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क्या है लैंगिक समानता

डॉ. अनामिका बाजपेई

ड्रेक्सेल विश्वविद्यालय और टेम्पल विश्वविद्यालय, फिलाडेल्फिया, संयुक्त राज्य अमेरिका में वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया है। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन और न्यूरोसाइंस सोसाइटी की सदस्य है, वैज्ञानिक अनुसंधान के अलावा, भारतीय-अमेरिकी बच्चों को भारतीय संस्कृति और दर्शन के बारे में सिखाने के लिए सामाजिक गतिविधियों में शामिल।

यूनिसेफ के अनुसार, लैंगिक समानता का अर्थ है कि ’महिलाओं और पुरुषों, लड़कियों और लड़कों को समान अधिकारों और स्वतंत्रताओं, संसाधनों, अवसरों और सुरक्षा का आनंद लेना चाहिए। हालांकि, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि लड़कियां और लड़के, या महिलाएं और पुरुष समान हों, या उनके साथ बिल्कुल एक जैसा व्यवहार किया जाए।’ अगर हम संख्या की बात करे तो भारत में जन्म के समय लैंगिक भेदभाव का उच्चतम स्तर है। जन सांख्यिकीय आंकड़ों के 2017 के विश्लेषण के अनुसार, भारत में 2050 में भी दक्षिण एशिया में सबसे खराब लिंगानुपात बना रहेगा। 2011 के अनुसार, भारत में लड़का और लड़की का अनुपात 1000: 918 हैं जो की बहुत शर्मनाक और सोचनीय विषय हैं। भारतीय संस्कृति में लैंगिक असमानता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि यह सामान्य हो गई है।  भारत में लैंगिक समानता सतत विकास से जुड़ी हुई है और मानव अधिकारों को साकार करने के लिए महत्वपूर्ण है। लैंगिक समानता का प्राथमिक उद्देश्य एक ऐसा समाज है जिसमें महिलाओं और पुरुषों को जीवन के सभी चरणों में समान अवसर, निष्पक्षता और दायित्वों का आनंद मिलता है। पुरुष और स्त्री के बीच समानता तब होती हैं जब दोनों को ही सत्ता और प्रभाव बराबर से मिले हो।  वे तभी समान हैं यदि उनके पास समान अवसर, वित्तीय स्वतंत्रता, शिक्षा तक समान पहुंच, नौकरी और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, रुचियों, प्रतिभाओं को विकसित करने के समान अवसर है। राष्ट्र और विकास रणनीतियों के भीतर, लैंगिक समानता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह महिलाओं को ऐसे निर्णय लेने में सक्षम बनाती है जो उनके समग्र स्वास्थ्य और उनके जीवनसाथी और परिवारों को प्रभावित करते हैं। भारत में लैंगिक समानता सभी दृष्टिकोणों से विकसित होने की समय की आवश्यकता है। हालांकि, यह स्वीकार करना आवश्यक है कि जहां लैंगिक असमानता मौजूद है, वहां महिलाओं को आमतौर पर निर्णय लेने और आर्थिक और सामाजिक संसाधनों तक पहुंच में बहिष्कृत या वंचित किया जाता है।

जिस राष्ट्र ने लैंगिक समानता देखी है, उसी ने एक विकसित राष्ट्र भी  देखा है। एक समृद्ध राष्ट्र के लिए, भारत में लैंगिक समानता एक बहुत ही आवश्यक घटक है। इसलिए, भारत में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना महिला सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

