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गाँधी, अंबेडकर, बोस, सहजानंद और भारतीय वामपंथ कौन किसके साथ!

राघव शरण शर्मा

चिंतक एवं लेखक

वाराणसी स्थित नगर निगम के हाल में एक सभा आयोजित की गई थी, जिसमें मैं भी आमंत्रित था। इस सभा में कम्युनिस्ट पार्टी के एक विद्वान प्रतिनिधि ने अपने भाषण में वामपंथियों से आग्रह किया कि उन्हें शेर अली का अनुकरण करना चाहिए। शेर अली ने अंडमान में वायसराय लार्ड मेयो का वध किया था किन्तु वह ‘वहावी’ था। वर्तमान में लश्कर-ए-तोएबा, तालिबान, आईएसआईएस, हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकवादी संगठन उसी सिद्धान्त पर सक्रिय हैं। मैंने अपने अंतर्मन में विचार किया यह कैसा मार्क्सवाद होगा जो ‘वहावी’ का अनुसरण करे। बगैर अपना भाषण दिए मैं सभा से बाहर निकल गया, निकलते समय, एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेता के भाषण की आवाज कानों तक आ रही थी –

‘हमें बाबा साहेब अंबेडकर का भारत बनाना है’

जैसा कि प्रचारित किया जाता है, उसके मुताबिक भारत का शासन, शासन-प्रणाली, यह सभी कुछ बाबा साहेब का ही दिया हुआ है। बाहर निकल कर मैंने विचार किया कि जब सब कुछ बाबा साहेब के ही अनुसार है तो फिर नया भारत और कैसा होगा?

कम्युनिस्ट पार्टी के प्रबुद्ध विचारक एवं सर्वाधिक सक्रिय अनीश अंकुर ने मुझसे आग्रह किया कि आज वामपंथ, अंबेडकरवादियों के साथ है तो यह संश्रय सन् 1930 के दशक में क्यों नही बन पाया ?

इसके उत्तर निम्न हैं –

बाबा साहेब गोलमेज कांफ्रेंस में थे अंग्रेजों की पृथकतावादी राजनीति के साथ!

बाबा साहेब सन् 1930 के आसपास, गोलमेज कांफ्रेंस में अंग्रेजों की पृथकतावादी राजनीति के साथ थे। फिर वे सन् 1932 में महात्मा गाँधी के साथ पूना पैक्ट करते हैं, सन् 1937 के चुनाव में मिली हार के बाद वे अपने को महात्मा गाँधी के छल का भुक्तभोगी समझने लगे, यह वही समय था जब उन्होंने जातिवादी विचार  छोड़कर, इंडियन लेबर पार्टी का गठन कर राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश किया। सन् 1938 ई. में बाबा साहेब ने मुंबई में स्वामी सहजानंद के अभिनंदन में एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें अमृतपाद डांगे, मीरजाकर, इंदुलाल याज्ञिक आदि वामपंथी नेताओं ने भी शिरकत की। बाबा साहेब का कहना था कि – ‘कांग्रेस बडे पूंजीपतियों की पार्टी है और महात्मा गांधी उनके नेता हैं, आप लोग कांग्रेस को छोड़कर बाहर आईये और हम लोग मिलकर एक नई पार्टी बनाएं’। स्वामी सहजानंद का उत्तर था – ‘हरिपुरा कांग्रेस के बाद (1938 ) कांग्रेस पर हम लोगों का कब्जा है, वामपंथ के नेता सुभाष चन्द्र बोस इसके अध्यक्ष हैं, तो हम लोग क्यों कांग्रेस को छोडें, आप कांग्रेस में आईये तथा वामपंथियों को मजबूत करिये’। बाबा साहेब, इस पर तैयार नहीं हुए। इसके बाद अंग्रेजों ने बाबा साहेब को प्रलोभन दिया कि सरकार आपको शीघ्र ही बड़ा पद देने वाली है और इस तरह से अंग्रेजों ने उन्हें वायसराय की कौंसिल का सदस्य बना दिया। इसके उपरान्त वामपंथ और बाबा साहेब के बीच खाई बढ़ती गई।

बाबा साहेब की अवसरवादिता, सौदेबाजी, पद की लिप्सा को दरकिनार कर हम वामपंथियों के लिए ठंडे मन विचार करने योग्य बात यह है कि क्या बाबा साहेब द्वारा दिये गये तर्क और प्रस्ताव गलत थे?

