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सार्थक बदलाव की ओर…

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सार्थक बदलाव की ओर...

इंदिरा मोहन

लगभग तीन दशक से सकार कविता/गीत की साधना। ‘गीत-संग्रह’ पेड़ छनी परछाइयाँ (1994), ‘पीछे खड़ी सुहानी भोर’ (2001), ‘कहाँ है कैलास’ मुक्त छंद कविताओं का लोकप्रिय संग्रह (2005), गीत-संगह ‘धरती रहती नहीं उदास’ (2013) बहुचर्चित एवं प्रशंसित। ‘योगवसिष्ठ अनुशीलन’, ‘योगवसिष्ठ’ विशाल ग्रंथ का संक्षेपीकरण (2015)। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं एवं ग्रंथों में वार्त्ता, निबंध, लेख आदि का निरंतर प्रकाशन संकलन। सृजन के माध्यम से ऊर्ध्वमुखी,आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण। श्री विश्वनाथ संन्यास आश्रम सहित अनेक सामाजिक, साहित्यिक संस्थाओं, यथा हिंदी भवन (दिल्ली), हिंदी साहित्य सम्मेलन (केंद्रस्थ संगठन), सेवा भारती आदि से विभिन्न रूप में संबद्ध ।

आज उल्लास से भरी नारी, अपने वर्तमान को और भविष्य को उत्सुकता से देख रही है। राष्ट्र की आधी आबादी को उत्तरदायी व विवेकशील नागरिक के समान अवसर मिलते ही उसने अपने संकल्प, साहस और सामर्थ्य का परिचय दे दिया है। अब वह न तो खूंटे की गाय है, न कठपुतली, न गुड़िया है और न सजे साजे ड्राइंग रूम का शोपीस। अपने स्वयं को पहचान, अपनी शक्ति को तोल वह विज्ञान अनुसंधान, सेना जैसे कार्यक्षेत्रों में निकल पड़ी, जिससे उसे अभी तक वंचित रखा गया था। अनपढ़ स्त्री भी परंपरागत गत् दायरे से निकल अपने बलबूते खतरों से जूझ रही है। यद्यपि पति की भूमिका में बदलाव धीरे-धीरे का रहा है। फिर भी वे अपने श्रम से रोटी कामाने को गरिमा से युक्त हो कर सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय गतिविधियों में शामिल हो रही हैं। इस वर्ग की भागीदारी महत्वपूर्ण है क्योकि बहुसंख्य होने वे कारण के राष्ट्र के स्वरूप का निर्धारण करती हैं। नारी-जिजीविषा का क्या कहना? आज भी कदम-कदम पर असमानता और विषमता झेलते हुए वे अपने दायित्व के प्रति सचेत हैं भले ही सड़कों और कार्य स्थान पर स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही हों। यहाँ तक कि घरों में व घरों के बाहर छोटी-छोटी बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं है। समाचारपत्रों की खबरें इसका प्रमाण हैं। नारी शक्ति देखने में भले ही अबला हो किन्तु है वह आदिशक्ति है। अबला का रूप उसने निर्माण और सहकारिता के लिये बनाया है किन्तु समय आते ही वह दुर्गा, महाकाली बन सकती है। अपनी आंतरिक शक्ति के बल पर वह विपरीत एवं कठोर परिस्थितियों को झेलने में सक्षम है, उसकी ममता ने उसे खाद बनना सिखाया है। नीतिशास्त्र में एक प्रश्न किया गया- पृथ्वी से भी बड़ा कौन है? उसका उत्तर देते हुए ऋषि कहते हैं- ‘प्रथिव्या माता गरीयसी’ माता पृथ्वी से भी बड़ी है। माँ के त्याग, बलिदान और महानता के कारण ही मातृ शक्ति के प्रति असीम श्रद्धा आज भी बनी हुई है। वास्तव में नारी मूलत: माँ है, सर्जक है, शक्ति है, मानव शिशु को जन्म देने वाली पालनहार और इस नाते सृष्टि के विकास क्रम को आगे बढ़ाने वाली है। मनुष्य, प्राय: वैसा ही बनता है जैसा उसकी माँ ने उसे बनाया। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था ‘आप मुझे केवल सौ अच्छी माताएँ दीजिए मैं दुनिया का नक्शा ही बदल दूँगा’ आज भी सब सम्बन्धों से अधिक माँ का स्थान पूज्यनीय है। नारी को प्रकृति से ऐसी भीतरी ताकत मिली है कि वह अंधकार में किरण ढूढ़लाती है, संघर्ष की आंधी में हरी घास सी बिछ जाती है – जितनी कोमल है उतनी ही शक्तिशाली भी स्थितियाँ हमारे अनुकूल हों या प्रतिकूल जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, उसमें विश्वव्यापी परिवर्तन से बच निकलना मुश्किल है। अर्थ केन्द्रित सामाजिक मूल्यों की नई व्यक्तिवादी सोच ने अनेक आधे-अधूरे सवाल खड़े कर दिये हैं जिनकी जकड़न में पति-पत्नी और बच्चे ही नहीं घुट रहे, बुजुर्ग माता-पिता भी अकेलेपन और उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। शहरों से लेकर महानगरों मे अस्पताल, कचहरी और मनोचिकित्सक के क्लीनिकों में बढ़ती भीड़ इस सत्य का साक्षी है। अपने ‘लाखों के तारों’ को बड़े प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूलों में भेजकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ता होना असावधानी है। बच्चों की बढ़ती अनुशासनहीनता को माँ की जागरुकता ही रोक सकती है। यदि हम संतान को निर्देशित करने का अधिकार खो देंगी तब समाज की शक्ति कैसे वन सकेंगी। घर-बाहर दोनों का संतुलन ही नारी कुशलता और दक्षता की पहचान है। जैसे हाथ से छूटी गेंद सीढ़ियों पर नीचे गिरती ही चली जाती है, वैसे ही आरम्भ की असावधानी जीवन भर के विघटन का, असन्तुलन का कारण बन जाती है।

