गौरवशाली भारत

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नारी का महत्व एवं आधुनिक युग में उसकी भूमिका

डॉ. शीला मिश्रा

प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, सांख्यिकी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, पूर्व विजिटिंग प्रोफेसर, डिपार्टमेंट आॅफ मैथमेटिक्स एंड स्टेटिस्टिक्स,यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ कैरोलिना, संयुक्त राज्य अमेरिका

निराकार ब्रह्म की ‘एकोहं बहुस्याम’की इच्छा ही माया को अस्तित्व में लाकर साकार सृष्टि संरचना का कारण बनी, ऐसी  तत्व-दर्शियों का विचार  है। सृष्टि रूपी नाट्य के सुव्यवस्थित मंचन हेतु वही निराकार ब्रह्म पुरुष और प्रकृति के रूप में प्रकट हुए।   इस विधान में सृष्टि के सर्वोच्च सोपान पर मानव को आसीन कर उसे स्त्री तथा पुरूष रूपी पूरक स्वरूपों में विभाजित किया तथा अर्द्ध-नारीश्वर संकल्पना के साथ पूर्ण भी किया। परमात्म-अंश होने के कारण मनुष्य  का आत्मबोध एवं  ईश्वर से संयोग के माध्यम से परमात्म तत्व में पुन: विलीन होकर पूर्णता प्राप्त करने का लक्ष्य एवं पुरुषार्थ के लिए आवश्यक तितिक्षा भी प्रदान किया। विकास के क्रम में उसी मानव ने मानव-जीवन एवम समाज के सर्वांगीण विकास तथा अपने  परम ध्येय की प्राप्ति  हेतु सभ्यता और संस्कृति के विकास के लिए सुव्यवस्थित और समर्थ परिवार, समाज और राष्ट्र की संकल्पना और स्थापना प्रारम्भ की जो वैदिक काल  में अपने शिखर पर पहुंची। वैदिक काल प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का वह काल खंड है जो सभ्यता, समृद्धि, ज्ञान-विज्ञान और उत्कृष्ट संस्कृति के परिपेक्ष्य ही नहीं, वरन नारी की सामाजिक स्थिति, भूमिका और अधिकार की दृष्टि से भी भारत का ही नहीं, निखिल विश्व का भी स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। विश्व के प्राचीनतम अपौरुषेय ग्रन्थ वेदों में नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान कर भारतीय ऋषियों ने उनकी शिक्षा-दीक्षा, शील-गुण, कर्तव्य-अधिकार और सामाजिक भूमिका का विषद निरूपण किया है। राजा की पत्नी अर्थात महिषी की प्रशासनिक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका थी। महिलाएं अपने पति के साथ यज्ञ कार्य में भाग लेती थीं। 

बाल विवाह और पर्दाप्रथा का प्रचलन इस काल में नहीं था। विधवा विवाह, महिलाओं का उपनयन संस्कार, नियोग, गन्धर्व और अंतर्जातीय विवाह को मान्यता थी। वेदों ने जहाँ नारी को यज्ञीय अर्थात यज्ञ के समान पूजनीय माना वहीं विवाह के उपरान्त स्त्री को ससुराल की सम्राज्ञी का अधिकार देते हुए, पृथ्वी तक की सम्राज्ञी बनने का अधिकार दे दिया।
यथासिंधुर्नादीनां साम्राज्यं सुषुवे वृषा।
एवा त्वम् साम्राज्ञ्येधि पत्यरस्तं परेत्य।।
-अर्थववेद (१४/१/४३)

वेदों ने स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाया और उसे चिर विजयिनी की उपाधि दी। वैदिक काल में नारी अध्यन-अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में ही नहीं गई, अपितु अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति, दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि ऋषिकाओं ने वैदिक मन्त्र-द्रष्टा के रूप में कालजयी प्रतिष्ठा प्राप्त की। ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में वर्णित है-
घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति:॥
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती॥
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता:॥

वेदों नें कुमारी स्त्री को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर कहा कि संतान विद्यावान हों, इसलिए मातायें शिक्षित हों, ज्ञानवान हों। वेदों ने माना कि स्त्रियाँ ही सदाचारी और वीर्यवान पुरुषों का वरण कर, स्वस्थ संतान पैदा कर, उसे संस्कारवान बनाकर समाज का गौरव बढाती हैं।
सूयवसाद भगवती हि भूया,
अथो वयं भगवन्त: स्याम।
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं,
पिब शुद्धमुदकमाचारन्ति।।
-ऋग्वेद (१/१६४/४०)

