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ग्रामीण एवं जनजातीय, समाज में नारी शिक्षा

सुश्री साधना कुमारी

सहायक प्रोफेसर (अर्थशास्त्र), शासकीय लाल बहादुर स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरोंज, विदिशा।

एक कहावत है – जाके पांव न फटी बेवाई, वह क्या जानै पीर पराई। भारतीय ग्रामीण समाज की स्त्रियों की समस्या को समझने के लिए या तो आपको उसी समुदाय का होना पड़ेगा या आपकी मानवीय संवेदनशीलता अत्यंत उच्च कोटि की होनी चाहिए। मैं इसी समुदाय की युवती हूँ और मुझे ज्ञात है कि किन चुनौतियों का सामना करके और किन संघर्षों से गुजर कर मैंने अपनी शिक्षा पूरी की और एक सम्मानजनक शासकीय सेवा में मुझे स्थान प्राप्त हुआ। यह यात्रा सुखद नहीं थी। अपने अनुभव को यहां प्रस्तुत करने का एक मात्र कारण यह है कि भारतीय ग्रामीण समाज की जो लड़कियां संघर्ष कर रही हैं, उन्हें प्रेरणा प्राप्त हो और वे अपना हौंसला न छोड़ें। कोई भी समाज तभी मजबूत होता है जब उस समाज का हर वर्ग मजबूत हो। सिर और भुजाएँ बहुत मजबूत हैं, परंतु पैरों में दम नहीं है तो समाज मजबूत नहीं हो सकता। आज आरक्षण और प्रोत्साहन की यदि किसी को आवश्यकता है तो वे हैं दिव्यांग और भारतीय ग्रामीण समाज की दलित और वंचित स्त्रियां। भारतीय ग्रामीण समाज में जहां पुरुषों में ही शिक्षा का अभाव है, वहां नारी शिक्षा अच्छी स्थिति में हो ही नही सकती है। व्यवस्थागत राजकीय प्रयत्न लगातार 75 वर्षों में ऊंट के मुंह में जीरा प्रमाणित होते रहे हैं। इसलिए इस विषय पर अत्यंत संजीदा तरीके से विचार करके रणनीति बनानी पड़ेगी और उस रणनीति का अनुपालन भी करना होगा।

