्र पहनना छोड़ दिया था। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् ही उन्होंने आभूषण और रेशमी वस्त्र धारण किया और शादी भी की। बाद में इस महान गायिका को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। बनारस की प्रसिद्ध गली दालमंडी के कोठे पर गूंजने वाली घुंघरूओं की झंकार ने ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया था। उस दौर में राजेश्वरी बाई, जद्दन बाई, रसूलन बाई आदि के कोठों पर सजने वाली महफिलें महज मनोरंजन और विलासिता का केन्द्र नहीं होती थीं, बल्कि ब्रिटिश प्रशासन को उखाड़ फेंकने हेतु आवश्यक रणनीति निर्धारित करने का भी केन्द्र थीं। रसूलन बाई अपनी महफिलों में देशभक्ति परक गीत के साथ-साथ ‘फुलगेंदवा न मारो…’ जैसे गीत गाकर खूब प्रसिद्ध हुई। करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व सिद्धेश्वरी देवी के पूर्वजों में रत्तीबाई ने बड़ा नाम कमाया था। फिर उसकी गद्दी उनकी भतीजी मैना बाई ने संभाली। मैना बाई की पुत्री राजेश्वरी बाई ने अपने समय में नृत्य-संगीत की दुनिया में काफी लोकप्रियता हासिल की। सिद्धेश्वरी बाई की माता राजेश्वरी की छोटी बहन थीं, उन्होंने अल्पायु पाई। सिद्धेश्वरी का लालन-पालन राजेश्वरी ने ही किया। सिद्धेश्वरी देवी अपनी मधुर आवाज के कारण ‘स्वर जीवनी’ के नाम से सुविख्यात थीं। वे महफिलों में देशभक्ति के गीत अवश्य गाती थीं और कनीय तवायफों को प्रशिक्षित भी करती थीं। अपने समय के नामचीन संगीतज्ञों के साथ वह संगत करती थीं। आजादी के बाद सिद्धेश्वरी देवी को शास्त्रीय संगीत गायन में सिद्धहस्त होने के कारण ‘पद्मश्री’ अलंकरण से विभूषित किया गया। बेलाबाई और ढेलाबाई दोनों सगी बहनें थीं। दोनों मूलत: मुजफ्फरपुर की रहने वाली मशहूर तवायफ मीराबाई की पुत्री थीं। कालांतर में बेलाबाई, गया के तुतबाड़ी मुहल्ले में आकर रहने लगीं और ठुमरी गायन में प्रसिद्धि हासिल की। गया शहर के नकफोफा स्टेट के प्रमुख गोविन्द लाल नकफोफा, स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे और वे स्वयं सिद्धहस्त संगीताकार तथा कला-प्रेमी भी थे। बेलाबाई, सिद्धेश्वरी देवी आदि नामचीन गायिकाएं उनके यहाँ आयोजित महफिलों में सक्रिय रूप से भाग लेती थीं। ब्रिटिश पुलिस प्रशासन के आतंक और जुल्म की परवाह किए बगैर बेला बाई, भारतीय क्रांतिकारियों के पक्ष में खुलकर काम करती थीं। क्रांतिकारियों को अपने कोठे पर शरण देती थीं और समय-समय पर आर्थिक सहयोग भी करती थीं। ढेला बाई का मूल नाम गुलजारी बाई था। उसकी आवाज में गुड़ के ढेले जैसी मिठास होने के कारण ढेला बाई के नाम से ज्यादा प्रसिद्धि हासिल की। ढेला बाई को छपरा शहर के एक जमींदार हलिवंत सहाय ने एक तरह से अपहरण करके मुजफ्फरपुर से लाकर छपरा में रखा और उसकी सारी सुविधाओं की व्यवस्था की थी। ढेला बाई का छपरा प्रवास के दौरान भोजपुरी के सुप्रसिद्ध गायक महेन्द्र मिसिर से सम्पर्क हुआ। महेन्द्र मिसिर ने पूर्वी और दादरा गायन के क्षेत्र में विशिष्टता हासिल कर रखी थी। उनके कुछेक गीत अंग्रेजी राज के विरूद्ध भी मिलते हैं, जैसे ‘हमरा निको न लागे राम गोरन के करनी…।’ इस गीत को ढेला बाई अपनी महफिलों में खूब गाती थी। ढेला बाई गायिकी, नृत्य और अदाकारी में अद्वितीय थीं। उनके बारे में संगीतकार ठाकुर जयदेव सिंह का अभिमत द्रष्टव्य है- ‘‘वह अपने जमाने में भारत की सुन्दरता का प्रतिमान थी।’’ ढेलाबाई के कोठे पर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े क्रांतिकारी पहुँचते थे। प्रत्यक्ष रूप से ऐसा लगता था कि ये नाच-गान देखने के लिए पहुँचे हैं, परन्तु वास्तव में ढेला बाई के कोठे से गुप्त सूचनाएँ और पैसों का आदान-प्रदान होता था। ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के उद्देश्य से नकली नोट छापने के जुर्म में महेन्द्र मिसिर को बीस वर्षों की सजा मिली थी। इस केस को लड़ने का खर्च भी ढेला बाई ने ही वहन किया था। कहा तो यहाँ तक जाता है कि महेन्द्र मिसिर की सजा माफी हेतु ढेला बाई ने सरकार के समक्ष प्रस्ताव रखा था कि महेन्द्र मिसिर के वजन के बराबर जेवर और सोना-चांदी के सिक्के दूंगी। बाद में ढेला बाई के आग्रह पर स्वतंत्रता सेनानियों की सहायता करने में मुजफ्फरपुर और छपरा की तवायफें भी सक्रिय रहीं। ढेला बाई गाँधीजी के आह्वान पर ‘तवायफ सभा’ का भी गठन छपरा-मुजफ्फरपुर में किया था। इनकी प्रमुख सहयोगी बनीं – कालीदासी, बड़ी पन्ना बाई, राजकुमारी बाई आदि। ये तीनों मूलत: जौनपुर और बनारस के बीच किसी गाँव से मुजफ्फरपुर में आयीं। फिर कालीबाड़ी रोड स्थित कोठे पर शरण ली। इन सभी के पूर्वज भी तवायफ समुदाय से ही आते थे। खुफियागिरी, सेनानियों को गुप्त रूप से मदद करना, महफिलों में कम-से-कम एक राष्ट्रवादी गीत गाना, मुक्ति संग्राम के दौरान इनके प्रमुख कार्य थे। वे लोग विभिन्न थानों में जाकर पता लगाते थे कि किस सेनानी का नाम पुलिस ने केस में दर्ज किया है, फिर उन सेनानियों को गुप्त रूप से सूचना देना और उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का दायित्व भी निभाते थे। इस क्रम में क्रांतिकारियों को आवश्यकतानुसार आर्थिक सहयोग भी इनके द्वारा दिया जाता था। भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम यानी 1857 के विद्रोह में भी कई तवायफों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। इनमें अजीजन बाई, गुलाबी बाई, दुलारी बाई आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अजीजन देश की स्वतंत्रता के लिए बहादुरी और साहसिकता से लड़ीं, कभी पर्दे में रहकर तो कभी बिना पर्दे के। कहा जाता है कि अजीजन बाई एक जासूस, खबरी और कुशल योद्धा थीं। उनका जन्म लखनऊ में हुआ था और उनकी माँ भी तवायफ ही थीं। बाद में अजीजन लखनऊ से कानपुर आ गयीं और प्रखर राष्ट्रीयता से लैस होकर हिन्दुस्तानी सिपाहियों के साथ बैठकें भी करती थीं। ब्रिटिश इण्डियन आर्मी के सैनिकों के साथ उनका मधुर संबंध सर्वविदित है। उनके कोठे पर सिर्फ तबले की थाप पर घुघरूओं की छन-छन और मधुर स्वर ही नहीं निकलते थे, बल्कि उनके यहाँ स्वतंत्रता संघर्ष की रणनीति भी बनती थी। एक जून, 1857 को क्रांतिकारियों ने कानपुर में एक महत्त्वपूर्ण बैठक की, जिसमें नाना साहेब, तांत्या टोपे, सूबेदार टीका सिंह, शमसुद्दीन खां, अजीमुल्ला खान आदि ने भाग लिया। इस बैठक की अध्यक्षता अजीजन बाई ने ही की, जिसमें ब्रिटिश सरकार को समूल नष्ट करने का प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित किया गया। कई प्रकाशित शोध पत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि अजीजन बाई ने महिलाओं का एक दस्ता भी बनाया, जिसका प्रमुख कार्य रहा – स्वतंत्रता सेनानियों को तन-मन-धन से सहयोग देना, हथियारों से लैस सिपाहियों का हौसला बढ़ाना, हथियार वितरण, घायल सिपाहियों की सेवा करना आदि। 