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नृत्य मूल्यों की निर्मित एवं निर्वहन के लिए

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डॉ. कंचन भारद्वाज

हिन्दी की प्रवक्ता हैं तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्यापनरत हैं। एम.ए., एम.फिल.और पीएच.डी. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से की है। ‘स्त्री लेखन की भाषा’ पर शोधकार्य किया है। संगीत और अभिनय में इनकी रुचि है। तबला बजाती हैं, कविताएँ लिखती हैं।

कथक नृत्यांगना और कथक गुरु पद्मश्री शोवना नारायण जी प्रसिद्ध कलाकार हैं। 1992 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया और 2001 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बिहार सरकार ने 2021 में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया। इसके अलावा वे 40 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हैं। गुरु शोवना नारायण आई.आर.एस. (1976 बैच) की परीक्षा पास करके कुशल प्रशासक भी रही हैं। वे नृत्य की साधना में तीन वर्ष की आयु से समर्पित हैं। उनको शुरूआती शिक्षा नृत्यांगना साधना बोस जी से मिली। फिर वे मुंबई में रहीं जहाँ उनके गुरु कुंदनलाल सिसोदिया जी थे। जब वे दिल्ली आगयीं तब गुरु बिरजू महाराज जी से उन्होंने विधिवत प्रशिक्षण लिया। वे अभिनय और शास्त्र दोनों में पारंगत हैं। वे हिंदी साहित्य, संस्कृत साहित्य, उर्दू साहित्य, अंग्रेजी, भारतीय दर्शन और भारतीय नाट्यशास्त्र पर गहरी पकड़ रखती हैं। इसके साथसाथ उन्होंने 16 पुस्तकें भी लिखी हैं। वे शिक्षाविद भी हैं। उन्हें नृत्यांगना, गुरु, प्रशासक लेखक और संस्कृतिमर्मी के रूप में जाना जाता है। उन्होंने मुक्त छंद पर आधारित समकालीन कविता पर भी नर्तन किया है। वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई बेहद संवेदनशील कलाकार हैं। सामाजिक मुद्दों को उन्होंने अपनी कला के माध्यम से प्रस्तुत किया। मानवाधिकार, दहेज प्रथा, पर्यावरण, भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास से जुड़े विषय उनकी प्रस्तुतियों में देखे जा सकते हैं। 71 वर्ष की आयु में 68 वर्षों से उनके पाँव लगातार थिरक रहे हैं। साहित्य, समाज, दर्शन, शास्त्र सब एक साथ उनकी कला में प्रस्तुत हैं। वे शोधार्थी भी हैं। लगभग बीस सालों से वे कथक गाँवों पर शोध कर रही हैं जिस पर आधारित पुस्तक शीघ्र ही आप देखेंगे। उनके साथ डॉ. कंचन भारद्वाज द्वारा किया गया संवाद यहाँ प्रस्तुत है।

आपने बहुत सारे प्रस्तुतियाँ साहित्य और समाज से की: कबीर से लेकर संत कवयित्रियों तक और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त से लेकर रामधारी सिंह दिनकर व सीताकांत महापात्र तक। सबसे पहले बहुत उत्सुक हूँ यह जानने के लिए कि आपके साहित्यिक गुरु कौन हैं?

मेरी माँ । माँ (श्रीमती ललिता नारायण) हिंदी साहित्य में एम. ए. थीं।

आप अपने माता-पिता के बारे में कुछ बताइए?

