इस शिक्षा नीति से भारत और दुनिया के अन्य देशों के साथ शैक्षणिक आदान-प्रदान में भी गति आएगी। जिससे न केवल विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में सुधार होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों की दृष्टि से भी यह उपयोगी होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत की शिक्षा व्यवस्था को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करेगी तथा वैश्विक सुन्दरम में भारत की बढ़ती भूमिका के अनुरूप भारत की विविध आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाओं को भी मजबूती देगी। यह शिक्षा नीति एक तरह से सशक्त भारत के नये भविष्य के निर्माण का प्रयास है। यह शिक्षा नीति भारतीय विश्वविद्यालयों को दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की श्रेणी में परिगणित करा पाने में समर्थ भी होगी तथा सशक्त और विकसित भारत का निर्माण भी करेगी। इस महती उद्देश्य के कारण इसका विजन भी अत्यंत व्यापक और महत्वाकांक्षी है। इसके विजन को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है ‘इस राष्ट्रीय शिक्षा का विजन भारतीय मूल्यों से विकसित शिक्षा प्रणाली है जो सभी को उच्चतर गुणवत्ता शिक्षा उपलब्ध कराके और भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाकर भारत को एक जीवंत और न्यायसंगत ज्ञान समाज में बदलने के लिए प्रत्यक्ष रूप से योगदान करेगी’। ज्ञान समाज में रूपांतरण किसी भी समाज व्यवस्था का चरम लक्ष्य है, पश्चिम के राष्ट्र भी इस ज्ञान समाज या नॉलेज सोसाइटी के निर्माण की प्रक्रिया में हैं। इस शिक्षा नीति का महत्व इस बात में है कि यह भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर भारत के ज्ञान समाज में रूपान्तरण के लक्ष्य को लेकर चलती है। इसके अंतर्गत भारतीय भाषाओं, भारतीय संस्कृति, भारतीय ज्ञान-विज्ञान और भारतीय मूल्यों पर इतना अधिक बल दिया गया है कि यह शिक्षा नीति यूरो/अमेरिका केन्द्रित शिक्षा और जीवन प्रणाली के समानांतर एक नई व्यवस्था के निर्माण की ओर आगे बढ़ती है। परोक्ष रूप से यह आधुनिक शिक्षा प्रणाली का प्रतिवाद भी करती प्रतीत होती है। ‘प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परम्परा के आलोक में यह नीति तैयार की गयी है। ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय विचार परम्परा और दर्शन में सदा सर्वोच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान नहीं, बल्कि पूर्ण आत्म-ज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था….। इसी शिक्षा व्यवस्था ने चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि दत्ता, माधव, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी और तिरुवल्लुवर जैसे अनेकों महान विद्वानों को जन्म दिया’। इस शिक्षा नीति के अंतर्गत समावेशी, समान गुणवत्तापूर्ण और जीवन पर्यन्त शिक्षा की बात की गयी है तथा शिक्षा का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘‘शिक्षा से चरित्र निर्माण होना चाहिए, शिक्षार्थियों में नैतिकता, तार्किकता, करुणा और संवेदनशीलता विकसित करना चाहिए और साथ ही रोजगार के लिए सक्षम बनाना चाहिए’’। इसके साथ ही वैश्विक कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता और वैश्विक नागरिक के रूप में व्यक्ति निर्माण को भी विजन के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है। प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में चरित्र निर्माण है और हिन्दू जीवन वैश्विक कल्याण को अपना चरम लक्ष्य मानता है। इस प्रकार