त्वं स्वाछा त्वं स्वधा, त्वं ही वस्तुकार: स्वरात्मिका, स्वधा त्वं अक्षरे नित्ये तथा मात्रात्मिका स्थिता। के रूप में ब्रह्म देव की स्तुति भी दशार्ती है कि भारतीय समाज का मूल स्वरूप स्त्री सत्तात्मकता को सहज स्वीकारता है। स्त्री पुरूष समान सहभागिता व समतावादी दृष्टिकोण वेद, पुराण महाकाव्यों लगभग सभी मे दिखाई पड़ता है, जहां दोनों समान रूप से धन, परम्परा, प्रतिष्ठा, संतान, समाज व कानून के पालक व ‘प्रतिपालक’ हुआ करते थे। समयकाल परिस्थितियां आज हमें यहां तक ले आयी है कि जब हम अपने गौरवशाली पूर्व-अस्तित्व का स्मरण करें और वर्तमान को पुष्टि कर ले। स्त्री शिक्षा, स्वास्थ्य, सशक्तीकरण, सहभागिता जैसे शब्द आधुनिक काल में 1970 के दशक के सामाजिक राजनीतिक चिन्तन के दौर में मुखर हुए। भारत में मध्ययुगीन आक्रमणकारी दौर में अपनी सभ्यता-संस्कृति को बचाने के लिए,समाज ने नारी को आकान्ताओं के घोर अत्याचारों से सुरक्षित करने के उद्देश्य से गृहस्थी तक सीमित कर दिया। लम्बे चले इस दौर ने कहीं न कहीं नारी स्थिति को एक पिछड़ेपन के दौर में लाकर खड़ा कर दिया। आज अनेक प्रयासों, संवैधानिक अधिकारों के बाद भी अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां 75 वर्षों के बाद भी हम नारी की स्थिति को गौरवपूर्ण दर्जा नहीं दे पाए हैं। और यह सत्य है कि नारी संबंधी बढ़ते अपराधों का ग्राफ इसकी पुष्टि करता है कि कहीं न कहीं हमें ऐसे प्रयासों की आवश्यकता है जो नारी के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार कर सके। भारत में खेत से लेकर खदानों तक धरा से अंतरिक्ष तक महिलाओं की भागीदारी है लेकिन फिर भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक व पारिवारिक तथा राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर संतोषजनक व सम्मानजनक परिस्थितियों का निर्माण नहीं कर पाए। स्त्री सहभागिता का अब तक का प्रतिशत अति न्यून है। शिक्षा किसी भी राष्ट्र के विकास का एक आवश्यक सॉफ्टवेयर (आधारभूत तत्व) है। यही राष्ट्र के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक भाग्य को तय करता है। इन सब में देश की आधी आबादी और इस पर निर्भर शेष आधी आबादी का 25 प्रतिशत बाल आबादी कुशल मातृ शक्ति पर निर्भर है। नारी शिक्षा का विस्तार उन लक्ष्यों में से एक होना चाहिए, जिसे सरकारें भविष्य के विकास के मापदण्ड के रूप में माने। विकास का इच्छुक कोई भी राष्ट्र इसे अनदेखा नहीं कर सकता। नारी शिक्षा राष्ट्रों के लिए एक बहुमूल्य निवेश है। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात से बहुत सरकारी व सामाजिक प्रयास हुए और अधिक प्रयासों की आवश्यकता है। यहां पहले हमें शिक्षा या नारी शिक्षा को किस अर्थ में आगे बढ़ाना है इस पर स्पष्ट दृष्टि रखनी होगी। हमारा लक्ष्य मात्र अक्षर ज्ञान नहीं है न ही उस शिक्षा से है जो पाश्चात्य आवरण से ढकी है। हमें समझना होगा कि अत्यंत कुशलता से घर-परिवार का प्रबंध करने वाली,बिना विशिष्ट विशेषज्ञता के घर का बजट बनाते हुए मितव्ययिता से वित संचालन करने वाली,परिवार के सदस्यों में सामंजस्य बनाने, आवश्यकतानुसार