मैंने माँ के परिवार में कभी ताला नहीं लगा देखा। जो भी कोई आता, माँ उसकी मदद के लिए सदैव तत्पर रहतीं। मेरे नाना 1927-28 में पहली असेंबली में इलेक्टेड मेम्बर थे। परिवार में साहित्यिक चर्चाएं  होती थी। मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर जैसे बड़े साहित्यकार घर पर आते थे। कथक बंदिशों में छेड़छाड़ होती थी या फिर भजन होते थे। मैं साहित्यिक माहौल से थी। माँ हमारे साथ कालिदास, भगवद्गीता पढ़ती थीं। मैं अंग्रेजी स्कूल में पढ़ती थी लेकिन घर में साहित्य पढाया जाता था। महीने में एक उपन्यास दिया जाता था और उसके बारे में पूछा जाता था। मैंने जैनेन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, जैनेन्द्र, विवेकानन्द और टैगोर सब पढ़े।

नृत्य आपकी 68 वर्षों की साधना है। नृत्य का उद्देश्य क्या है?

मेरे लिए नृत्य मेरी हृदय की अभिव्यक्ति का माध्यम है। नाट्यशास्त्र के अनुसार नृत्य के द्वारा लोगों में सही सोच पैदा करके उन्हें सही राह पर ले जाएँ।

तो यह उद्देश्य तो दर्शकों के लिए है। समाजोन्मुख उद्देश्य है। कथक नर्तक कथक सेवा करते हैं तो उनके लिए क्या आध्यात्मिक उद्देश्य है?

आध्यात्मिक है लेकिन रिचुअल भर नहीं है। इसके सही मूल्यों के निर्माण और उनके निर्वहन की बात है।

आपकी एक प्रस्तुति-‘नर्तकीः कवि दरबार में’ (1981) में कई कवि आपस में बात कर रहे हैं। दोहा, चौपाई, मुक्त छंद पर यह प्रस्तुति आपने बनायी है। यह प्रस्तुति कैसे बनी?

यह मेरी माँ का कांसेप्ट है। इसमें दिखाया था कि कौन बड़ा है और छन्दबद्ध और मुक्त छंद में क्या चुनौती है ?

गाँधी, विवेकानंद, बुद्ध भारतीय दर्शन और उर्दू साहित्य से जुड़े कई प्रोडक्शन आपने बनाये हैं, कुछ और बताइए।

देखिए, जब सबसे पहले 1979 में ‘बुद्ध’ किया तो लोग उसे पहले यशोदा समझे। मैंने कहा कि यह मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा है। रमण महर्षि पर बनाया। शुरू में गालिब, उमर खैय्याम किए 1974, 1979 में। कबीर, सूर, मीरा, प्रसाद (प्रलय की छाया) महादेवी के आलावा महावीर जैन वगैरह किये। बुद्ध पर एक ‘सुजाता’ (1988) किया।

अगर मैं कहूँ कि ‘गोद की धनी’ शोवना नारायण दिनकर की पंक्ति को ही साकार करती हैं तो यह गलत नहीं होगा। आपके शिष्य देश से लेकर विदेशों तक फैले हुए हैं। आपकी डांस रेजीडेंसी में लड़कियाँ आकर परिवार की तरह रहकर गुरु- शिष्य परम्परा में सीखती हैं। आपने अली सरदार जाफरी की एक नज्म ‘मेरा सफर’ पर एक शानदार कार्यक्रम इसी को आधार बनाकर बनाया। अपने शिष्यों के प्रति आपको  बहुत प्रेम है।उन पर आधारित यह कार्यक्रम कैसे बना, कुछ बताइए ?

पहले तो उनके बेटे नाजिम से दोस्ती हुयी। फिर अली सरदार जाफरी से । दोस्ती हुई। वे घर आए। ‘मेरा सफर’ की शायरी चल रही थी। उसकी खुमारी में खाना भी नहीं खाया गया ( हँसते हुए)।’ मेरा सफर ‘ उन्होंने मुझे दे दिया। हरेक के जीवन में यह दुविधा होती है कि मेरे बाद मुझे कौन याद करेगा… मैंने इसे एक नर्तकी की नजर से देखा।

 ‘राह दे राधे’ (1994) तेरह संत कवयित्रियों पर बना कार्यक्रम। स्त्रियों के प्रति आप जागरूक रहीं। उस समय आप जो कर रही थीं, उसके बारे में बताइए।