आज के सन्दर्भ में हमें समस्याओं का हल खोजना होगा। ऐसा हल जो बदलावों, परिस्थितियों सम्बन्धों से प्रभावित हुए बिना शान्ति, संतोष और का सार्थक सुख दे सके। ये सुख भौतिक सुख संसाधन नहीं दे सकते जिनको पाने की खीचातानी ने विश्व का परिदृश्य ही बदल दिया है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वह प्रकृति का दोहन करने की लक्ष्मण रेखा पार कर चुका है। विश्व में बढ़ती प्राकृतिक आपदायें, आतंकवाद, प्रदूषण और कोरोना जैसी विकराल विपत्तियों ने वस्तुस्थिति को निकट से देखने और सोचने को मजबूर के कर दिया है। असुरक्षा की बढ़ती घटनाओं के बीच नारी स्वयं को भीतर और बाहर से सक्षम बनाते हुए परिवार के महत्व को समय रही है। मानवता समग्रता से आती है – केवल नारी अथवा पुरुष बनने से नहीं। त्याग सत्य,प्रेम, धैर्य,अहिंसा आदि गुण सबके लिये जरूरी हैं। अधूरा देखना अथवा केवल एक पक्ष को देखना रोग का लक्षण है। जो सबको देखेगा वह पूरे ब्रह्माण्ड में छिपी एकता को देखेगा। यह एकता ही सत्य है, सत्य ही सौन्दर्य है। नारी मन अपनी संवेदना एवं समर्पण के कारण इस सत्य के अधिक निकट है। जो स्वयं अन्नपूर्णा है, गृहलक्ष्मी है, जिसके होने से घर-घर होता है उसकी शक्तियों को समझना होगा, स्वीकार करना होगा नींव के पत्थर दिखते नहीं किन्तु उनके बिना क्या इमारत का खड़ा होना सम्भव है? स्वतन्त्रता और समानता मांगने से नहीं मिलती, अपनी धुरी अपने केन्द्र को मजबूत करने से ही मिलती है। जो शक्ति पहले से विद्यमान है उसको ही जीवन्त, ज्वलंत और जागृत करने की जरुरत है। वरिष्ठ पत्रकार एवं चिन्तक देवेन्द्र स्वरूप का कहना है, ‘यह अपनी शक्ति को भूल रही है की वह विश्वामित्र जैसे ऋषि की तपस्या को भंग करने की सामर्थ्य रखती है तो कालीदास और तुलसीदास की प्रतिभा के उन्मेष का माध्यम भी बन सकती है।’ आधुनिकता के नाम पर, स्वतन्त्रता की चाह में आज अपनी पहचान बनाने की ललक ने समस्याओं और उलझनों को बढ़ाया है। इस सम्बन्ध में उदाहरण भी बहुत हैं और आकड़ों की भी कमी नहीं। जिसे हमारा मीडिया महिमामंडित करता आ रहा है। यहाँ तक कि नैतिकता, समर्पण, त्याग, दायित्वबोध जैसे मूल्य पिछड़ेपन के प्रतिक बन गए हैं। इस समस्या के लिए पश्चिम देशों को उलाहना देने से कुछ न होगा। इस विषय में न्यायलय और सरकार का हस्तक्षेप भी कुछ विशेष नही कर पायेगा। यहाँ तो स्वयं की सावधानी स्वयं की जागरूकता आपेक्षित हैं। आधुनिकता का अर्थ जीवन के शाश्वत मूल्यों का परित्याग नहीं उनका संवर्धन है। इस सनातन सत्य का साक्षात्कार ही हमें वर्तमान के पतन से बाहर निकाल सकता है। स्त्री का संघर्ष और पराजय भी जीवन का सच है और प्रेम,मातृत्व, मैत्री आदि भी जीवन के सच हैं। इनमें से कौन ज्यादा हों, कौन कम इस बात से तय होगा कि कौन सा प्रतिनिधित्व विकास की ओर द्वार खोलता है, कौन सा पिछड़ेपन की ओर। आज स्थिति स्पष्ट हो गई है कि आधी आबादी की भागीदारी के बिना न तो कोई बदलाव सफल हो सकता है और न किसी वैचारिक बदलाव के बिना आधी आबादी की वास्तविक मुक्ति की शुरूआत हो सकती है। इस पूरी स्थिति से जुड़े हुए कुछ बुनियादी सवाल हमारे सामने हैं, जिन पर सोचना वक्त की जरूरत है। आज भी भारत में अनेक भारत बसते हैं। यहाँ 19वीं सदी का जीवन है तो 21वीं सदी का भी जीवन