क्रमानुसार, मौसम के अनुसार, धार्मिक, सामाजिक पारिवारिक कार्यों का कुशल प्रबंध करने वाली, बिना किसी विशेष प्रशिक्षण के रंगोली, माण्डने, चित्र बनाने वाली, बुनन, सिलने दक्ष, पाक कला में दक्ष आदि-आदि अनेक शिक्षाएं तो वह स्वाभाविक रूप से परम्परागत रूप से बिना किसी विद्यालय महाविद्यालय के ग्रहण कर लेती है। खेत खदान व अनेक क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिक महिलाएं बच्चों को गोद में लिए शारिरिक श्रम करती दिखाई पड़ती है। दैनंदिनी कार्यों में कुशलता से बुद्धि-विवेक का परिचय अनजाने में दे देती हैं तो फिर किस नारी-शिक्षा की आवश्यकता है। विश्व व भारत में अनेक शोध-सर्वे की रिपोर्ट दशार्ती है कि अशिक्षित वर्ग का एक बड़ा समूह भारत में है और उसमें भी नारी-शिक्षा स्कूली व महाविद्यालयीन भागीदारी में भारत पीछे है। नारी शिक्षा की सम्मानजनक स्थिति तक पहुँचने के लिए सामर्थ्यपूर्ण नियोजन, स्त्री स्थिति व प्रकृति आधारित रचनात्मक सहभागिता के प्रयासों की महती आवश्यकता है। नारी को शारीरिक-मानसिक अक्षम मानने वाले शायद भूल जाते हैं कि जो नारी एक भ्रूण को धारण कर विकसित कर सकती है वह शारीरिक-मानसिक अक्षम नहीं हो सकती। स्त्री-पुरूषक्षमता में भिन्नता उसी प्रकार है जैसे एक से अधिक नारी में परस्पर या पुरूष समूह मे परस्पर अलग-अलग क्षमता। ऐसे अनेकानेक क्षेत्र हैं,जहाँ नारी की विशिष्ट क्षमताओं का गुणों का उपयोग किया जा सकता है। नारी शिक्षा ऐसे अनेक क्षेत्र हैं,जहाँ अपना भाग देकर राष्ट्र समृद्धि में योगदान दे सकती है। इसमें सबसे पहला व महत्वपूर्ण क्षेत्र है आर्थिक विकास। आज किसी भी देश की मजबूत स्थिति,विश्व में उसका भार उसकी अर्थव्यवस्था से आंका जाता है। महिला-शिक्षा महिला को आर्थिक आत्मनिर्भर बनाकर व्यक्तिगत आय और देश की समग्र आय में बढ़ोतरी कर सकती है। उसके परिवार प्रबंध की कुशलता को ऐसे पाठ्यक्रम में संयोजित किया जा सकता है, जिसमें व्यावसायिक उपक्रम,व्यापारिक व तकनीकी संस्थानों में सहभागिता बढ़ाई जा सके, जो अभी एक प्रतिशत से भी कम है। आर्थिक सशक्तीकरण देश के गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को भी पूर्ण कर पायेगा। नारी शिक्षा का दूसरा लाभ स्वास्थ्य सेक्टर को मिलेगा। यहाँ महिला स्वयं व बच्चे के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहेगी और हम चाइल्ड मॉरटेलिटि रेट कम कर पाएंगे। एक स्वस्थ संतति,स्वस्थ युवा के रूप में बड़े होकर युवा शक्ति बनेगी। इसमें हमें कन्या शिक्षा बढ़ाते हुए कन्या स्कूली व महाविद्यालयीन शिक्षा क्षेत्र को कन्याओं की पहुँच में और सुरक्षित कैम्पस के विकास की आवश्यकता है। यही शिक्षा आगे चलकर एक और क्षेत्र में सहयोगी होगी, जो आज भारत के लिए सर्वाधिक आवश्यक है, वह है जनसंख्या नियंत्रण। अनेक सर्वे यह दर्शाते हैं कि शिक्षित लड़कियाँ जनसंख्या वृद्धि के प्रति जागरूक हैं व शिक्षित महिलाओं में बच्चों की संख्या नियंत्रित है। नारी शिक्षा के लिए एक और क्षेत्र है,जो प्राय: अनदेखा रह जाता है वह है कृषि क्षेत्र प्रत्येक कृषि प्रधान परिवार कृषि कार्यों में महिला का योगदान लेता