सब जगह स्त्रियाँ अपनी पहचान बनाना चाहती रही हैं और समाज उसमें बाधक बना रहा था। सहजोबाई, अक्का महादेवी, ललद्यद, राबिया इत्यादि। इसमें सब कवयित्रियों की कविताएं लीं और उनके जीवन से घटनाओं को लेकर यह कार्यक्रम बनाया।

आपने स्वतंत्रता के इतिहास को लेकर कई प्रोडक्शन बनाए। क्या पहले भी कथक में ऐसा होता रहता था?

‘सन्मति’ गांधी से जुड़ा बनाया। इसके बाद यह इतिहास की चीजें सामने आने लगी। रामू भाई (राममोहन गांधी) के साथ कई कार्यक्रम किए। उन्होंने कई स्क्रिप्ट लिखीं 1989। देवी दुर्गा, और महिसापुर, अहं आड़े आ रहा था। ‘साधू एंड द सेज’ (रामकृष्ण परमहंस पर), द क्लाउन आफ द सीसी (फ्रांसिस आफ सीसी) मोहन रंभा (गांधी पर) अनमास्किंग आफ डेथ (रमण महर्षि पर) है।

आपने बेगम हजरत महल (1999)पर भी कार्यक्रम किया।

वे अपने बेटे बिलकिस के लिए लड़ाई लड़ीं तो सही। यह खास बात है।

मतलब आप स्त्रियों के प्रति सजग नजर रखती ही हैं। स्त्री समस्या को केंद्र में रखकर जो अन्य कार्यक्रम बने हैं। उनके बारे में थोड़ा और बताइए।

जब अखबार में पढ़ा कि पिता के हाथों ही बेटी असुरक्षित है तो वह बैचेनी एक ‘ टूटा यह विश्वास क्यों’ में सामने आई। जब कमानी ऑडिटोरियम में किया तो पूरे हाल में लोग रो रहे थे।

नृत्य सम्प्रेषण का एक बहुत अच्छा माध्यम है तो क्या इस उदहारण से हम कह सकते हैं कि नृत्य के द्वारा सामाजिक चेतना का भी प्रसार किया जा सकता है और क्या यह वैचारिकी निर्मिति भी करता है ?

हाँ बिल्कुल। अन्य विषयों पर भी बात की है। जैसे मानवाधिकारों के लिए ‘मुक्तिलेखा’ देख सकते हैं। पर्यावरण के प्रति जागरूकता का प्रसार भी किया है। गंगा स्वच्छता पर भी किया है। दहेज प्रथा पर किया है।

सामाजिक चेतना के साथ क्या कभी आपने सुना है कि राजनीतिक चेतना के लिए भी नृत्य का प्रयोग किया गया है?

यदि आप इतिहास में देखें तो कभी- कभी इशारों में ऐसी बातें भी हो जाती थीं कि जिसको समझना है वह समझ जाता था।

1995 में ‘अनुत्तर’ कार्यक्रम में आपने हिजड़ों को केद्र में रखकर भी कुछ प्रस्तुति की थी। यह क्या था कुछ बताइए?

इसमें मैंने शिव जी से प्रश्न किये थे। यह तकनीक की दृष्टि से भी बहुत खास बना । एक ही स्टेज में लाइट का खास प्रयोग करके ‘डबल स्टेज’ टेक्नीक का प्रयोग किया। वैसे सबसे पहले यह 1984 में ‘कब आओगे राम’ में प्रयोग किया था। बाद में यह तकनीक ‘मुक्तिलेखा’ में भी प्रयोग की।यह मानवाधिकारों पर आधारित था।

आपने विज्ञान की पढ़ाई की है। एक कार्यक्रम की प्रस्तुति ‘अणु’ यानि विज्ञान पर आधारित की थी। विज्ञान और नृत्य का संगम यह क्या था?