यह शिक्षा नीति भारत के अतीत और उसकी पूरी ज्ञान परम्परा को लेकर आगे बढ़ती है। इस शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह वर्तमान भारत को उसके अतीत से अविच्छिन्न रूप में स्थापित करती है। भारत अपने अतीत से पहली बार अंग्रेजों के आने के बाद विच्छिन्न होता है या कट जाता है। इसके पीछे अंग्रेजों की शिक्षा नीति और औद्योगिक-व्यावसायिक नीति थी। भारतीय शिल्प कला, भारतीय ज्ञान-विज्ञान सबसे भारत विच्छिन्न होता है। वस्त्र उद्योग, इस्पात उत्पादन की प्रविधि और जहाजरानी के ह्रास के साथ ही भारत की शिक्षा व्यवस्था भी अतीत से विच्छिन्न हो जाती है। धर्मपाल के शोध को यदि देखें तो 18 वीं शती में भारत की शिक्षा व्यवस्था अत्यंत उन्नत है। साक्षरता दर भी काफी अधिक है और स्त्री शिक्षा की स्थिति भी ठीक है। अंग्रेजों के आने के बाद की नई व्यवस्था में पारंपरिक हस्तशिल्प के ह्रास के साथ ही बेरोजगारी में वृद्धि होती है और भारत का खेतिहरपन बढ़ जाता है। साक्षरता में भी ह्रास होता है और एक सीमित शूद्र वर्ग तक ही शिक्षा की पहुंच हो पाती है। यह स्थिति स्वतंत्रता के बाद भी दिखाई पड़ती है। शिक्षा तक पहुंच हालांकि बढ़ती है, किन्तु पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान, स्थानीय शिल्प, कौशल आदि से शिक्षा संयुत नहीं होती। व्यक्ति जितना अधिक शिक्षित होता जाता है, अपनी ज्ञान परम्परा और जड़ से विच्छिन्न होता चला जाता है। श्रमशीलता के स्थान पर ह्वाईट कॉलर जॉब के प्रति रूचि बढ़ती रही है। पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मानविकी और विज्ञान आदि के साथ ही पारम्परिक ज्ञान-विज्ञान, हस्तशिल्प और व्यावसायिक शिक्षा को पाठ्यक्रम के अंतर्गत सम्मिलित किया जा रहा है। स्कूली शिक्षा से ही इन विषयों का अध्यापन सुनिश्चित किया गया है। इससे श्रम, शिल्प और कौशल के प्रति न केवल सम्मान का भाव बढ़ेगा, बल्कि देश, समाज, कला-संस्कृति सबको लेकर एक समग्र चेतना का निर्माण होगा। इस दृष्टि से यह शिक्षा नीति विद्यार्थियों के सहजबोध में परिवर्तन कर सकेगी। यद्यपि भारत और भारतीयता और औपनिवेशिक मानस में परिवर्तन की बात पहले की शिक्षा नीतियों में भी की गयी है। राधाकृष्णन आयोग द्वारा भी भारतीय संस्कृति के अनुरूप शिक्षा की वकालत की गयी थी, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हो सका। पंडित जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से शिक्षा-संस्कृति पर धीरे-धीरे भारत विरोधी वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व बढ़ गया। सैयद नुरूल हसन के शिक्षा मंत्री बनते ही यह प्रक्रिया और तेज हो गयी। नुरूल हसन कम्युनिस्ट पार्टी के कैडर थे और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक भी थे। उन्होंने सुनियोजित रूप से संस्थाओं का निर्माण किया और उन पर वैचारिक कब्जा कर लिया। इंडियन कौंसिल आॅफ हिस्टोरिकल रिसर्च की स्थापना भी उन्होंने की तथा इंडियन कौंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद) ‘आईसीएसएसआर’ के अंतर्गत विविध संस्थानों की स्थापना की। इस प्रकार शिक्षा और संस्कृति के तमाम संस्थानों पर भारत विरोधी वाम आधिपत्य स्थापित हुआ। नई शिक्षा नीति-1986 इस वैचारिक आधिपत्य के बाद आई। वर्ष 1968 में कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहासकारों ने इतिहास लेखन के सम्बन्ध में एजेंडे घोषित किये थे कि प्राचीन भारत की प्रशंसा नहीं करनी है, मुगल या इस्लामी अत्याचार का वर्णन नहीं करना है तथा मुगल काल की प्रशंसा करनी है। यह एजेंडा अब तक विद्यमान