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“कैथी'' लिपि के लुप्त होने की कहानी

ध्रुव कुमार

लेखक परिचय:
विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग, पूर्वोत्तर रेलवे महाविद्यालय,
सोनपुर, सारण  

“कैथी” लिपि अपने जीवन-क्रम में स्वर्णकाल से गुजर चुकी, एक ऐतिहासिक लिपि है। शेरशाह ने 1540 ई- के एक सनद में अरबीक लिपि (शिकस्ता लिपि) के साथ-साथ कैथी लिपि में शासकीय अभिलेख लिखने की बात कही थी। जो मुगल काल में भी लागू रही| ब्रिटिश काल में तो इसे राजकीय लिपि का दर्जा प्राप्त था। कैथी लिपि एक महत्त्वपूर्ण, लोकप्रिय जन-जन की लिपि थी, जो भारत के एक बड़े भू-भाग मे प्रयोग में लाई जाती थी। अध्ययनों से ज्ञात होता है कि, अवधी, भोजपुरी, मगही, मैथिली, बज्जिका, अंगिका, सूर्यापुरी, बंगला, उर्दू, हिन्दी, बिकानेरी भाषाएं कैथी लिपि में ही लिखी जाती थी। पूरे उत्तरी भारत की जो भी क्षेत्रिय भाषा रही हो उसकी लिपि कैथी ही थी। आज वही लिपि सरकारी उदासीनता के कारण हाशिए पर ही नहीं, बल्कि काल के अतल गहराइयों में दब-सी गई है। किंग क्रिस्टोफर आर- ने अपनी पुस्तक “वन लैंग्वेज, टू स्क्रिप्ट’ (1995) में कैथी लिपि के सम्बन्ध में लिखा है  कि- “उत्तर-पश्चिम प्रांत बिहार सहित अवध ( आज का उत्तर प्रदेश) में दूसरी लिपि के तौर पर इसका उपयोग प्रशासनिक, निजी और कानूनी बातें लिखने के लिए किया जाता था। ” डा. ग्रियर्सन ने कैथी लिपि को बिहारी लिपि की संज्ञा देते हुए 1881 ई. में ‘ए हैंडबुक टु कैथी करेक्टर’ नामक पुस्तक का प्रकाशन अंग्रेजी भाषा में किया। यह कैथी लिपि पर किसी भी भाषा में लिखित प्रथम पुस्तक थी। उसमें ग्रियर्सन लिखते हैं कि- “ कैथी को अपना नाम कायस्थ शब्द से मिला है, जो उत्तर भारत का एक समाजिक संगठन है, जिसमें पारंपरिक रूप से लेखक, मुंशी, और लिपिक शामिल हैं।”  हॉर्नले, (1880:1-) ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि – “कैथी नाम की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द “कायस्थ’ से हुई है, जो नाम सूचित करता है उत्तरी भारत के व्यावसायिक लिपिक समुदाय का।“