इस प्रकार वैदिक काल में में नारी पूज्य हैं, स्तुति योग्य हैं, आह्वान-योग्य हैं, रमणीय हैं, सुशील हैं, बहुश्रुत हैं, यशोमयी हैं। भागवत पुराण में बहुत सुन्दर वर्णन आता है। स्वधा की दो पुत्रियाँ हुईं, जिनके नाम वयुना और धारिणी थे। ये दोनों ही ज्ञान और विज्ञान में पूर्ण पारंगत तथा ब्रह्मवादिनी थीं।
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे वयुनां धारिणीं स्वधा।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ, ज्ञान-विज्ञान।।
-भागवत(४/१/६४)

अन्यत्र भी इसी प्रकार ब्रह्मवादिनी अर्थात वेद और ब्रह्म का उपदेश करने वाली स्त्रियों का वर्णन मिलता है-
सततं मूर्तिमन्तश्च वेदाश्चत्वार एव च।
सन्ति यस्याश्च जि’ग्रे सा च वेदवती स्मृता॥
-ब्रह्म वै० प्रकृति खण्ड (२/१४/६४)

ऐसी उच्चकोटि की सशक्त माताओं और उनकी सुनिश्चित भूमिका के माध्यम से ही सशक्त, संस्कारयुक्त और आचरणवान संतति का निर्माण होना संभव हो सका, जिससे सुदृढ़ परिवार, सुसंस्कृत समाज और सुसंस्कृत तथा उन्नत राष्ट्र भारत का निर्माण हुआ, जिसकी सहिष्णुता, समन्वय, शांति, विश्वबंधुत्व और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:- चिंतन ने उसे विश्व गुरु बनाया-
अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम॥