भारतीय ग्रामीण समाज प्रकृति के बीच में रहने वाला समुदाय है। प्रकृति को कम से कम क्षति पहुंचाकर और उसका संवर्धन करते हुये यह समुदाय अपनी जीविका चलाता है। शिक्षा और विकास से उसे उसका संपर्क आज तक बहुत कम हो पाया है। अनेक स्थानों पर सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाएं भी नहीं है। उस स्थिति में चिकित्सालय और विद्यालय हों- यह सोचा भी नहीं जा सकता है। प्रश्न उठता है फिर क्या किया जाए। कुछ भी करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और उद्देश्य के प्रति समर्पण आवश्यक होता है। यदि हम इस विषय में गंभीर हैं तो हमें सबसे पहले भारतीय ग्रामीण समाज की लड़कियों की शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। भारतीय ग्रामीण समाज में लड़कियां सात आठ वर्ष की होते ही घर के काम में हाथ बटाना शुरू कर देती हैं। यदि परिवार के लोग उनको विद्यालय भेजेंगे तो घर में काम करने के लिए एक व्यक्ति की कमी हो जाएगी। थोड़ी बड़ी हो जाने पर लड़की के जिम्मे पशु पालन करना, वन उपज एकत्रित और उसकी बिक्री करना भी आ जाता है। लड़की को शिक्षा के लिए भेजने के पहले उसके परिवार को उचित आर्थिक सहयोग प्रदान करना होगा।
यह सच है कि शिक्षा विकास की कुंजी है। शिक्षा के अभाव में कोई भी समाज न विकसित हुआ है और न हो सकता है। भारतीय ग्रामीण समाज की लड़कियों को शिक्षित करने के लिए यह जरूरी है कि उस परिवार को जिसकी लड़की को विद्यालय भेजने का प्रयत्न किया जा रहा है उसे आर्थिक रूप से सहायता प्रदान की जाए। इतना ही नहीं स्कूलों के समय को परिवर्तित किया जाना चाहिए। अगर वह दिन में पढ़ सकती है उसके पढ़ने की व्यवस्था दिन में हो, अगर वह रात में पढ़ सकती है तो उसके पढ़ने की व्यवस्था रात में की जाए। यहां विद्यालय को ही उसकी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित करना होगा। अति ग्रामीण इलाके में लड़कियां कुछ बड़ी होने पर घर की कमाने वाली सदस्य बन जाती हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पुरुष घर में बैठा बीड़ी पीता है या हुक्का गड़गुड़ाता है और ग्रहणी घर भी संभालती है और बच्चों का पालन पोषण भी करती है। वह बाहर से कुछ न कुछ कमाकर लाती भी है। अत: जब हम उसको शिक्षा के लिए भेजें तो उसके भरण पोषण की भी कोई वैकल्पिक व्यवस्था करें। जैसा कि निवेदन किया गया है कि विद्यालयों का महाविद्यालयों का समय इस प्रकार से परिवर्तित किया जाए कि ग्रामीण समुदाय की लड़कियों को विद्यालय जाने में असुविधाओं का सामना ना करना पड़े। कहीं पाठशालायें नहीं है तो कहीं शिक्षक नहीं हैं और यदि शिक्षक हैं तो वे पढ़ाने का काम नहीं करते हैं। अपने घर पर बैठे रहते हैं। अभी भी ग्रामीण समुदाय में पुरुष शिक्षकों से पढ़ने में लड़कियों को और उनके परिवार वालों को हिचक होती है। इसलिए उन्हें पढ़ाने के लिए, कम से कम प्राथमिक पाठशाला में, महिला शिक्षकों की व्यवस्था करनी पड़ेगी। इस कार्य के लिए समाज के सुधी लोगों और स्वयंसेवी संस्थाएं को आगे आना चाहिए। देश की अनेक सरकारों ने छात्रवृत्ति की योजनाएं लागू की हैं और प्राथमिक शालाओं में मध्यान भोजन की भी व्यवस्था है। अनेक बार ऐसे समाचार आया कि मध्यान् भोजन और छात्रवृत्ति में अनेक प्रकार के और घोटाले हुए। घोटालों को रोकने के लिए कठोर प्रशासन की आवश्यकता है। जिससे भारतीय ग्रामीण समुदाय का हक मारने वालों पर कठोर कार्यवाही की जा सके। आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षकों को कार्य करने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन भी प्रदान किया जाए। वर्ना तो सब शहरों की तरफ, शहरों से महानगरों की तरफ भागने की प्रवृति से ग्रस्त रहेंगे। इन क्षेत्रों में विद्यालयों की और चिकित्सालयों की व्यवस्था करनी होगी। अति ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सालय बहुत दूर हैं। यातायात के साधनों के अभाव में अनेक प्रसूताएं अस्पताल तक पहुंचने के पहले ही प्राण छोड़ देती हैं। अब आदिवासी समुदाय की कुछ विशेषताएं रेखांकित करती हूँ। मध्यप्रदेश का उदाहरण लें। मध्यप्रदेश में महानगरों में जैसे भोपाल, ग्वालियर, इंदौर इत्यादि में कन्या भ्रूण हत्या अधिक संख्या में होती है। आदिवासी क्षेत्रों, जैसे बड़वानी, खंडवा, खरगोन इत्यादि में कन्या भ्रूण हत्या अपेक्षाकृत बहुत कम है। आदिवासी समुदाय संवेदनशील है। वह अपराध करने से अभी दूर है। ऐसा समुदाय अपनों मूल्यों को संरक्षित रखते हुए शिक्षित होकर विकास की मुख्यधारा से जुड़ जाए तो पूरे देश का हित होगा। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जो जनजातीय समुदाय की महिला हैं, राष्ट्रपति के पद तक पहुंची हैं। यह इस समुदाय के लिए प्रेरणादायक अवश्य है। परंतु इस समुदाय की एक स्त्री के राष्ट्रपति बन जाने से शेष समुदाय की स्थिति बेहतर नहीं हो जाती है। वह मात्र प्रेरणा रहती है। समर्थ आदिवासी समुदाय बनाने के लिए सामान्य आदिवासी का औसत स्तर ऊपर उठाना होगा। श्रेष्ठ समुदाय में जनता का औसत स्तर ऊपर होता है न कि महान पुरुषों और महान स्त्रियों की संख्या अधिक होती है। हमें प्रयत्न करना होगा कि पूरे के पूरे समुदाय का स्तर उपर उठे।
कुर्सी बहुत सारी चीजें अपने आप सिखा देती है। जब पंचायती राज व्यवस्था कायम की गई तो वहां पर आरक्षण व्यवस्थाओं के फलस्वरूप अनेक स्त्रियां पंच और सरपंच बनी। कुछ काम करना नहीं आता था तो उनके पतियों ने उनके काम करने शुरू कर दिए और कुछ नए पद, जो संविधान के बाहर थे, अस्तित्व में आ गए – जैसे पंच पति सरपंच पति। पंच पति और सरपंच पति ने पंच और सरपंच के स्थान पर काम करना शुरू कर दिया। कुछ वर्षों में इस स्थिति में बदलाव आया है। आप महिला पंच और सरपंच के लिए पंच पति और सरपंच पति की भूमिका लगातार कम होती जा रही है। कार्य करना उसने सीख लिया है और सीख रही है। यह तर्क कि वह जब काबिल हो जाएगी तब उनको दायित्व दिया जाएगा, एक भटकाने वाला तर्क है, क्योंकि न वह कभी काबिल होगी और न उनको दायित्व दिया जाएगा। इसके विपरीत जब वह कार्य करेगी तब वह स्वत: काबिल हो जाएगी। कल्पना करके देखिए कि भारतीय ग्रामीण समाज की नारी जब समर्थ बनेगी तो देश कितना ताकतवर बनायेगा। इस दिशा मे नारी – संसद एक प्रशंसनीय पहल है। यह मंच प्रत्येक वर्ग की नारी की समस्या को मुखर करने के लिए प्रयत्नशील रहे और यह कार्य यहीं नहीं रुकना नहीं चाहिए, निरंतर चलते रहना चाहिए।