है। गाँवों की सड़कों पर बैलगाड़ियाँ ठुमक रही हैं तो हवाई जहाज, ड्रोन और राकेट भी अपना दमखम दिखा रहे हैं। रेड़े- ठेले पर दुकानें हैं तो आलीशान एयरकंडीशनर मॉल भी हैं। इतना ही नहीं जीन्स, टीशर्ट, मोबाइल, स्कूटर भी घर-घर पहुँच गये हैं। ये विविधता अनुपम है, अपूर्ण है। यह विविधता ईश्वर का ऐश्वर्य है, साथ ही हमारी संस्कृति का वैभव है, जो आज भी हमारी आस्था को बल देकर अपने दम पर खड़े होने का साहस दे, नारी को निर्मय बना रहा है। आकाश को समझ कर ही पृथ्वी को समझा जा सकता है। ऊपर की शक्ति नीचे का द्वार खोलती है। छोटी-छोटी समस्याओं से उलझने की अपेक्षा अपनी भीतरी शक्ति के विकास पर समय लगाना जरुरी है। आन्तरिक शक्ति के लिए तप और तेज चाहिए-तपयानी धैर्य-संयम के साथ श्रम और संघर्ष। तभी ऐसी नारी शक्ति प्रगट होगी जो शान्तिकाल में ममतामय, त्यागमय, अन्नपूर्णा है तो आपातकाल में दुर्गा सी रक्षक और संहारक भी। यह शक्ति आती है पवित्रता से सात्विकता से, सहनशक्ति और धैर्य से। केवल बुद्धि और तर्क से यह आत्मबल सम्भव नहीं। वर्तमान सन्दर्भ में मौलिकता की रेत में फंसी जीवन नौका को निकालने के लिए स्वस्थ चिन्तन एवं संतुलित जीवन दृष्टि चाहिए। यह दृष्टि अपनी संस्कृति और संस्कारो द्वारा प्राप्त होती है। जिन्होंनें हमारे इतिहास, विकास और संघर्ष को भली प्रकार देखा है। अपने आचार-विचार में शाश्वत जीवन मूल्यों को शामिल करना होगा अन्यथा ‘ट्विन टावर्स’ सा जीवन कब बिखर जाये किसे पता? भारतीय चिन्तन सदा से समग्रतावादी रहा है। सबको साथ लेकर चलना उसकी विशेषता है जिसका आधार है-‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’- यह सब कुछ ब्रह्म है जो चींटी से लेकर ब्रह्मा तक सबमें एक सा विद्यमान है। यही एकात्मता ही शान्ति है, यही आत्मदर्शन है जहाँ सारे भेद व्यवहारकाल तक रहते हैं, वे सोच को आग्रही अथवा स्वार्थी नहीं बनाते। असंख्य बन्धनों के बीच संतोष और समानता का परिचय ही उस जीवन यात्रा की मंगलमय उपलब्धि है। आज भी बाह्य परिवर्तनों के बावजूद हमारी जीवन धारा में बुनियादी अन्तर नही आया है – रीति-रिवाज, उत्सव-पर्व, जीवन-मृत्यु और शादी विवाह के प्रति आदर का भाव बना हुआ है। परिवर्तन सनातन है। बहते समय को मुठ्ठी में नहीं रोक सकते। अत: अपना नजरिया बदलें,स्थितियाँ खुद ब खुद बदल जायेंगी। आपके पास यदि पारिवारिक सुख नहीं तो सारे सुख दुखरुपि हैं। सुखी परिवार दोष और तृप्ति की ऐसी बूंद है जिसको यदि गले में उतार लिया जाए तो मानवता आज भी विश्व-बंधुत्व की भावना से एक-हृदय हो सकती है। सार्थक बदलाव के लिए बदली स्थितियों के अनुरूप परस्पर निर्भरता की अनिवार्यता को समय, नारी-पुरुष की परिपवक्ता ही परिवार की शक्ति का नया स्वरूप है। परिवार केवल बंगला-गाड़ी सोफासेट,, कार्पेट का ढेर नहीं वरन हमारा जीवन दर्शन है। जहाँ जीवन मूल्य विकसित होते हैं, भावी पीढ़ी संस्कारित होती है, माता पिता का आशीर्वाद फलता-फूलता हैं। अपने कर्तव्यों के प्रति आज की नारी सजग, सचेत और चौकस है। उसके पैर जमीन पर हैं और दृष्टि में खुला आकाश है जहाँ सृजन के विश्वास का प्रकाश झिलमिला रहा है। बादल समुंद्र से जल लाता है, समुंद्र का खारापन अथवा गठरी भर नमक नही लाता- उसमें जो माधुर्य है, जो मधुरजल है वही लाता है।