है। इन्हें ध्यान में रख तैयार पाठ्यक्रम की आवश्यकता हैं। ग्रामीण महिला किसी न किसी रूप में कृषि कार्यों से जुड़ी है। एक बहुत बड़ी महिला आबादी है, जिसे कृषि क्षेत्र की शिक्षा की ओर सरलता से प्रवृत्त किया जा सकता है। यह कृषि को उन्नत बनाने के साथ-साथ कृषि आधारित सह उद्योगों को बढ़ावा देकर स्वयं व भारत की कृषि आय में सहयोग कर सकती हैं। हम मानते हैं कि स्त्री-पुरुष गाड़ी के दो पहिये हैं, गाड़ी चालने के लिए दोनों का समभाव जरूरी है। हम यह भी ध्यान रखें कि भारत में हम शिक्षा को साधन नहीं मानते हैं यह साध्य है। क्योंकि यदि शिक्षा को साध्य लिया जाएतो जीवन स्वत: सध जाएगा।
नास्ति विद्यासमं चक्षुनास्ति मातृ समोगुरु
अर्थात संसार में विद्या के समान कोई नेत्र नहीं और माता के समान कोई गुरु नहीं। हम सभी सामर्थ्यवान गुरु व शिष्य बने। इसी संकल्प के साथ आज के युग में संचार कृति के इस युग में जहाँ चंद क्षणों में सूचनाएँ व्यापक स्तर पर विश्व स्तर पर प्रचारित प्रसारित हो जाती हैं,वहाँ अशिक्षा को दूर करना कठिन नहीं है,केवल सही दिशा में प्रयासों की आवश्यकता है,प्रयास भी होते हैं,लेकिन अनेक बार गलत दिशा में चले जाते हैं हम।
– बात सहभागिता की करते हैं,बात अधिकारों की ओर बढ़ जाती है।
– प्रयास स्वतंत्रता के होते हैं संदेश स्वच्छंदता का बढ़ जाता है।
-हम बेहतर परिस्थिति व पर्यावरण की करते हैं बहस पहनावे की स्वतंत्रता की होने लगती है।
– हम प्रकृति बदलना चाहते हैं बात आकृति बदलने पर ठहर जाती है।
अत: प्रयास सही दिशां में मजबूती से होना चाहिए। सशक्तिकरण के साथ सहभागिता हो,आत्म निर्भरता के साथ सामंजस्य हो। यह परिवार तोड़ने की कीमत पर नहीं होना चाहिए, क्योंकि परिवार राष्ट्र की प्राथमिक इकाई है। यह कमजोर होगा तो राष्ट्र की नींव भी कमजोर होगी। हमें योग्यता को उचित अवसर देकर सामर्थ्यवान का साथ देना होगा चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बेटा हो या बेटी या बहू। ऐसा ही प्रयास हम लेबर मार्केट में भी कर सकते हैं। महिला मजदूरों को स्किल ट्रेनिंग देकर सक्षम श्रमिक के रूप में प्रशिक्षित किया जा सकता है, जो इस क्षेत्र में जीवन स्तर बेहतर बनाएगा। शिक्षा का पाठ्यक्रम कुछ स्तरों में विभाजित हो। प्रौढ़ शिक्षा, कृषि व लेबर वर्ग की ऐसी अशिक्षित महिलाओं के लिए पाठ्यक्रम पृथक हो, जो अ आ या क ख व्याकरण से शुरू न होकर संबंधित कार्य की जानकारी से साथ शुरू हो स्किल बढ़ाने वाला होगा तो ही यह वर्ग उसमें रूचि लेगा। शिक्षित महिलाओं का यह वर्ग राजनीतिक सहभागिता को भी बढ़ाएगा व मतदान व्यवहार को भी प्रभारित करेगा। इन प्रयासों के लिए स्कूली शिक्षा स्तर पर व कॉलेज स्तर पर निरंतर विश्लेषण होना आवश्यक है। साथ ही तकनीकी व चिकित्सकीय क्षेत्र में महिला शिक्षकों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। सरकारी नौकरियों में स्वत: ही प्रतिशत बढ़ता चला जाएगा, क्योंकि अनेक ऐसे उदाहरण व शोध हैं, जो यह प्रदर्शित करते हैं कि यदि परिवार का सहयोग है, सुविधा है, तो सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में सफलता का प्रतिशत बढ़ रहा है।