परन्तु दुर्भाग्यवश भारत के इसी उदार दृष्टिकोण और समावेशी सर्वपोशी भाव को निर्बलता मानकर अनेक विदेशी आक्रांताओं और लुटेरों ने भारत की अस्मिता और संस्कृति पर बारम्बार प्रहार किया, जिससे जूझती हुई विश्व की सर्वश्रेष्ठ भारतीय संस्कृति आधुनिक युग आते-आते षड्यंत्र का शिकार हो अपने मूल स्वरुप को खोने लगी। सबसे बड़ा आघात तो तब लगा जब आधुनिक शिक्षा के नाम पर अंग्रेजो ने नियोजित तरीके से नयी भारतीय पीढ़ी में भारतीय संस्कृति के प्रति गर्व और अपनत्व के भाव को छिन्न-भिन्न कर हीनता भर दी। पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण को सभ्यता और आधुनिकता से जोड़कर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता, हमारे आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को समाप्त करने के सुनियोजित कुत्सित प्रयास में वे किसी हद तक सफल भी हुए। भौतिकवाद, सांस्कृतिक उथल-पुथल तथा कुत्सित षडयंत्र समाज में बढ़ती स्वेच्छाचारिता तथा अमानुषिकता की पराकाष्ठा, भेदभाव और असुरक्षित वातावरण नारी के गौरवपूर्ण एवं गरिमामयी जीवन के लिए अभिशाप बन गए। स्त्री को मात्र प्रदर्शन की वस्तु अथवा भोग्या के रुप में प्रस्तुत कर उसके आत्मसम्मान और गौरव को तहस-नहस कर उसको सामान्य मानवीय अधिकारों से भी वंचित करने का षड्यंत्र पूरी मानवता के लिए संकट बन गया है। स्त्री-पुरुष के बीच शाश्वत पूरक भाव की जगह विरोधी भाव को इस तरह उभारा और बढ़ाया गया कि अर्द्धनारीश्वर के स्वरुप की विखंड़ता के साथ वर्तमान भौतिकवादी युग तक आते-आते भारतीय संस्कृति में नारी की गरिमा, और वैदिक काल के उच्च एवं सुदृढ़ आदर्शों की इमारत ढहने लग गयी। कालचक्र, पराधीनता एवं कुचक्र के कारण आई, सुरसा के मुख की तरह बढ़ी सामाजिक कुरीतियों, प्रतिद्वंदी व्यवहार और भेदभाव ने शक्ति स्वरूपा स्त्री के आत्मविश्वास को हिलाया और प्रेम, सहयोग, सौहार्द्र, त्याग और शांति जैसे स्त्री के नैसर्गिक एवं स्वाभाविक अन्तर्निहित मानवीय मूल्य पराजित होने लगे। वह स्त्री जो कभी मंत्र दृष्टा, श्रद्धा और शौर्य की प्रतीक हुआ करती थी, विवशता से सिसकने लगी। जो स्वयं शक्ति स्वरूपा थी दुर्दैव से वही स्त्री माँ के गर्भ से लेकर अन्तिम साँस तक अपनी सुरक्षा, अस्मिता और अस्तित्व के लिए डरी-सहमी क्षण-प्रतिक्षण संघर्ष करने के लिए बाध्य होने लगी। विश्व और राष्ट्र स्तरीय विभिन्न रिपोर्टों में प्रकाशित घर और घर के बाहर दिनो-दिन बढ़ते अत्याचारों, घटते हुए लिंगानुपात, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक उत्पीडन, शोषण के आँकड़े तथा मी-टू जैसे आंदोलन, महिलाओं के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक उत्पीडन तथा शोषण के साथ महिलाओं के आधुनिक व छद्म-सशक्तिकरण के पीछे की त्रासदी को ही व्यक्त कर रहे हैं। महिलाओं की इस स्थिति में सुधार की अत्यंत आवश्यकता है। आज उनके प्रति सम्मान और संवेदनशील व्यवहार की भावना बढ़ाने के साथ ही उनकी सुरक्षा और अपेक्षित भूमिका और जीवनशैली चुनने की स्वतंत्रता पर भी जनमत और राष्ट्र मत बनाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारी समस्याएं गंभीर हैं और उनका निराकरण भी तत्काल होना चाहिए परन्तु थॉमसन और रॉयटर्स जैसी रिपोर्टों का पुरजोर विरोध भी होना चाहिए, जिसने महिलाओं के लिए भारत को विश्व का सर्वाधिक खतरनाक देश तक घोषित कर दिया है। यह भारत की शाख को गिराने के लिए तथा भारतीय संस्कृति, उत्कृष्ट वैदिक सोच, स्त्री की शाश्वत मर्यादा, स्त्री सम्बंधित संवेदनशील मुद्दों पर नीचा दिखाने की नियोजित एवं प्रायोजित साजिश ही प्रतीत होती है। संयुक्त राष्ट्र संघ स्तर पर प्रकशित रिपोर्ट के अनुसार तथाकथित विकसित देश अमेरिका और यूरोप बेहतर लैंगिक समानता के बावजूद महिलाओं के प्रति हिंसा एवं अत्याचार में भारत से कही आगे हैं यथा विश्व में अमेरिका में सबसे अधिक बलात्कार तथा स्वीडन में महिलाओं पर सबसे अधिक अत्यचार