गौरवशाली भारत

देश की उम्मीद ‎‎‎ ‎‎ ‎‎ ‎‎ ‎‎

क्या कला से दुनिया को बचाया जा सकता है ?

परिचय दास

भोजपुरी एवं हिंदी के महत्त्वपूर्ण
निबंधकार, आलोचक, कवि, सम्पादक,
संस्कृतिकर्मी हैं | संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन नव नालंदा महाविहार सम-विश्वविद्यालय, नालंदा में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष 

क्या कला से संसार को बचाया जा सकता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो दुनिया को नए सिरे से समझने व कला के औचित्य को जानने का मर्म देता है। कला को केवल उपयोग की दृष्टि से नहीं देख सकते | यह एक सतही या सामान्यीकृत बात होगी। कला के कई आयाम हैं । लेखक, वास्तु शिल्पी,अभिनेता, संगीतकार, चित्रकार, फिल्मकार आदि उसके अभिकेन्द्रक से निकलते हैं। कला वकलाकार स्वतः पारिस्थितिकी से रचनात्मक रूप से संबद्ध होते तथा पर्यावरण के प्रति जाग्रत होते हैं याहोने चाहिए। अनेक बार लेखकों, कलाकारों ने पर्यावरणीय सकारात्मकता को लेकर अपनी मुखर अभिव्यक्तियां की हैं, अभियान छेड़े हैं तथा पृथ्वी को सुन्दर, बेहतर व हरियालीभरी बनाए रखने के लिए उपक्रम किए हैं। नया से नया थिएटर बने, पार्क बने, भवन बने, सड़के बने, इन सब पर यह दृष्टि रहती है कि कलात्मकता के साथ-साथ पृथ्वी की पारिस्थितिकी सुरक्षित रखी जाए ताकि हमारा गायन, लेखन, चित्रकारी, वास्तुशिल्प इत्यादि पर्यावरणीय शुद्धता में संभव हो सके। बनारस, पटना, कानपुर, इलाहाबाद आदि की गंगा, आगरे की यमुना की शुद्धि हेतु अनेक प्रयत्न किए गए हैं। इस हेतु बने नये मंत्रालय से अपेक्षा है कि अधिक गति आए। गंगा-यमुना तथा अन्य नदियों की पवित्रता का अर्थ केवल वातावरण की शुद्धि नहीं, अपितु गंदगी से रहित होकर कलाओं के विविध आयाम खोजना है। गंदगी एक तरह से आपदा ही है। यह एक तरह का आपदा प्रबंधक है। इससे संस्कृति, अध्यात्म तथा पृथ्वी की उत्तरजीविका का नया अध्याय खुलता है। जल को बचाना पृथ्वी को बचाना ही है। अच्छे जल की एक-एक बूंद पृथ्वी की पवित्रता को अभिव्यक्त करती है। धरती पर रहने वाले हर व्यक्ति जीव को जल, वायु, भोजन स्थान ,स्वाधीनता आदि का मौलिक अधिकार है। इससे बेदखली का मतलब धरती को असंतुलित करना है। यदि हम धरती को और सुन्दर बनाना चाहते हैं तो इसे हिंसा रहित बनाना होगा। हिंसा कभी भी अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंचाती। युद्ध किसी चीज का अंतिम समाधान नहीं हो सकता,क्योंकि संवाद की संभावना बची रहती है संवाद ही एक दूसरे को जोड़ने का कार्य करता है ।
कलाएं व साहित्य संवादधर्मी होते हैं। उनकी मूल प्रस्तावना ही लगाव पैदा करना है, जो संवाद का हेतु है । एक बेहतर संवाद सार्क देशों, पूर्वी-पश्चिमी देशों तथा समूची दुनिया में सकारात्मक पर्यावरण दे सकता है। मनुष्यता के भविष्य के लिए एक अच्छा रास्ता है – कलाधार्मियों व वैज्ञानिकों के बीच संवाद-वृद्धि। चूकि वैज्ञानिक विविध माध्यमों से पृथ्वी को सुरक्षित करने व उसे बेहतर बनाने में लगे हैं, इसलिए उन्हें संवेदनशील आधार देने का कार्य कलाओं का है। ग्लोबल वार्मिंग की चेतावनी को जिस तरीके से वैज्ञानिक बताएंगे, उसे बांसुरीवादन थिएटर व कविता से अच्छे तरीके से अभिव्यक्त किया जा सकता है। यह उसी तरह से समझा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद के समाजशास्त्र व राजनीतिशास्त्र को रेणु के मैला आंचल उपन्यास से बेहतर जानना मुश्किल है। वस्त्र उद्योग की कलाधर्मिता में कपड़े के उपयोग, रंगों की रासायनिकता और पुनःचक्रीयता (रीसाइकिलिंग) आदि को ध्यान में रखें तो न केवल कला-मर्म प्रकट होगा अपितु पृथ्वी की संरक्षा भी बढ़ेगी । मांसाहार पर पुनर्विचार करें तो नए तथ्य सामने आएंगे। घरों में लगी हुई लाइटों (टंगस्टन लाइटों) के बदले एल.ई.डी. के ओलिवियर फायर लगाए गए तो लगभग 88 प्रतिशत ऊर्जा की बचत होगी जो एक बेहतरी की दिशा मानी जाएगी | इसीलिए इस समय के लेखक- कलाकार थिएटर, फिल्म, मीडिया आदि उद्योगों के लिए अन्तरराष्ट्रीय मानकों पर खरे उतरने वाले प्रोजेक्ट पर ही बल दे रहे हैं। फिल्म उद्योग ने कई बार अपनी डाक्यूमेंट्री के माध्यम से पृथ्वी के हरित वातावरण को बचाने का उद्यम किया है तथा वह अब भी कर रहा हैं।