उत्पत्ति एवं प्राचीनता: -

जिस लिपि में अशोक के लेख हैं, वह प्राचीन आर्य ब्राह्मनों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है | ब्राह्मी लिपि से भारत की द्रविड़ लिपियों को छोड़कर शेष समस्त लिपियाँ विकसित हैं| मौर्ययुगीन ब्राह्मी लिपि पूर्णतः विकास कर चुकी थी। मात्र द्वित्व व्यंजन इसमें नहीं लिखे जा सकते थे, ऐसा डॉ. बी.डी. पाठक ने अपने भाषा विज्ञान की पुस्तक में लिखा है। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अपने भाषा विज्ञान की पुस्तक में लिखा कि- भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी का प्रयोग पांचवीं सदी ई. पू. से लेकर लगभग 350 ई. तक होता रहा। इसके बाद इसकी दो शैलियों का विकास हुआ- प्रथम उत्तरी शैली और दूसरी दक्षिणी शैली। उत्तरी शैली से चौथी सदी में गुप्त लिपि का विकास हुआ जो पांचवी सदी तक प्रयुक्त होती रही- गुप्त लिपि से छठी सदी में कुटिल लिपि विकसित हुई जो आठवीं सदी तक प्रयुक्त होती रही। कुटिल लिपि का विकास जिस गुप्त लिपि से हुआ है, उसका काल ईस्वी की चौथी-पाँचवी सदी के आस-पास है। डॉ. उदयनारायण तिवारी का मत है कि कैथी लिपि कुटिल लिपि से प्रसूत है । नायक ने अपने अध्ययनों के पश्चात लिपि का जो तिथि-वृक्ष तैयार किया है, उससे भी यह स्पष्ट होता है कि गुप्त लिपि का काल 319 ई. से 588 ई. है। सुनीती कुमार चटर्जी (1970) ने बनावट एवं भौगोलिक दृष्टि से न्यू इंडो आर्यन भाषा की पूर्वी गुप्त लिपि के अन्तर्गत कैथी लिपि का वर्णन किया है। भाषा विज्ञानियों तथा लिपि विज्ञानियों में कैथी लिपि की उत्पत्ति के  सम्बन्ध में थोड़ी भिन्न्ता मिलती है फिर भी अधिकांश विद्वनों के मत से यह स्पष्ट है कि कैथी लिपि का उद्धव / विकास छठी सदी में हुआ था। दूसरे स्तर पर कैथी लिपि की प्राचीनता समझने के  लिए प्रमाण के रूप में कायस्थ जाति की उत्पत्ति को देखना होगा। जिस जाति की पारिवारिक लिपि यह रही है और जिसके आधार पर इस लिपि का  नामकरण कैथी हुआ, वह जाति या वर्ग गुप्तकाल में कायस्थ के नाम से प्रसिद्ध था, जो ग्राम प्रशासन के कर्मचारी थे। साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथों में भी लिपिक को “कायस्थ’ माना गया है। कायस्थ तत्कालीन राजकीय कचहरियों में लेखकों (क्लर्क) तथा गणकों (एकाउंटेंट) का काम करते थे। कायस्थ जाति की प्राचीनता के सम्बन्ध में “इंदिरा गाँधी रा- मु- विश्व-(इग्नू) के सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ की पुस्तक भारतः प्राचीन काल से 8वीं सदी ईस्वी, (ई-एच-आई–02- इतिहास) प्रारंभिक मध्यकाल में संक्रमण – 9, इकाई 37-3 कायस्थों का विकासः’ में उल्लेख किया गया है कि मुनीम या कायस्थ समुदाय उस समय की सामाजिक आर्थिक शक्तियों की उपज थे। फलस्वरूप भूमि, राजस्व तथा भूमि का हस्तांतरण ब्राह्मणों, धार्मिक संगठनों तथा अधिकारियों को दिया गया था। भूमि- प्रमाणों को आवश्यक विवरणों के साथ रखना पड़ता था। इस कठिन कार्य को एक लिखने वाले वर्णो के द्वारा किया जाता था। जिसको बहुत नामों, जैसे कि कायस्थ, करण, करणिका, परत्तपल, चित्रगुप्त, अक्षपतिलिका आदि नामों से जाना जाता था। लेखन-कार्य करने वालों का कायस्थ-मात्र एक गुट था, जो राजा के यहां कायस्थ के पद पर कार्य करते थे। कायस्थ संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ होता है, लिपिक सह गणक। शीघ्रता-शीघ्र राजाज्ञा को लिखने के लिए एक विशेष शैली वाली लिपि का प्रयोग वे करते थे। जिसे उनके जाति वर्ग के आधार पर कैथी लिपि कही गई। कैथी लिपि में अक्षरों के ऊपर शिरोरेखा देने की परम्परा नहीं है। इसमें सभी अक्षर एक साथ लिखे जाते हैं। इसमें हर्स्व ‘इ’ तथा दीर्घ ‘ऊ’ की मात्र का प्रयोग नहीं किया जाता है। इसमें संयुक्त अक्षर जैसे – ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ, श्र आदि का प्रयोग नहीं किया जाता है और शब्द या वाक्य भी नहीं बनाया जाता है। इस लिपि का प्रधान गुण ही है शीघ्रता से संदेश को लिखना। अतः इसमें कोई संशय नहीं रह जाता कि कैथी लिपि की उत्पत्ति लिपि इतिहास और लिपि प्रयोग के अधार पर प्रथम सदी से लेकर छठी शताब्दी (गुप्तकाल) के बीच पललवित-पुष्पित एवं स्थापित हुई। यह कोई अवार्चीन लिपि नही बल्कि प्राचीन काल की लिपि है। कैथी लिपि उतनी ही प्राचीन है जितनी कि भारत की संस्कृति।