हो रहे हैं और हम उन्ही मानकों और प्रतिदर्श के अनुरुप भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने का प्रयास कर रहे हैं और हमें उनकी योजनाओ के अनुपालन से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे तो आश्चर्य की क्या बात है? वर्ल्ड इकनोमिक फोरम 2016 की रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए, वर्तमान प्रयासों से, भारत को कम से कम 170 वर्ष लग जायेंगे। उच्च शिक्षा में लड़कियों के बढ़ते एनरोलमेंट के बाद भी हम आज विश्व में लैंगिक विषमता के कारण 136 वें पायदान पर हैं। केवल भौतिक और आर्थिक मापदंड को ही सशक्तिकरण मानने से एक अलग ही प्रकार की समस्या उत्पन्न हो गयी है। स्त्रियों ने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को बेहतर बनाने की दृष्टि से संतुलन और सामंजस्य का प्रयास किया, परन्तु उपभोक्तावादी पश्चिमी सोच से प्रभावित व्यवस्थाओं, स्वार्थसिद्ध करने वाले भारतीय संस्कृति विरोधी संगठनों के कुचक्र के कारण स्त्री-विमर्श में सामजिक और सांस्कृतिक विद्रोह और लिंग वैमनस्य जैसी स्थिति उत्पन्न हो कर सशक्तिकरण की दिशा और दशा, जिसे वैचारिक स्तर पर होना चाहिए था केवल सतही सुधार जैसे रहन-सहन-पहनावा-नौकरी इत्यादि तक ही सीमित होकर रह गयी है। आधुनिकता के नाम पर आयातित संस्कार-संस्कृति और पहनावे को ही स्त्रियों की स्वतन्त्रता और सशक्तीकरण का मापक बनाकर, सिनेमा और प्रचार माध्यमो में स्त्रियों के शरीर को वस्तु की तरह नुमाइश कर स्त्री की गरिमा पर और भी गंभीर, भयंकर और निर्लज्ज कुठाराघात होने लगा। यहाँ यह लिखना समीचीन होगा कि पश्चिम का दर्शन केवल भौतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से ही नारी सशक्तिकरण का एकांगी आकलन करता है, परंतु भारत ने सदैव स्त्री के सर्वांगपूर्ण विकास एवं सम्मान का चिंतन किया है। लैंगिक समानता का अर्थ स्त्री-पुरुष के रोल-रिवर्सल और उनका नैसर्गिक पूरक-सहयोगात्मक व्यवहार समाप्त करने के बजाय दोनों को बिना किसी भेदभाव बराबर का सम्मान और अवसर मिले, होना चाहिए। स्त्री की वास्तविक समस्या उस मानसिक परिवर्तन की है जो उसे नीचा दिखाने के लिए तरह-तरह के प्रयास कर रही है जो घर और बाहर दोनों ही जगह घरेलु हिंसा, कार्य स्थान पर लैंगिक भेदभाव,अपमान, भोग्या के रूप में प्रस्तुत करना,समान अवसर न देना, निर्णय की आजादी छीनना जैसे दैनिक व्यवहारों में दिखाई देती है। इन समस्यायों के साथ ही एक आशा की किरण भी दिखाई देती है। पितृसत्तात्मक सोच के आरोप के बाद भी देखकर संतोष होता है कि भारतीय परिवेश में स्त्रियों के प्रति सोच-विचार में जितना सुधार और बदलाव लाने में जितने सफल भारतीय संस्कृति को समाहित किये हुए ईश्वरचंद विद्यासागर और राजा राममोहन राय जैसे सुधारक अथवा महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानद और महर्षि अरविन्द जैसे विचारक, सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी हुए, उतना शायद ही विदेश की धरती पर पुष्पित और पल्लवित आयातित पश्चिमी-स्त्री विमर्श अथवा आधुनिक महिला आंदोलन हो पाए हैं। महर्षि अरविन्द का कहना था कि कोई भी कानून स्त्रियों को स्वतंत्र नहीं कर सकता जब तक की वे स्वयं अपने को स्वतंत्र न करे। और स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि, ‘स्वतंत्रता विकास की पहली शर्त है, तुम स्त्रियों की समस्या सुलझाने वाले कौन हो ? तुम दूर रहो, वे अपनी समस्याएं स्वयं हल कर लेंगी।’ नारी संसद भी उसी दिशा में एक सामयिक और महत्वपूर्ण कदम है। निसंदेह वैधानिक, राजनितिक, सामजिक और आर्थिक सुधार महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध और चुनौतियां को हल करने में बहुत उपयोगी है, परंतु समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए, आपसी श्रद्धा-विश्वास तथा विचारों और संस्कारों की पवित्रता नितांत आवश्यक है। स्त्री की समस्या ही नहीं वरन् सभी समस्यायों का निराकरण मुख्यत: सामजिक सोच और मानसिकता की आतंरिक एवं आत्मिक परिवर्तन से ही संभव है,जो कि सदाचरण और उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना से ही होगा। और अच्छी बात यह है की यह कमोबेश स्त्री के ही हाथ में है। भारतीय स्त्रियाँ, अपने भारतीय परिवेश और संस्कृति के अनुसार, अपने लिए योजनाए और समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम हैं, बस आवश्यकता है उनकी बाते गौर से सुनने, समझने और उनके क्रियान्वयन के लिए उपयुक्त वातावरण उपलब्ध कराने की। प्रकृति में सभी प्रकार की विविधताओं की अपनी विशेषता, क्षमताएं और उपादेयता हैं, नर-नारी भी अपवाद नहीं है। मानव प्रदत्त ज्ञान, कार्यकुशलता और व्यवहार दोनों समान रूप से सीखने में सक्षम हैं परंतु प्रकृति प्रदत्त कौशल एवं व्यवहार दोनों में पूरक रुप मे हैं। एक यदि विचार है तो दूसरा उसका प्रकटीकरण। एक शक्ति है तो दूसरा संवाहक। ईश्वर की इस विविधता पूर्ण सृष्टि में मनुष्य को प्राकृतिक रुप से मुख्यत: इन्हीं दो वर्गों स्त्री-पुरूष में वर्गीकृत किया जा सकता है, बाकी सभी भेद यथा जाति, धर्म, देश इत्यादि मानव निर्मित हैं। वर्गीकरण से स्पष्ट है कि दोनों के गुण, धर्म एवं विशेषतायें भी विशिष्ट होंगी और उसी के अनुरूप सृष्टि में उनका स्थान, कर्तव्य और उपादेयदा भी होगी। स्त्री की विशिष्ट संरचना, कार्य और व्यवहार के साथ व्यक्ति, परिवार तदुपरांत समाज एवं राष्ट्र के निर्माण में उसके अतुलनीय भूमिका के कारण ही उसे मातृ रूप में ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अथवा ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता’ कहकर उसकी महत्ता को गर्व के साथ बार-बार वर्णित किया है। स्त्री संस्कृति एवं सभ्यता की संवाहक तथा सन्तान की प्रथम गुरु है। मनुष्य का सारा जीवन स्त्री को केंद्रित कर ही अपना पथ निर्धारित करता है। यदि स्त्री केंद्र से हटकर परिधि पर आ जाये तो व्यक्ति का जीवन अनियंत्रित और कई बार उद्देश्य हीन भी हो जाता है। दुर्भाग्यवश भौतिकवादी पश्चिमी अवधारणा के कारण आज सभी केवल पुरूष होना चाहते हैं, कोई स्त्री बनकर केंद्र में स्थित नहीं होना चाहता। प्राकृतिक विकास के सिद्धांत में प्रकृति ने आज भी केंद्र से स्त्री को विस्थापित करने की कोई योजना नहीं है। आज यदि मानव और मानवता का अस्तित्व बचाना है तो केंद्रीय भूमिका में स्त्री की पुन: गरिमामयी प्रतिष्ठा करनी होगी। और स्वयं आगे आकर नारी को इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार करना होगा। यद्यपि आज महिलाएं धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, कला, वैज्ञानिक अथवा जहाँ तक हम कल्पना कर सकते हैं हर क्षेत्र में सक्षम भूमिका में है तथापि आधुनिक युग में नारी की महती प्रासंगिकता को स्वीकारते हुए भावी पीढ़ी के व्यक्तित्व विकास, संस्कारवान और सशक्त बनाने की भूमिका का पालन भी बड़े मनोयोग से करना होगा। ‘नारी संसद’ अपनी गौरवशाली संस्कृति, सभ्यता और परम्परा को नमन करते हुए वेद, उपनिषद् एवं पुराण के नारी-विषयक कालजयी चिंतन की पुनर्घोषणा करता हुआ, यजुवेर्दीय चिंतन ‘पुरन्धियोर्षा जिष्णु रथेष्ठा:’ को आधार वाक्य बनाते हुये, सम्पूर्ण नारी शक्ति के लिये, आज के चुनौतीपूर्ण वातावरण में अपनी सभ्यता और संस्कृति की परिधि में, समाधान की ओर अग्रसर होकर अपनी वैदिक कालीन अस्मिता, गरिमा के साथ विश्वगुरु भारत के पुनर्निर्माण का आह्वान करती है।
पुस्तक सन्दर्भ :-
1. श्रीमद्भागवत महापुराण – महर्षि वेद व्यास
2. वेदों का दिव्य सन्देश – आचार्य श्रीराम शर्मा
3. 108 उपनिषद् – सम्पादक आचार्य श्री राम शर्मा
4. श्री रामचरितमानस – गोस्वामी तुलसी दास
5. ऑन एजुकेशन – महर्षि अरविन्द
6. कोलम्बो टू अल्मोड़ा – स्वामी विवेकानंद
7. भारत भगिनि निवेदिता – डॉ. अनिल मिश्र एवं प्रोफेसर शीला मिश्रा
8. विलक्षण विवेकानंद – प्रोफेसर शीला मिश्रा एवं डॉ. अनिल मिश्र।