1857 की क्रांति में अजीजन ने पुरुष वेश में घोड़े पर सवार होकर, तलवार और बंदूक लेकर ब्रिटिश सैनिकों से लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई के साथ मिलकर खूब बहादुरी से लड़ाई लड़ी। अंग्रेज सैनिकों को कुछ समय तक यह भ्रम बना रहा कि अजीजन ही लक्ष्मी बाई है। स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम सेनानी वीर सावरकर का अभिमत अजीजन बाई के संबंध में ध्यातव्य है : ‘‘इस नाचने-गाने वाली को सिपाही बहुत प्यार करते हैं। वह बाजार में पैसों के लिए अपना प्यार नहीं बेचती हैं। उसका प्यार देश से प्यार करने वालों के लिए है।’’ इस प्रकार हम अजीजन बाई के जीवन में शौर्य और सौंदर्य, विलास और बलिदान, कला और क्रांति का अद्भुत समन्वय पाते हैं। वैसे तो तत्कालीन शाहाबाद (बिहार) की निवासी गुलाबी बाई की प्रसिद्धि एक नर्तकी के रूप में सर्वत्र थी, जिसके दीवाने राजा रजवाड़े एवं जमींदार थे, परन्तु इसी गुलाबी बाई के साथ-साथ धरमन एवं करमन बीबी ने भारत के प्रथम मुक्ति संग्राम 1857 ई. में अपने ऐशो-आराम को त्यागकर बाबू कुंवर सिंह के विद्रोह में न केवल एक प्रेयसी के रूप में साथ दिया, बल्कि अंग्रेजों के साथ युद्ध के दौरान गुलाबी ने वीरगति को प्राप्त की। न केवल शाहाबाद, बल्कि पूरे प्रदेश के जनमानस में गुलाबी बाई के त्याग और बलिदान की कहानी तब लोगों के जुबान पर थीं। शहीद गुलाबी बाई के शौर्य और बलिदान की स्मृति में कुंवर सिंह ने आरा में एक मस्जिद बनवायी थी। बाबू कुँवर सिंह की आखिरी साँस तक धरमन एवं करमन बीबी दोनों बहनें निष्ठापूर्वक रहीं। इनसे संदर्भित ग्रंथों में धरमन-करमन की राष्ट्रीय चेतना एवं देशानुराग की अभिव्यक्ति मिलती है। दुलारी बाई रूपवती थी और तन्हा रहती थी, गाँव का हर पुरुष उससे दोस्ती के लिए लालायित रहता था। पर वह किसी को पास फटकने नहीं देती। वह संगीत साधना में तल्लीन रहती थी। बाद में वह गाँव छोड़ कर बनारस के चर्चित दालमंडी के कोठे पर आ गयी। दालमंडी के कोठे पर भारत की स्वाधीनता हेतु आवश्यक विमर्श में भाग लेने वाली तवायफों की सूची में दुलारी बाई का नाम सबसे ऊपर है। गौहर जान मूलत: कलकता की रहने वाली थी। उनकी माँ ईसाई मेम थी, जिन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। बाद में गौहर बनारस आ गई। इलाहाबाद में गौहर के एक संगीत कार्यक्रम में उनके संगीत-नृत्य एवं अदाकारी से प्रभावित होकर अकबर इलाहाबादी ने उनकी प्रशंसा में एक शेर लिखा :-

आज ‘अकबर’ कौन है दुनिया में गौहर के सिवा।
सब खुदा ने दे रक्खा है एक शौहर के सिवा।।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक अधिवेशन में गौहर जान ने शिरकत की थी, लेकिन सभ्रांत महिलाओं को यह रास नहीं आया और इस नामचीन गायिका को अधिवेशन की गतिविधियों से अलग ही रहने का आदेश निर्गत किया गया। इसके बावजूद गौहर जान ने स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन हेतु स्वराज कोष में विपुल राशि जमा की थी। तवायफें राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के नेतृत्व का मुख्य अंग नहीं थी, लेकिन अपनी व्यावसायिक एवं सामाजिक सीमाओं के बावजूद वे जहाँ भी थी, वहाँ राष्ट्रीय मुक्ति के यज्ञ में आहुतियां दे रही थीं। उनके महत्त्व को उनकी सामाजिक सीमाओं को ध्यान में रखकर ही मूल्यांकन किया जा सकता है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर राष्ट्रीय मुक्ति यज्ञ में अपने हिस्से का अर्घ्य देने वाली वारांगणाओं को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।