मेरी राय में वह उस समय, सही थे तथा स्वामी सहजानंद गलत थे। जो प्रस्ताव बाबा साहेब ने स्वामी सहजानंद को दिया, इसी समय ऐसा ही  प्रस्ताव जिन्ना ने सुभाष चन्द्र बोस को भी दिया था। जिन्ना ने सुभाष चन्द्र बोस से कहा था कि-

‘आप मेरे मित्र चितरंजन दास के आदमी हैं, अत: आपसे विमर्श किया जा सकता है, किन्तु आपसे बात करके क्या फायदा है? आप सिर्फ कांग्रेस के अध्यक्ष हैं परन्तु कांग्रेस आपकी नही है’। जिन्ना का आशय था कि कांग्रेस के सूत्र संचालक महात्मा गाँधी हैं तो उन्हें ही मुझ से बात करनी चाहिए ना कि कांग्रेस के अध्यक्ष को।

अंग्रेजों ने सुभाषवादियों को जेल भेजकर की महात्मा गाँधी को कांग्रेस सर्वे-सर्वा बनाने में मदद की!

बाबा साहेब की बात शीघ्र ही सत्य साबित हो गई, सारे सुभाषवादी, कांग्रेस से निकाल बाहर कर दिये गये, स्वंय स्वामी सहजानंद को छ: वर्ष तथा सुभाष चन्द्र बोस को तीन वर्ष के लिए कांग्रेस से निकाल बाहर कर दिया गया। अंग्रेजों ने भी स्वामी सहजानंद और सुभाष चन्द्र बोस सहित सारे सुभाषवादियों को जेल में ठूंस, महात्मा गाँधी को कांग्रेस का सर्वे-सर्वा बनाने में मदद की।

अंग्रेजों के नहीं, सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ था गांधी का ‘करो या मरो’!

सन् 1942 में जब जापान की सिंगापुर में विजय हो गयी, तब महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, अंबालाल, लालभाई आदि ने सोचा विश्वयुद्ध में जापान की जीत होगी। जवाहर लाल नेहरू, राजगोपालाचारी, जेआरडी टाटा, घनश्याम दास बिडला आदि अंग्रेजों का साथ छोड़ना नहीं चाहते थे, किन्तु महात्मा गाँधी ने करो या मरो का नारा लगा दिया, युद्ध में पासा पलट गया और जर्मनी की हार होने लगी, महात्मा गाँधी ने वायसराय को कम से कम पचास चिट्ठियां लिखीं तथा यह सफाई दी कि करो या मरो आपके खिलाफ नहीं, बल्कि सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ था, किन्तु वायसराय लार्ड लिंलिथगो को विश्वास नहीं हुआ। टाटा-बिडला प्लान के तहत अंग्रेजों तथा बड़े पूंजीपतियों ने जवाहर लाल नेहरू को नेता घोषित कर दिया, ऐसे में एक भी बड़ा नेता महात्मा गांधी के पास नहीं रह गया।

स्त्रोत :- यह पाठ गेल आम्बेट, सुनिति कुमार घोष, घनश्याम दास बिडला की आत्मकथा एवं महात्मा गाँधी के लिंलिथगो के नाम पत्राचार पर आधारित है।

पटना स्थित हुंकार प्रेस की स्वामिनी कमलाकार्यी, बाबा साहेब अंबेडकर और स्वामी सहजानंद के बीच हुई वार्ता की साक्षी रही हैं। उन्होंने ही इस बाबत मुझे बहुत सारी जानकारियां दी थीं, जिनका वर्णन करना छोटे पाठ में संम्भव नहीं है।