फिरंगी राज की समाप्ति को 75 वर्ष होने को है और देश अब 75 वां स्वतंत्रता दिवस के साथ स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। स्वतंत्रता के 75 वर्ष के उपलक्ष में देशभर में स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, चारों और देशभक्ति का माहौल है। स्वभाविक रूप से स्वाधीनता संग्राम से संबंधित घटनाओं और स्वतंत्रता सेनानियों की अमर क्रांति की कीर्ति गाथाओं को याद करने का मौका भी है और दस्तूर भी है। सर्वविदित है कि स्वतंत्रता के समय में लाखों लोगों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया और हजारों सेनानियों ने अपनी आहुति दी। हालांकि स्वतंत्रता संग्राम की अनेक घटनाएं ऐसी है जो जन-जन तक पहुंचने से वंचित रह गई है और परिणाम स्वरुप हजारों सेनानियों को पर्याप्त सम्मान भी नहीं मिल सका। इसके मूल में अनेक कारण समझे माने-समझे जाते हैं। ऐसे में यह हम सभी भारतीयों का कर्तव्य दायित्व है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान और बलिदान देने वाले अमर सेनानियों को स्मरण करते हुए उनकी अमर गाथाओं को जनसामान्य तक पहुंचाएं जिससे कि हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ियां स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष को जाने और उनका महत्व समझ सके। इस कड़ी में 75 वें स्वतंत्रता दिवस पर हमने “चौरी-चौरा” जन विद्रोह पर व्यापक प्रकाश डालने का प्रयास किया है।
ब्रिटिश शासन के दौर में घटित एक घटना के कारण 4 फरवरी 1922 का दिन इतिहास के पन्नों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण तारीख के रूप में दर्ज है। हालांकि इस इस ऐतिहासिक तारीख को कतिपय कारणों से हाल ही तक उतना महत्व नहीं मिला, जितना कि मिलना चाहिए था। इस दिन घटित घटना को हम और आप “चौरी- चौरा” कांड के रूप में जानते हैं जबकि वह किसी भी दृष्टिकोण से कोई कांड नहीं था, बल्कि फिरंगी दमन के विरुद्ध एक जन क्रांति थी। “चोरी-चोरा” कस्बा वर्तमान में गोरखपुर जनपद की तहसील है। “चोरी-चोरा” वह जगह है जहां “जलियांवाला बाग” की तर्ज पर किए गए नरसंहार के प्रतिकार स्वरूप ही फिरंगी शासन के विरुद्ध 4 फरवरी 1922 को “जन विद्रोह” की ज्वाला भड़की थी। फिरंगी शासन के अत्याचारों के विरुद्ध पनपे जन-आक्रोश ने 4 फरवरी 1922 को हिंसक विद्रोह का रूप ले लिया था और असहयोग आंदोलन में शामिल सत्याग्रहीयों ने सशस्त्र पुलिस की गोलियों से बेखौफ होकर क्रांति का इतिहास रचते हुए पुलिस भवन को आग के हवाले कर दिया था। अग्निकांड में उक्त भवन में छिपे दरोगा समेत सशस्त्र 22 पुलिसकर्मी जिंदा जलकर मारे गए थे।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हुई जन क्रांति की यह घटना इतिहास के पन्नों पर अमिट अक्षरों में दर्ज है। फिरंगी दमन चक्र के कारण हुई जनक्रांति की इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को हिला देने का काम किया था। इस घटना की गंभीरता और महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि इसे लेकर “हाउस ऑफ कॉमन” तक में भी चर्चा हुई थी। भारत में हुए इस जन विद्रोह को फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत जैसा ही माना-समझा जाता है।
हालांकि यह बात जुदा है कि जन क्रांति के इस अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाक्रम को सिरे चढ़ाने वाले अमर सेनानियों को पर्याप्त सम्मान नहीं दिया गया। क्योंकि ब्रिटिश सत्ताधीशों ने जहां अपने हितों को दृष्टिगत रखकर इसे जनक्रांति के बजाय वर्ग संघर्ष के कारण हुई एक आपराधिक वारदात दिखाने-बताने का कुतिस्त प्रयास किया, वहीं विभिन्न कारणों से तत्कालीन कुछ बड़े नेताओं के साथ ही, इतिहासकारों, साहित्यकारों और पत्रकारों ने भी फिरंगी शासन के विरुद्ध हुए इस जन विद्रोह को एक मामूली घटना की तरह दिखाया। उन्होंने इसे सामान्य सा स्थानीय मामला बताते हुए तथ्यों को अपने मन मुताबिक प्रस्तुत करते हुए बहुत हल्के शब्दों में इसका वर्णन किया। स्वतंत्रता के बाद भी सरकारों ने “जलियांवाला बाग” की तर्ज पर फिरंगी शासन द्वारा “चोरी-चोरा” में किए गए नरसंहार के परिणाम स्वरुप पनपे जन आक्रोश से हुई क्रांति की इस घटना को पर्याप्त महत्व नहीं दिया। कुल मिलाकर हमारे अधिकांश इतिहासकार और लेखक इस विषय पर उदासीन ही दिखे।
