मंकीपॉक्स वायरस का नाम सुनते ही घबराने की जरुरत नहीं: डॉ. संजय राय
प्रफुल्ल राय शिवालिक
कार्यकारिणी संपादक
गौरवशाली भारत पत्रिका

पूरा विश्व अभी कोविड-19 वायरस से पूरी तरह से उबर ही नहीं पाया, तभी एक और वायरस ने कदम रख दिया, नाम है ‘मंकीपॉक्स’ वायरस। हालांकि मंकीपॉक्स वायरस एक ऐसी बीमारी है जो दशकों से अफ्रीकी लोगों में आम है, लेकिन अब वो दुनिया के अन्य देशों में भी फैल रही है। खासकर अमेरिका, कनाडा और कई यूरोपीय देशों में इसके मामले सामने आ रहे हैं। 15 देशों में अब तक 100 का आंकड़ा पार हो चुका है। हालांकि इस बीमारी का प्रकोप अभी बहुत व्यापक तो नहीं है, लेकिन कुछ देशों में आए नए केसों ने लोगो को चिंतित जरूर कर दिया है। भारत में भी इसे लेकर खलबली है। यूं तो देश में अभी इसका कोई केस नहीं है, लेकिन भारत सरकार पूरी तरह अलर्ट है और राज्य सरकारों ने भी तैयारी कर ली है। मंकीपॉक्स को लेकर नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल ने अलर्ट जारी कर दिया है। इसके साथ ही विदेश से आने वालों पर निगरानी बढ़ा दी गई है। मंकीपॉक्स वायरस से प्रभावित देशों से आने वाले लोगो को आइसोलेट करने को कहा गया है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा है कि इस बीमारी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। उसने कहा है कि किसी देश में इसका एक केस भी मिलता है तो उसे आउटब्रेक मान लिया जाएगा। सवाल है कि यूरोप में हलचल मचाने वाले मंकीपॉक्स से भारत को कितना खतरा है? इसके लक्षण क्या हैं? क्यों यह बीमारी तेजी से फैल रही है?
गौरवशाली भारत के कार्यकारी सम्पादक प्रफुल्ल राय शिवालिक ने मंकीपॉक्स वायरस को लेकर अखिल भारतीय आयुविज्ञान संस्थान (एम्स) के प्रोफेसर डॉ. संजय राय के साथ विस्तार से वार्ता की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश :
प्रफुल्ल राय शिवालिक : ये मंकी पॉक्स की जो चर्चा है, यह बीमारी किस वायरस की वजह से है?
डॉ. संजय राय: मंकी पॉक्स एक वायरल डिजीज है, लेकिन ये नजदीक संपर्क में ज्यादा फैलता है। यह अधिक संक्रामक नहीं है; क्योंकि अगर ज्यादा संक्रामक होता तो पिछले 50 साल से ज्यादा समय हो गया है, जब यह पहली बार आया था और अब तक कई बार यह महामारी का रूप ले लेता, यानी इसके सर्वव्यापी महामारी होने की संभावना (पैनेडेमिक पोटेंशियल) बेहद कम है। बेशक कुछ केस बढ़ने की खबरें हम देख सकते हैं, लेकिन इसको नियंत्रण करना आसान है। कोरोना के बाद से सर्विलांस सिस्टम और भी आधुनिक हो गए हैं, जिससे किसी भी वायरस का पता चल जा रहा है। घबराने (पैनिक होने) की जरूरत नहीं है।
मंकीपॉक्स के क्या लक्षण हैं, उसको कैसे पहचाना जाता है?
मंकी पॉक्स सेंट्रल अफ्रीका और ईस्ट अफ्रीका में सामान्यत पाया जाता है, यह वायरस वर्ष 1970 में पहली बार सामने आया (डिटेक्ट हुआ) था और यह उस समय पहचान में आया था, जब स्माल पॉक्स पर रिसर्च होती थी। उस समय कोई भी केस मिल जाता था तो उससे जुड़ी टीम को इनाम दिया जाता था और आज के समय में पूरी तरह से हम स्मालपॉक्स को मिटा चुके हैं। स्मालपॉक्स वायरस बहुत ही ज्यादा संक्रामक था। सबमें इन्फेक्शन फैल रहा था और उसमें मृत्युदर भी बढ़ी थी जो लोग बच जाते थे, उन पर भी कई तरह के दुष्प्रभाव बने रहते थे। मंकी पॉक्स के लक्षण भी वही हैं, जैसे कि बुखार आना, शरीर पर लाल चकते (रैशेस) आ जाना, सूजन हो जाना, यह सभी लक्षण हैं। थोड़ा लम्बे समय तक रहते हैं लगभग 2-4 हफ्ते तक, लेकिन अभी इतनी घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यक कोई नई बीमारी नहीं है। यह 50 साल पुरानी बीमारी है और अब तक इसने कभी भी सर्वव्यापी महामारी का रूप नहीं लिया है।
कोविड के समय डब्ल्यूएचओ की विश्वसनीयता पर काफी सवाल उठ रहे थे। क्या मंकीपॉक्स वायरस के मामले में भी डब्ल्यूएचओ के साथ वैसी कोई स्थिति है?
जी हाँ, दुर्भाग्य से कोविड के समय डब्ल्यूएचओ की भूमिका बहुत अच्छी नहीं रही, साइंस में हम हमेशा तथ्यों की बात करते हैं। शुरू से ही देखा जाए तो जो भी साक्ष्य थे, डब्ल्यूएचओ ने उन साक्ष्यों-तथ्यों को कहीं ना कहीं नकारा, जैसे आपसी संक्रमंण (म्यूच्युअल इन्फेक्शन) को नकारता रहा, वैक्सीन को ही प्रमोट करता रहा। विज्ञान के जो भी तथ्य मिले उसका इस्तेमाल नहीं किया गया। इसलिए यह कह सकते हैं कि कोविड के समय में डब्ल्यूएचओ की साख पर असर पड़ा और यह पूरी दुनिया के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य से सम्बंधित चीजों के मॉनिटर करने में डब्ल्यूएचओ की अहम भूमिका है। इसलिए ऐसे संगठन को निष्पक्ष और तथ्यों के आधार पर जानकारी सामने रखनी चाहिए। मंकीपॉक्स वायरस के बारे में अगर कहा जाए तो अभी डब्ल्यूएचओ ने इसके ऊपर ज्यादा टिप्पणियां नहीं की हैं। पर जो भी टिप्पणियां दी है वो अभी तक तो ठीक हैं, लेकिन फिर भी कोविड के समय जो जानकारियों की लापरवाही बरती गयी उसको देखते हुए आगे के लिए सतर्क रहना जरूरी है।