सौर ऊर्जा को धारित करने उसे बचाने आदि को लेकर भी कलामाध्यमों ने मुहिम छेड़ी है । दिल्ली व भारत के पूर्वी, भागों में मनाए जाने वाले छठ पर्व में सूर्य की ऊर्जा को धारण करने के सांस्कृतिक उत्सवों के क्या कहने ! ये एक तरह से सांस्कृतिकता के साथ- साथ हमारी पृथ्वी के कोमल यथार्थ को भी बचाते हैं | पृथ्वी को मृत्यु से बचाने के लिए अनेक तरह के उद्यम करने पड़ते हैं। एक वास्तुशिल्पी भवन- निर्माण शिल्प एक नया सौन्दर्य शास्त्रीय व पर्यावरणीय पदबंध है । इसके आधार पर ही दुनिया बचायी जा सकती है। एक प्रसन्न पारिस्थितिकी का निर्माण उसका मूलाधार होना चाहिए। यदि उदाहरण लें , एक ओयेन एयर म्यूजिकल के निर्माण का तो लैण्डस्केप, संग्रहालय का आर्काइब नीचे एक स्टोरेज सिस्टम, कूल होने की व्यवस्था तथा न्यूनतम ऊर्जा की पूर्ति होनी चाहिए। यानी केवल भवन -निर्मिति से कार्य संभव नहीं | इसी तरह एक चित्रकार जागृति के संदेश के रूप में जनता के लिए चित्र बना सकता है, जिससे दुनिया को बेहतर बनाए रखने की उद्यमशीलता दिखती हो। जब चित्रकार अपने चित्र बनाता है तो उसमें वृक्ष, घास, हरियाली का वातावरण दिखता हैः मंदिरों के आसपास, विश्वविद्यालयों के आसपास, संसद के आसपास, कल्पना में कनॉटप्लेस के आस-पास कवि अपनी कविताओं में हरियाली, खेती, जल वायु, की शुद्धता को सृजनात्मक आधार देता है। यह भविष्यजीविता को ही आगे बढ़ाना है। भारतीय कविता में कालिदास की कृतियों तथा प्राकृत व अपभ्रंश की रचनाओं में प्रकृति-संरक्षण के अनेक रूप मिलते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वे प्रचार-प्रसार के लिए नहीं हैं। वे स्वतः उदभूत हैं, जिससे प्राकृतिक सृजनशीलता व पृथ्वी तथा इस संसार से गहन आत्मीयता झलकती है। पेड़-पौधों, बन लताओं, पशु-पक्षियों, कृमि-कीटों तथा प्राणिमात्र से लगाव मिलता है। हिन्दी में भक्तिकाल रीतिकाल व आधुनिक काल में इसका प्रचुर उल्लेख है। सेनापति, मतिराम, देव आदि में तो ऋतुओं वनस्पतियों व पारिस्थितिकी से अनुकूलित व आत्मीय संबंध दिखता है। सेनापति जैसे कवि का ऋतु-वर्णन पुनः पढ़ा जाना चाहिए। श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव द्वारा रचित उच्च भाव- संपन्न, निर्दिष्ट राग व विशेष ढंग से गाए जाने वाले बरगीतों में भी पृथ्वी व पर्यावरण को बचाने की गहन दृष्टि है. सीताकांत महापात्र जैसे समकालीन कवि का ग्रीष्म-बोध अपने तरीके से प्रकट होता है, जिसमें कविता-कथन की नवीनता , नए उपकरण तथा नया सौंदर्यपक्ष उपस्थित होते हैं, संसार की आत्मीय संरक्षा के साथ। कबीर को संबोधित कर- के विजयदेव नारायण साही तथा असाध्य वीणा की कई पंक्तियों के माध्यम से अज्ञेय भी वानस्पतिक शीतलता को व्यापक मनुष्यता से जाड़ देते हैं। कोणार्क में जगदीश चन्द्र माथुर अनेक वार पृथ्वी की रचनाशीलता को जल व वनस्पति के आयामों से संबद्ध करते हैं। भारतीय साहित्य के प्रतिभाशाली व्यंग्यकार केशवचन्द्र वर्मा राग, रंग व साहित्य के बहाने पृथ्वी को बचाने की अघोषित मुहिम छोड़ते रहे हैं।
कला इस दुनिया को सुन्दर बनाती है तथा हमारे भीतर की दुनिया को भी। जल-जंगल-जमीन को अपनी सृजनात्मकता से सुरक्षित करती है | वह वायु को प्रदूषण-मुक्त बनाती है। वह पृथ्वी को रहने योग्य बनाती है। वह समुद्र को हमारे अनुकूल बनाती है। वह रेत व अंधड़ को उपजाऊ भूमि में बदल देती है। वह मनुष्य से मनुष्य को जोड़ती है, संवेदित करती है।कलाकार, रचनाकार, वैज्ञानिक इत्यादि एकत्र होकर अपने-अपने माध्यमों से उद्यम करें (जो कि करना ही चाहिए) तो यह दुनिया बचेगी और सुन्दर व हरित बनी रहेगी। यह हरापन पृथ्वी को सौंदर्यपूर्ण बनाएगा तथा मनुष्य के अंतर्मन को भी |