हालांकि वर्तमान केंद्र सरकार के साथ ही उत्तर प्रदेश समेत विभिन्न राज्यों की सरकारें अब देश के इतिहास को सही रूप में प्रतिष्ठित करने और और दबा छिपा दी गई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं और तथ्यों को उजागर करने में जुटी है। इसी क्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल के बाद इतिहास के पन्नों पर चढ़ी धूल हटाने का कार्य शुरू हुआ। “चौरी-चौरा” जन क्रांति के 100 वर्ष पूरे होने पर इस साल फरवरी महीने में “चौरी-चौरा” शताब्दी महोत्सव का शुभारंभ किया गया। महोत्सव के अंतर्गत प्रदेश के सभी 75 जनपदों में फरवरी 2022 तक विभिन्न आयोजनों के माध्यम से “चौरी-चौरा” जन विद्रोह से जुड़े प्रसंगों और क्रांतिकारियों की शौर्य गाथा जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया जा रहा है।
जनक्रांति को दे दिया गया था कांड का नाम
“चोरी-चोरा” में ब्रिटिश राज के विरुद्ध हुई “जनक्रांति” को कांड का नाम दे दिया गया। सबसे बड़ी विडंबना यही है कि करीब 75 साल पहले स्वतंत्र हो चुके भारत में इस घटना को आज भी “क्रांति” नहीं बल्कि कांड कहकर ही संबोधित किया जाता है। यह सब तब हो रहा है जब हम और आप में से अधिकांश को बखूबी मालूम है कि कांड का शाब्दिक भाव अपराधिक गतिविधि होता है और “चोरी-चोरा” में जो कुछ भी हुआ था वह किसी भी दृष्टिकोण से कोई कांड नहीं था, बल्कि फिरंगी दमन के विरुद्ध एक “जनक्रांति” थी।
असहयोग आंदोलन और चौरी-चौरा जन विद्रोह
चोरी चोरा जन विद्रोह की घटना असहयोग आंदोलन के दौरान घटित हुई थी। इसलिए असहयोग आंदोलन पर प्रकाश डालना आवश्यक है। 4 सितंबर 1920 को कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन चलाने का प्रस्ताव पहली बार प्रस्तुत किया, जिसे 26 दिसंबर 1920 में नागपुर अधिवेशन में पारित कर दिया गया। इस क्रम में महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया गया। गांधी जी ने देशवासियों से ब्रिटिश हुकूमत का साथ नहीं देने की अपील करते हुए शांतिपूर्ण तरीके से असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर शामिल होने का आह्वान किया। इस आंदोलन का लक्ष्य स्वराज्य प्राप्ति था।
अंग्रेजी शासन से त्रस्त भारतीय जनमानस ने असहयोग आंदोलन को जोरदार समर्थन दिया। भारतीय क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी आवाज देश भर में और बुलंद की। स्वतंत्रता के इस अभियान में देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग जुड़ने लगे। असहयोग आंदोलन में शामिल होने को लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत का विरोध करते हुए सरकारी नौकरी, शिक्षा, सुविधाओं और वस्तुओं को त्याग करना शुरू कर दिया। असहयोग आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर समाज के हर एक वर्ग का समर्थन मिलना अंग्रेजी हुकूमत के लिए चिंता का विषय बन गया और उसने इसे कमजोर करने के तमाम हथकंडे अपनाने का काम किया। ब्रिटिश अफसरों ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति के जरिए आंदोलन को असफल करने का भरसक प्रयास किया। फिरंगी अफसरों ने “चोरी-चोरा” में भी इस आंदोलन को कुचलने के कुचक्र के तहत वहां सत्याग्रहियों का उत्पीड़न शुरू कर दिया। 4 फरवरी 1922 को “चोरी-चोरा” में जुटे हजारों सत्याग्रहीयों पर की गई बर्बरता से वहां मौजूद जनसामान्य का आक्रोश फूट पड़ा और फिरंगी पुलिस की फायरिंग से गुस्साई भीड़ ने थाना फूंक दिया। “चौरी-चौरा” में हुई हिंसक जन विद्रोह की इस घटना के बाद एक ऐसा पड़ाव आया जिसके बाद गांधी जी ने 12 फरवरी 1922 को बारदोली (गुजरात) में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आंदोलन वापस लेने का ऐलान कर दिया।
