हूणों के बाद कारकोटा फिर उत्पलों ने कश्मीर पर राज्य किया। शिव के अनुयायियों की संख्या कश्मीर में अच्छी खासी थी। पुराणों के अनुसार माना जाता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता में शिव प्रमुख देवता थे। लगभग ऐसी ही मान्यता के चलते नौ वीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक शैव दर्शन यहाँ उत्थान पर रहा।
कश्मीर शैवदर्शन में काली के द्वादश रूप का बहुत महत्त्व है । द्वादश काली के नाम इस प्रकार हैं: सृष्टि काली, रक्त काली, स्थिति नाश काली, यम काली, संहार काली, मृत्यु काली, भद्र काली, मार्तण्ड काली, परमार्क काली, कलाग्नि-रुद्र काली, महाकाल काली, महाभैरव चण्डोग्रकाली। ‘श्रीक्रमसद्भाव भट्टारक’ आगम में भद्रकाली को रुद्रकाली के नाम से व्यपदिष्ट किया गया है।
आचार्य अभिनवगुप्त अपने ‘तन्त्रालोक’ के चतुर्थ आह्निक में काली के स्वरूप की विशुद्ध चर्चा किया हैं । आचार्य अभिनवगुप्तपाद कलन के पाँच अर्थ करते हैं- क्षेप, ज्ञान, प्राप्ति, संख्यान, एवं नाद। उनका मानना है कि ये अर्थ कलन की पाँच विधाओं के प्रतीक हैं एवं इस पञ्चविध कलन-व्यापार के कारण ही परम शक्ति को देवी, काली या कालसंकर्षिणी कहते हैं। काली शब्द कल् धातु से बनता है। कल् धातु का एक अर्थ नाद करना भी है। इस अर्थ में काली का अर्थ इस प्रकार है: जो अप्रतिहता पराभगवती निर्विकल्प तथा सविकल्प समग्र ज्ञान का परामर्श पञ्चकृत्य (सृष्टि-स्थिति-संहार-पिधान-अनुग्रह) के रूप में करती है, पश्चात उस संपूर्ण ज्ञान को अपनी ही स्वरूप-परामर्शात्मिका तुरीयसत्ता में लीन कर लेती है, वह काली है।
आचार्य अभिनवगुप्त ही एकमात्र ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने भारतीयता के प्रत्येक आंतरिक आयामों की उच्छिन्न परम्परा के बीच के स्थान को भरा है, उसे लोकानुकूल रूप से तर्कपूर्ण ढंग से व्याख्यायित किया है, उनमें शोधन किया है, नवीन,मौलिक उद्भावनाएँ दी हैं, और बिखराव को समेट कर एक सूत्र में उपस्थापित किया है और भारत को एक विश्वविजयी दर्शन दिया है। आचार्य अभिनवगुप्तपाद ने समग्र भारतीय दर्शन, साहित्य-शास्त्र, नाट्य-शास्त्र, संगीत, साधनाविधि जैसे सभी ऐसे विषय जिनसे किसी संस्कृति का निर्माण व परिचालन होता है, उन सब पर अपनी विशद लेखनी चलाई है।
आचार्य अभिनवगुप्तपाद ने 50 से अधिक ग्रन्थ रचे। उन्होंने जो भी टीकाएँ लिखीं, वो अपने आप मे एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन गए। उन्होंने समस्त 64 आगमों को एक-वाक्यता प्रदान करते हुए, उनमें सामरस्य करते हुए एक विशालकाय ग्रन्थ ‘तंत्रालोक’ की रचना की, जिसे ‘अशेषआगमोपनिषद’ कहा जाता है, यह विशालकाय ग्रन्थ भारत की सम्पूर्ण साधनात्मक प्रक्रियाओं को अपने में समेटे हुए एक समुद्र की तरह लहराता है, ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम इस समुद्र का अवगाहन नहीं करते हैं। तंत्रालोक में भारतीय साधना, रहस्य, कला सिद्धान्त ,दर्शन आदि का अत्यंत सहज विवेचन है। कश्मीर शैवदर्शन जिसे त्रिक या प्रत्यभिज्ञा दर्शन भी कहते हैं, वे उसके प्रतिष्ठापक आचार्य हैं। दार्शनिक प्रतिपादन में आचार्य अभिनव भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के महानतम दार्शनिकों में अग्रगण्य हैं। रस सिद्धांत पर उनके मत की कीर्ति पताका को भला कौन नहीं जानता। इस बात पर काव्यप्रकाश के टीकाकार मणिक्यचन्द्र का बहुत सुन्दर पद्य भी मिलता है। साहित्य, दर्शन, संगीत, वास्तु के महानतम आचार्यों ने उन्हें अपने अपने ग्रन्थ में तत् तत् शास्त्रों का ज्ञाता मानकर उन्हें नमन किया है। जिस नाट्यशास्त्र को लेकर विश्व मे अपने कलात्मक प्रयोग और उनकी दार्शनिकता को लेकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभूत करते हैं,उसका श्रेय आचार्य अभिनवगुप्त को है, क्योंकि नाट्यशास्त्र को आचार्य ने भारतीय संस्कृति के साहित्यिक और कलात्मक पक्षों को मूल रूप में हमारे सामने रख दिया है। इस आधुनिक समाज में भारतीय कलाओं और भारतीय सौन्दर्य चेतना को समझने के लिए अभिनवगुप्तपाद को पढ़ना समझना आज भी आवश्यक हैे। ’’