हाँ इसमें ‘प्रिन्सिपल ऑफ फिजिक्स’ दिखाया था और इसमें बॉल का प्रयोग भी किया था।

आपकी अभी नई फिल्म आई है ‘आवर्तन’। गुरु शिष्य परम्परा पर आधारित बहुत शानदार फिल्म है। पहले भी आपके ऊपर दो- तीन फिल्में बनी हैं। ‘डांस आफ टेम्पल्स’ की खूब चर्चा हुई । कुछ उन फिल्मों के बारे में बताइए।

‘डांस आफ टेम्पल्स’ मैंने ही करवाया था। कई लोगों को इसमें लिया था। चारु माथुर। भारती शिवाजी। प्रतिभा भरतनाट्यम के लिए। और यह खजुराहो के कंदरिया महादेव के बिल्कुल अंदर डांस किया। बात यह है कि खजुराहो में चारो आश्रमों के बारे में पूरा आर्किटेक्चर है और लोग उसे केवल इरोटिक इमेज से जोड़ते हैं। जर्मन फिल्म है एक’देर तोड उन्द मैदेचेन’ (डेथ एंड द लिटिल गर्ल)। अकबर ब्रिज भी है।

आपने एक ‘शकुंतला’ सोलो किया और अभी आप ऑस्ट्रिया में फिर उसकी प्रस्तुति करके लौटी हैं। इसकी बहुत चर्चा हुई। जानना चाहती हूँ कि डांस ड्रामा’ समूह में टूप बनाकर नृत्य की आवश्यकता क्यों हुई?

कथक पहले तो सोलो ही होता था फिर समूह में होने लगा। वृन्दावन की रासलीला तो डांस ड्रामा ही है। नबाब वाजिद अली शाह रास लीला से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपने डांस को ‘रहस’ कहा। कुचिपुड़ी नृत्य में सिद्धेन्द्र योगी ने सोलो शुरू किया। उसमें पहले सोलो नहीं था। कथकली नृत्य हमेशा ग्रुप में डांस ड्रामा ही हुआ। बीच-बीच में सोलो आता है। भरतनाट्यम सोलो था। कथक मंदिरों में सोलो था। सत्रिया। यह सब देखकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने यहाँ डांस ड्रामा शुरू किया। ‘चांडालिका’ वगैरह।

डांस ड्रामा में कलाकारों ने अपने डांस में दूसरे नृत्य भी शामिल किये। जैसे मृणालिनी साराभाई ने भरतनाट्यम में कथकली को मिलाया। क्या कभी आपने भी कुछ ऐसा किया?

नहीं, मैंने तो हमेशा कथक ही किया। अगर कभी कोई आवश्यकता हुई, जैसे ‘छऊ’ की, तो उनके कलाकारों को आमंत्रित किया, करने के लिए।

अपने नृत्य संगीत में क्या आप विदेशी संगीत जैसे जैज या अमेरिकन संगीत का प्रयोग करती हैं ?

‘मुक्तिलेखा’ में उस प्रोडक्शन की डिमांड के अनुसार वैसा संगीत हमने ज्वाला जी के साथ बनाया था।

क्या आप अपने प्रोडक्शन के लिए विशेष अध्ययन भी करती हैं?

हाँ, जैसे ‘मुक्तिलेखा’ में वैश्विक मानवाधिकारों की बात थी तो सब शामिल करना था।

अपनी शैक्षिक संस्था के बारे में कुछ बताइए। क्या आपके घर डांस रेजीडेंसी में रहकर / आकर भी सीखते हैं ?

‘आसावरी’ नाम है उसका। जिससे से बहुत सारे विद्यार्थी जुड़े हैं। चालीस वर्षों से इसमें कथक सीख रहे हैं। देश विदेश से जुड़े विद्यार्थी अब ऑनलाइन भी सीख रहे हैं। हाँ घर आकर | रहकर भी सीखती हैं।