अंग्रेजों के प्रति गुस्सा था आंदोलन के हिंसक होने का मूल कारण
“चोरी-चोरा” में असहयोग आंदोलन के दौरान हुई घटना के मूल में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा था। अहिंसा के समर्थक गांधीजी असहयोग आंदोलन को किसी भी तरह की हिंसक गतिविधि से दूर रखना चाहते थे। उनका मानना था कि किसी भी अभियान-आंदोलन की सफलता के लिए उसका अहिंसक रहना अत्यंत आवश्यक होता है। “चौरी-चौरा” की घटना को गांधी जी ने अपनी अहिंसक विचारधारा पर बड़ा आघात माना और इसलिए उन्होंने हिंसा का प्रायश्चित करने का हवाला देते हुए असहयोग आंदोलन को समाप्त करने की घोषणा की। गांधी जी के द्वारा असहयोग आंदोलन की समाप्ति का फैसला करने पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस,देशबंधु चितरंजन दास, पंडित राम प्रसाद विस्मिल समेत तत्कालीन अनेक बड़े नेताओं ने नाराजगी जताते हुए उनकी जमकर आलोचना की थी। क्योंकि इस आंदोलन में “चोरी-चोरा” की तरह देश भर में अनेक सत्याग्रहीयों को फिरंगी हुकूमत के दमन का शिकार होना पड़ा था और कोई कई क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान भी दिया था।
दरअसल 26 दिसंबर 1920 को कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित होने के बाद “चौरी-चौरा” की घटना होने तक आंदोलन को पूरे देश में भरपूर सहयोग मिला और इन 2 वर्षों के दौरान ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध कश्मीर से कन्याकुमारी तक और लखनऊ से लाहौर तक लाखों करोड़ों देशवासियों ने जगह-जगह अनशन विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, विदेशी उत्पादों का बहिष्कार किया और हजारों लोग ब्रिटिश सरकार के पदों का त्याग करते हुए इस स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े थे।
महात्मा गांधी के आंदोलन वापस लेने संबंधी निर्णय को लेकर विद्वजनों का मानना-समझना है कि असहयोग आंदोलन ने स्पष्ट रूप से हर खास और आम भारतीय को बड़े स्तर पर स्वाधीनता के संघर्ष से जोड़ने का काम किया था, लेकिन आंदोलन के लंबे समय तक चलने-खींचने जाने से लोगों का धैर्य टूटने लगा था। परिणाम स्वरूप जन-सामान्य के दिलो-दिमाग में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा और घृणा का भाव पनप रहा था। फिरंगियों के दमनात्मक रवैयें से धीरे-धीरे पूरे देश में असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो रही थी। उस समय यह माना जा रहा था कि शांतिपूर्ण आंदोलन किसी भी समय हिंसक गतिविधि में परिवर्तित हो सकता था और गांधीजी अपनी अहिंसक विचारधारा के अनुरूप असहयोग आंदोलन को हिंसा से बचाए रखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपनी किरकिरी होने से बचाने के लिए ही “चोरा-चोरी” की घटना के बाद बातचीत का हवाला देते हुए असहयोग आंदोलन वापस ले लिया
“चौरी-चौरा” जान क्रांति ने स्वतंत्रता आन्दोलन को दी नई उड़ान
“चोरी-चोरा” जन विद्रोह कहे कि जनक्रांति या “प्रतिकार” लेकिन वास्तविकता यही है कि इस घटना ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई उड़ान देने का काम किया। स्वतंत्रता संग्राम को लेकर गहन अध्ययन करने वाले अनेक विद्वजनों का मत है कि “चोरी-चोरा” जन विद्रोह की घटना ने देश में फिरंगी राज के विरुद्ध क्रांति की मशाल को और तेजी से रोशन करने का काम किया। धीरे-धीरे हर आयु वर्ग के भारतीय नागरिकों ने स्वाधीनता संग्राम में अपने अपने स्तर पर बढ़-चढ़कर सहयोग-समर्थन दिया।
