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भारत में महिला आन्दोलन

डॉ. गीता सिंह

महिला आन्दोलन एवं नारीवाद दो ऐसे शब्द हैं, जिनका प्रयोग समानार्थक रूप में होता रहता है। भारतीय महिलाओं को काफी ऊँचा स्थान प्राप्त है। अपनी संस्कृति त्याग, बलिदान व स्वभाव के कारण भारत में नारी को माँ के रूप में देखा जाता है। महिलाओं के द्वारा महिलाओं के साथ होने वाले शोषण, उत्पीड़न और अत्याचार के विरुद्ध चलाये जाने वाले आन्दोलन को ही महिला आन्दोलन कहा जाता है। भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में विभिन्न काल में परिवर्तन होता रहा है। उत्तर वैदिक काल से ही महिलाओं की स्थिति में गिरावट आना शुरू हो गया था, परिवार तथा समाज में महिलाओं की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति तत्कालीन धार्मिक मान्यताओं, सामाजिक मूल्यों द्वारा पहले ही निर्धारित होने लगी थी, स्त्री का पूरा जीवन पुरुष के अधीन कर दिया गया था। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध, दहेज प्रथा, तलाक पर प्रतिबंध आदि के माध्यम से महिलाओं की स्थिति धीरे-धीरे बहुत कमजोर होती गयी। भारतीय समाज में 19वीं शताब्दी सुधार आन्दोलन के लिए जानी जाती है। 19वीं शताब्दी में कई महिला आन्दोलन महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए किए गए थे। इस आन्दोलन से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार होना आरम्भ हुआ था। बीसवीं शताब्दी में महिलाएँ राष्ट्रीय आन्दोलन में पहली बार शामिल हुई थीं। राष्ट्रीय आन्दोलन के माध्यम से महिलाओं को कुछ सामाजिक और आर्थिक अधिकार मिलने से महिलाओं ने पुरुष के साथ संघर्ष करना प्रारम्भ कर दिया था। महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन होने से समाज में उनकी अलग पहचान होने लगी। 

भारत की सचेत नारी जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाने लगी। राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया, ब्रिटिश राज दरबार ने जब झांसी का क्षेत्र अपने साम्राज्य में मिला लिया गया तो रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों के खिलाफ 1857 के संघर्ष में मोर्चा खोल दिया। वहीं लखनऊ में बेगम हजरत महल भी अंग्रेजों से तब तक संघर्ष करती रही, जब तक उनकी पूरी शक्ति नहीं गई। उन्होंने अन्य विद्रोहियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष किया। कांग्रेस सरकार की स्थापना के समय से ही इसमें कई महिला नेत्री सक्रिय रहीं। एनी बेसेंट एवं सरोजिनी नायडू जैसी महिलाओं ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व किया। एनी बेसेंट के नेतृत्व में भारत में होमरूल आन्दोलन भी चलाया गया। इस आन्दोलन की मुख्य माँग थी- स्वशासन। एनी बेसेंट, सरोजनी नायडू एवं श्रीमती हीराबाई टाटा ने 1919 में संयुक्त प्रवर समिति के समक्ष भारतीय महिलाओं के लिए मताधिकार की माँग की, जिसके परिणामस्वरूप इसी साल उन्हें मताधिकार प्राप्त हुआ। भारत में महिला आन्दोलन ने जागृति और सक्रियता के संदेश को फैलाया। जैसे- सती प्रथा के खिलाफ आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, वन के प्रति महिलाओं की आवाज, समाज में धर्म सुधार आन्दोलन, तेभागा आन्दोलन, यौन-उत्पीड़न आन्दोलन आदि। महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिये अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी जरूरी है। इसके अतिरिक्त कई पत्र प्रकाशन केन्द्र, पुस्तकें इत्यादि भी महिलाओं की क्रान्ति, समस्याओं, मुद्दों और निवारण के साथ शुरू की गईं, जिसमें मुख्य हैं:- मधु किश्वर की मानुषी, मशढी जनरल बैजा, कलकत्ता से बंगाली जनरल आहिल्या, सबला सचेतना प्रतिवादी चेतना, बंगलौर से वूमेंस वॉइज, पुणे से स्त्री इत्यादि। इस प्रकार हम भारत में महिलाओं के संर्दभों के मुद्दे, आन्दोलन उनके अधिकार अब नजरअंदाज नहीं कर सकते। आगे आने वाले समय में महिलाएँ पूरे सम्मान अधिकार और गरिमा की अधिकारी हैं और ये समाज को प्रगतिशील पथ पर अग्रसर भी करेगीं। अत: महिलाओं के लिये शिक्षा एवं आरक्षण जरूरी है। भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिये धार्मिक कारकों जैसे- परम्पराओं, रूढ़ीवादी पुराने रीति-रिवाज आदि में आवश्यक सुधार जरूरी है। वस्तुत: भारत में महिला आन्दोलन का कभी भी एक संगठित एवं सार्वभौमिक रूप नहीं दिखाई देता है, बल्कि कई हिस्सों मे बिखरा है, ये बिखरे हुये आन्दोलन कई तरह के मुद्दों पर आधारित हैं। घरेलू हिंसा, यौन प्रताड़ना, बलात्कार आदि के साथ-साथ पर्यावरणीय एवं मानव अधिकार से सम्बन्धित विभिन्न आन्दोलन इस बिखराव का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।