सबसे पहले हमें अष्टांग योग को अपने जीवन से जोड़कर देखना होगा। अष्टांग योग में वर्णित आठ अंग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। अष्टांग योग एक प्रकार से अपने जीवन को बेहतर तरीके से जीने का एक माध्यम है। अष्टांग योग में यम, नियम से शुरूआत करके यानी अपनी इंद्रियों की शुद्धि रखते हुए उनको अपने बस में रखते हुए आसनों से स्थिरता प्राप्त करते हुए प्राणायाम से निरोगी काया और बाहरी मन को अंदर की ओर करते हुए प्रत्याहार की स्थिति को प्राप्त करना और एक लक्ष्य को चुनना है। जिस प्रकार से हम एक बच्चे का भविष्य तय करते हैं कि भौतिक रूप से कि उसे किस क्षेत्र में जाना है, उसे इंजीनियर, डॉक्टर, टीचर, साइंटिस्ट में से क्या बनना है, उसी प्रकार यह हमारा तंत्र है और इसे लेकर भी हम तय करते हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक रूप से हमें यह चुनना होगा कि हमारे जीवन का परम लक्ष्य क्या है। परम लक्ष्य है शरीर और मन को शुद्ध रखते हुए यम-नियम के द्वारा आसन प्राणायाम से निरोगी रखते हुए, स्थिरता प्राप्त करते हुए, प्रत्याहार की स्थिति को प्राप्त करते हुए, इंद्रियों को संयमित रखते हुए तनाव मुक्त रखते हुए, अपने आप को, एक लक्ष्य को हमने चुना, चाहे वह गुरु हैं, ईश्वर नाम जप है, माता-पिता की सेवा है। सामाजिक सेवा है, एक लक्ष्य हमने चुना जो हमें आत्मशक्ति देता है, आत्म बल देता है, आत्मज्ञान देता है और हमें मोक्ष की ओर ले जाता है। आप कहेंगे कि मोक्ष क्या, मोक्ष का मतलब है आत्म संतुष्टि-प्रसन्नता और यह तभी प्राप्त होगा जब इसे हम चुनेंगे, उस चुनने की राह को ही आध्यात्मिकता कहते हैं और धारणा कहते हैं। उसी प्रकार से जैसे बालक अपने कोर्स को चुनता है, अपनी पढ़ाई को चुनता है और फिर उस पर मन लगाकर पढ़ाई करता है। लगातार कुछ सालों तक इसी प्रकार से ईश्वर की राह में आध्यात्मिकता की राह में हम लोग एक नाम या जप चुन करके उस पर लगातार ध्यान करते हैं। आध्यात्मिक जीवन को उन्नत करने के लिए और जब यह ध्यान परिपक्व होने लगता है तो जिस प्रकार से बालक पढ़ते-पढ़ते बीए, एमए और डॉक्टरेट की डिग्री ग्रहण करता है, उसी प्रकार से आध्यात्मिक जीवन में समाधि के रूप में व्यक्ति आध्यात्मिक सुख को प्राप्त करता है। मानसिक शांति को प्राप्त करता है, आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करता है, आत्म संतुष्टि, आत्मबल, सहजता-सकारात्मकता को प्राप्त करता है और ऐसी ऊर्जा को प्राप्त करता है, जिसमें उसे महसूस होता है की आत्मा का परमात्मा से मिलन हो गया। वह क्षणिक सुख उसको यह एहसास दिलाता है कि मैंने मोक्ष को पा लिया, मैंने ईश्वर को पा लिया। जरूरी नहीं कि ईश्वर के साक्षात दर्शन होंगे, ईश्वर को तो अनुभव किया जाता है; वह इस प्रकृति में हमारे अंदर और बाहर सभी जगह मौजूद है और उसको महसूस करने की जरूरत है। पेड़, पौधे, पत्ते, नदी, तालाब, बहते झरने सब के कार्य अपने समय पर निर्धारित हैं, सूर्य और चंद्र का आना और जाना सब निर्धारित है।
प्रकृति के अनुसार ईश्वर यानी कि वह अनंत शक्ति हर जगह है, उसे जानने और महसूस करने की जरूरत है ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ यह कहा गया है कि जो ब्रह्मांड में है वही हम यानी इस शरीर में भी है; यह एक धागा है जो आत्मा का परमात्मा से मिलन करता है और उससे हम जुड़े हुए हैं। और योग का मतलब भी जोड़ना ही होता है। आइए इस योग को समझें, अपने आप को समर्पित करें।