कैथीं लिपि का प्रचलन -

मुगलकाल के पूर्व ‘शेरशाह’ से लेकर ब्रिटिशकाल तक संपूर्ण उत्तरी भारत में बोली जानेवाली चाहे जो भी भाषा रही हो, लिपि उसकी कैथी ही रही है। 1880 ई. में सर अस्ले इडेन ने, जो बंगाल के लेफ्रिटनेंट गर्वनर थे, एक आदेश द्वारा कैथी लिपि को सरकारी काम-काज की लिपि का दर्जा दिया। फिर कचहरी लिपि के रूप में 1-1-1881 ई० को  कैथी को हटा कर नागरी लिपि को सरकारी लिपि स्वीकृत किया गया। लेकिन पुनः नागरी लिपि को अपदस्थ कर कैथी लिपि को सरकार ने 1882 ई. में सिंहासनस्थ कर दिया। देवनागरी लिपि आंदोलन का इतिहास में (डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु’ लिखते हैं कि – बिहार परिमंडल के स्थापन्न विद्यालय निरीक्षक जौन वेन सोमरन पोप ने पत्रांक- 3200, दिनांक- 21 जनवरी 1884 ई., के द्वारा यह स्पष्ट आदेश दिया था कि भविष्य में प्राथमिक विद्यालयों के लिए वैसी पुस्तकों का चयन नहीं किया जाएगा, जो कैथी लिपि में नहीं हों। सरकार द्वारा कैथी लिपि सिर्फ बिहार ही नहीं बंगाल के न्यायालयों और कार्यालयों में लिखित देशीय लिपि के रूप में कैथी को प्रतिष्ठापित कर दी गई थी। इसी लिपि में बंदोबस्ती के अभिलेख सुरक्षित रखे जाते थे। गाँवों में पटवारियों द्वारा जमीन और लगान के कागजात इसी लिपि में सम्पन्न किए जाते थे। यहां तक कि सरकारी गजट भी कैथी लिपि में ही प्रकाशित किए जाते थे।”

कैथीं लिपि का विरोंध

बीसवीं शताब्दी के आरंभ के उत्तरी भारत के सभी साहित्यकारों, राजनेताओं/ स्वतंत्रता सेनानियों ने लोकप्रिय जन-जन की लिपि, कैथी लिपि का पुरजोर विरोध किया। यहां तक कि बिहार-बंगाल के सभी समाचार पत्रों ने भी अपने सम्पादकीय लेखों में कैथी की खूब आलोचना की तथा विरोधपूर्ण लेख प्रकाशित किया। तृतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के कलकत्ता के वार्षिक अधिवेशन में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी ने 21 दिसंबर 1912 ई. को एक प्रस्ताव उपस्थित किया था, जिसमें सरकार से प्रार्थना की गई थी कि जो सरकारी कागजात, सूचनाएँ अथवा पुस्तकें वहाँ कैथी लिपि में छपती हैं, वे सब देवनागरी लिपि में ही छपा करें, क्योंकि देवनागरी लिपि ही सर्वव्यापिनी है। यह प्रस्ताव अधिवेशन में सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ। गहन विचार विर्मश के पश्चात  1913 ई० में सरकार ने यह आदेश दिया कि हिंदी भाषा में प्रकाशित विद्यालयों की हिंदी पाठय-पुस्तकों की एकमात्र लिपि देवनागरी होगी और कैथी लिपि में पाठय- पुस्तकें नहीं छपेंगी। सरकार का यह निर्णय 1914 ई० से प्रभावी हुआ। किंतु कैथी लिपि की लोकप्रियता का आलम यह था कि इस आदेश का प्रभाव कचहरियों में कैथी लिपि-लेखन पर नही पड़ा। विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित कर, जन आन्दोलन चला कर देवनागरी लिपि को स्थापित किया गया और धीरे-धीरे काल की गर्त्त में समा गयी कैथी लिपि। यह अदूरदर्शिता थी उस काल के जननायकों की।

दुष्परिणाम: -

मिथकीय आवरण को हटाकर देखा जाए तो कैथी लिपि काफी पुरानी लिपि है । विशेष कर बिहार प्रदेश सहित उत्तरी भारत के राज्यों के जिलों का लगभग दो हजार वर्षों का इतिहास इसी लिपि में संगृहीत है। समय-समय पर ऐसी हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ मिलती रही हैं, जिन्हें आज कोई पढ़ने-समझने वाला नहीं है। कैथी लिपि के प्रति सरकारी उदासीनता के कारण ही प्रदेश के गौरवपूर्ण इतिहास से हम अनजान हैं। भाई-भाई के बीच जमीन विवाद का मुख्य कारण जमीन के दस्तावेजों की लिपि का कैथी में होना है, जो 1970 के दशक तक लिखा गया। कैथी लिपि के ज्ञान के बिना पूरे उत्तरी भारत की लोक संस्कृति, लोक संस्कार और लोक इतिहास को जानना कठिन ही नही असम्भव है। इस लिपि के ज्ञान के अभाव में उत्तर भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के वैभव को कभी नहीं जाना जा सकता। अध्ययन के क्रम में देखा गया कि पुराने मंदिरों-मठों में कैथी लिपि में लिखित सैकड़ो हस्तलिखित ग्रंथ लाल कपड़ों में बंधे पड़े हैं । वे किसी से पढ़े नहीं जा पा रहे। इस तरह छींज रही हैं हमारी सांस्कृतिक धरोहरें और निष्प्राण हो गयी कैथी लिपि।