हमे ये सोचना चाहिए –

मेरे घर में चाहे लड़का हो या लड़की सबको पढाई का पूर्णाधिकार है, फिर लड़की चाहे जो भी विषय लेकर पढ़ना चाहे, क्योकि विश्व को और इंद्रा नूई (पूर्व पेप्सिको सीईओ), कमला हैरिस (अमेरिका वाईस प्रेजिडेंट), जानकी अम्माल (प्रथम भारतीय वैज्ञानिक), डॉ. अदिति पंत (1983 में अंटार्कटिका जाने वाली पहली भारतीय महिला) की आवयश्कता है। लड़का हो या लड़की खाना बनाना, घर के सभी नित्य कार्य सबको आना चाहिए। क्योंकि ये सारे नित्य कर्म हमारे जीवन व्यापन का साधन है इन्हे हम महज स्त्री-पुरुष से कैसे जोड़ सकते है और ये हर महिला का कर्त्तव्य है की चाहे लड़का हो या लड़की दोनों को ही अपने दिन प्रतिदिन में प्रयोग होने वाली कार्यो में कुशल हो। लड़का लड़की दोनों को घर के अंदर बाहर के कार्यो का ज्ञान होना चाहिए फिर वो चाहे संपत्ति या कार ही खरीदना क्यों ना हो ना। अगर आप घर के लड़को को घर के बड़े निर्णय में सम्मिलित करते हैं तो बेटियों को भी ये सीखना चाहिए उन्हें अवगत करना चाहिए। जिससे आगे चलकर घर की बेटी अपने निर्णय खुद ले सके उसे किसी दूसरे के ऊपर निर्भित नहीं होना पड़े। आखिर छोटे छोटे निर्णय लेने से ही बड़े निर्णय लेने का आत्मविश्वास मिलता हैं। एक माँ अपने बच्चे को अंदर-बाहर से जानती है। हमे अपने लड़को को सीखना होगा की किसी भी लड़की का अपमान ना करे, उसके लिए अपशब्दों का प्रयोग ना करे। क्योंकि माँ अपने लड़के की पहली गलती सबसे पहले जानती है। जैसे माँ अपने लड़के की और बुरी आदतों को सुधरती है। स्त्रियों को असम्मानित करना, अपशब्द कहना ये भी बुरी आदते है और अगर बचपन में ठीक हो तो आगे चलकर नासूर बनकर पूरे परिवार और समाज को विकृत करती हैं। जैसा की कहा जाता है की बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते है और माँ उन्हें कैसा भी रूप दे सकती है।   ईश्वर ने नारी को शक्ति और क्षमता दी है बच्चे के पालन पोषण की इसीलिए एक माँ समाज का उत्थान भी कर सकती है एक जिम्मेदार नागरिक बनाके या समाज का पतन भी। नारी अपनी शक्ति को पहचानो और उससे कार्यरत करो  चाहे लड़का हो या लड़की अपनी बात रखने का अधिकार सभी को होना चाहिए और माता पिता होने के नाते दोनों को सुनना आपका फर्ज हैं। लड़कियों के मन में बहुत सारे सुझाव होते हैं जिन्हे माता पिता सुनना भी नहीं चाहते हैं क्योकि वो लड़की हैं। लड़कियों को हमेशा मौन रहना सिखाया जाता हैं।  दूसरों के निर्णय को थोपा जाता हैं। माता पिता चाहे तो घर की लड़की को भी उतना ही मजबूत और आत्म विशवास से परिपूर्ण बना सकते हैं जितना वो लड़को को बनाते हैं। बस थोड़ी सी सोच और उद्देश्य बदलने की जरूरत हैं।  आपको क्या पता हो सकता हैं आपकी लड़की ही आपके खानदान का नाम रोशन करे।  उदारहण की सोचे तो ना जाने कितने ही सफल महिलाये मिलेंगी। 

मेरे विचार से

आज के समय में महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता एक बहुत बड़ा मुद्दा है। वर्तमान में 50 अमेरिकी राज्यों और 118 देशों में 3,300 पंजीकृत गर्ल अप क्लब हैं। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है इस महाविवादित विषय की शुरूवात एक छोटे से पल से होती है जब हम अपने घर में ये बोलते है की- ‘वो लड़का है और वो कर सकता है लेकिन तुम नहीं कर सकती है क्योकि तुम लड़की हो तुम्हे दूसरे घर जाना है’।  क्या कभी आपने सोचा हैं की वो छोटी सी लड़की जो हमेशा अपनी क्लास में फर्स्ट आती थी वो उसी तरह पूरी जिंदगी फर्स्ट क्यों नहीं आती रहती।  इसका कारण केवल एक ही हैं की उसे अवसर नहीं दिया गया। परिवार और परिवार की जिम्मेदारी के नाम पर उसे अवसर छीने जाते हैं।   क्या परिवार को चलाने की जिम्मेदारी केवल महिलाओ की हैं। क्या पुरुष की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती अपने परिवार, माता पिता, बच्चो के पालन पोषण और आवश्यकता पूर्ती के प्रति?  मेरे विचार से जब तक हम लड़कियों को केवल इस उद्देश्य से पालेंगे की उन्हें दूसरे के घर जाना है, दूसरे के लिए खाना बनाना है तब तक हम महिला सशक्तिकरण में सफल नहीं हो पाएंगे। हमे घर की लड़कियों को पालने का उद्देश्य बदलना चाहिए।

भविष्य की दिशाएं

बहुत सारी बाधाओं के बावजूद, हम उस मुकाम तक पहुँचने में सक्षम हैं जहाँ बहुत सारी लड़कियाँ स्कूल, कॉलेज और कार्यालयों तक पहुँची हैं, लेकिन हमें अभी भी लंबा रास्ता तय करना है। यूनिसेफ दक्षिण एशिया के अनुसार, सदी के मोड़ पर, लड़कों की तुलना में दक्षिण एशिया में स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या 17 मिलियन अधिक थी। आज, यह लड़कियों के लाभ के लिए, लगभग समानता के साथ उलट गया है। फिर भी अभी भी 45 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर हैं। उडश्कऊ-19 ने लड़कियों के लिए महत्वपूर्ण शेष चुनौतियों के साथ-साथ उन जोखिमों को उजागर किया है जो इस प्रगति को रोक सकते हैं। लड़कियों के लिए, शिक्षा हमेशा रोजगार में तब्दील नहीं होती है, कई लोग अपना भविष्य घर में, अवैतनिक काम में, या अनौपचारिक क्षेत्र में पाते हैं। लड़कों की तुलना में एशिया में लड़कियों के रोजगार, शिक्षा या प्रशिक्षण में नहीं होने की संभावना (10:1 अनुपात) अधिक है, जहां दक्षिण एशिया दुनिया में सबसे ऊपर है। अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगी कि लड़कियां रूढ़ियों और बहिष्करण से उत्पन्न सीमाओं और बाधाओं को तोड़ रही हैं और एक ऐसी दुनिया का निर्माण कर रही हैं जो उनके और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रासंगिक हो। इन्हें बस हमारे और आपके सहारे और मार्गदर्शन की जरूरत है।