है, जिससे एक विशेष तरह की सेलेक्टिव धारणा अकादमिक जगत में बनी हुई है। इससे आत्महीनता की स्थिति आई है तथा अपने इतिहास और अपनी संस्कृति के प्रति एक नकारात्मक भाव पैदा हुआ है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस आत्महीनता और आत्मदया से उबरने में मदद करेगी और भारत का स्वत्व बोध इससे जागृत होगा। इससे साहित्य, कला-संस्कृति, एकेडेमिक्स, शोध सबमें एक मौलिक चिन्तन की सम्भावना विकसित होगी। अब तक हमने ज्ञान की सभी दिशाओं में पश्चिम का अनुवर्तन किया है, जिससे हमारे विश्वविद्यालय वैश्विक रैंकिंग में अच्छा स्थान प्राप्त कर पाने में सफल नहीं हो सके हैं। इस शिक्षा नीति के लागू होने से इस दिशा में भी परिवर्तन होगा। भारत के स्वत्व बोध का सबसे बड़ा उदाहरण है भारतीय भाषाओं के महत्व को स्वीकार करना। इस शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को जितना महत्व दिया गया है उतना पहले कभी नहीं दिया गया। त्रिभाषा सूत्र पहले भी लागू था, किन्तु प्राथमिक शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय और स्थानीय भाषा को अनिवार्य रूप से स्वीकार पहली बार किया गया ह। इसके साथ ही पालि, प्राकृत आदि भाषाओं को भी स्कूलों में विद्यार्थी ओपन क्रेडिट या दूसरे तरीके से पढ़ सकेंगे। लुप्तप्राय भाषाओं/ आदिवासी भाषाओं के संरक्षण की दृष्टि से भी यह नीति विशेष सजग है। भारतीय भाषाओं में अध्यापन के लिए अध्यापकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति, भाषा-संस्कृति एवं कला के अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति तथा पाठ्य पुस्तकों व साहित्य के निर्माण के लिए पुरस्कार के प्रावधान के कारण यह शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं के संरक्षण, प्रचार-प्रसार आदि अनेक दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण होगी। इससे वास्तव में भारतीय भाषाओं सम्मान प्राप्त होगा। भारतीय भाषाओं के लिए बहुविषयी भाषा विश्वविद्यालय का भी प्रस्ताव रखा गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक विश्वविद्यालय में पालि, प्राकृत एवं फारसी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की जाएगी। संस्कृत को गणित, विज्ञान तथा अन्य ज्ञानानुशासनों से जोड़कर मुख्य धारा में लाने की योजना है। प्रत्येक भाषा के लिए भाषा अकादमी का निर्माण, उनकी पांडुलिपियों के संरक्षण, अनुवाद आदि के द्वारा भारतीय भाषाओं को समृद्ध करने का प्रयास इस शिक्षा नीति द्वारा किया जाएगा। जहाँ कहीं आवश्यक हुआ है भारतीय ज्ञान-विज्ञान को अनुस्यूत करने का प्रयास किया गया है। मेडिकल शिक्षा में एलोपैथ के साथ आयुर्वेद भी पढ़ना आवश्यक किया गया है। इससे एक बेहतर चिकित्सक का निर्माण हो सकेगा तथा ज्ञान की परिधि का विस्तार भी हो सकेगा। पश्चिम केन्द्रित शिक्षा प्रणाली में भारतीय ज्ञान की समृद्ध परम्परा की उपेक्षा हुई है। यह शिक्षा नीति उस समृद्ध ज्ञान परम्परा के आलोक में नई ज्ञान प्रणाली को देखती है। इस प्रकार यह शिक्षा नीति प्राचीन को युगानुकूल और विदेशी को देशानुकूल बनाकर ग्रहण करने की प्रणाली पर आधृत है। यह भारत को उसके समृद्ध अतीत से जोड़ती है, आधारभूत संरचनाओं में परिवर्तन करती है तथा अधिक समावेशी व युगानुकूल है। भारत का भविष्य इसके क्रियान्वयन पर निर्भर होगा। यदि हम इसके क्रियान्वयन में सफल होते हैं तो निसंदेह भारत ज्ञान की एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में स्थापित होगा। समर्थ और सशक्त भारत के निर्माण के लिए इसका यथाशीघ्र क्रियान्वयन आवश्यक है।