दरअसल अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बावजूद “चोरी-चोरा” नरसंहार की घटना की खबर तेजी से देश भर में फैल गई और इसमें फिरंगी शासन के विरुद्ध भारतीय जनमानस के मन में पनप रहे गुस्से को प्रतिकार की ज्वाला में परिवर्तित करने का कार्य किया और इससे प्रेरित होकर देश भर में क्रांतिकारियों ने अनेक घटनाओं को अंजाम देकर ब्रिटिश राज की नीव को कमजोर करने का काम किया। अमर शहीद क्रांतिकारियों के संघर्ष और बलिदान के परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को अतत: भारत से अपना बिस्तर-बोरिया समेटना पड़ा और देश आजाद हो गया।
यह था “चौरी-चौरा” जान क्रांति का पूरा घटनाक्रम
चोरी-चोरी जन विद्रोह से 2 दिन पहले 2 फरवरी 1922 को एक सेवानिवृत्त सैनिक भगवान आहिर के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन के अंतर्गत अनशन, धरना प्रदर्शन किया जा रहा था। उस समय ब्रिटिश दफ्तरों और बाजारों के बाहर असहयोग आंदोलन के तहत अनशन व धरना प्रदर्शन का सिलसिला पूरे देश में जारी था। इस दौरान विरोध प्रदर्शनों में लोग सरकारी दफ्तरों और विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों के बाहर शांतिपूर्वक नारेबाजी करते थे। भगवान आहिर के नेतृत्व में जब प्रदर्शनकारी विरोध कर रहे थे तभी पास में ही “चौरी-चौरा” पुलिस थाना में मौजूद पुलिसकर्मियों ने प्रदर्शनकारियों के साथ मार पिटाई की और भगवान आहिर के साथ कुछ लोगों को बंद कर दिया। इस घटना से लोगों में आक्रोश था।
“चोरी चोरा” में 4 फरवरी को गेरुआ वस्त्रधारी लगभग 4000- 5000 सत्याग्राही प्रदर्शन कर रहे थे। उनका लक्ष्य ब्रिटिश हुकूमत से अपने नेता भगवान आहिर को रिहा करवाना और लोगों को विदेशी वस्तुओं के त्याग के लिए प्रेरित करना था। प्रदर्शनकारियों के समूह ने पुलिस पुलिस भवन के पास पहुंचकर वहां ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों के खिलाफ नारेबाजी करते हुए भगवान अहिर को रिहा करने की मांग की। सत्याग्रहीयों के प्रदर्शन को विफल करने को फिरंगी प्रशासन ने भरसक प्रयास किए, लेकिन क्रांतिकारियों का जोश कम नहीं हुआ। इससे गुस्साए अंग्रेजी सरकार के पुलिस अफसरों ने आंदोलनकारियों पर फायर खोल दिया और गोलियां खत्म होने तक फायरिंग करते रहे। इस नरसंहार में सैकड़ों लोगों की जान चली गई।
“प्रतिकार” लेने के लिए क्रांतिकारियों ने फूंकी थी पुलिस चौकी”
सैकड़ों निर्दोष निहत्थे सत्याग्रहीयों के इस नरसंहार से प्रदर्शनकारी भीड़ उग्र हो गई और क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत को मुंहतोड़ जवाब देने की ठान ली। हालत बिगड़ते देख ब्रिटिश पुलिस कर्मियों ने भगवान आहिर और हिरासत में लिए प्रदर्शनकारियों को छोड़ दिया और भीड़ से बचने के लिए पुलिस भवन के अंदर पहुंचकर गेट बंद कर लिया। पुलिस फायरिंग में साथियों की मौत से भड़कें प्रदर्शनकारियों ने इस नरसंहार का प्रतिकार करते हुए पुलिस इमारत को आग के हवाले कर दिया। आगजनी की इस घटना में ब्रिटिश पुलिस के एक दरोगा गुप्तेश्वर सिंह समेत 22 पुलिस कर्मचारी मौके पर ही मारे गए एक पुलिसकर्मी बचकर भाग निकला जिसके बाद में ब्रिटिश हुकूमत की तरफ से इस केस में गवाही दी। ब्रिटिश राज में पुलिस थाने को फूंक देना एक बड़ी घटना थी जिसकी खबर देखते ही देखते हर जगह फैल गई।
जलियावाला हत्याकांड जैसी थी “चोरी-चौरा” घटना जिसे छुपाया गया
ब्रिटिश हुकूमत की पहले ही जलियांवाला हत्याकांड को लेकर पूरे विश्व में आलोचना हो रही थी जिस कारण उन्होंने “चोरी-चोरा” से जुड़ी इस घटना की अधूरी जानकारी दुनिया के सामने रखी थी। प्रदर्शनकारियों पर उस दिन ब्रिटिश प्रशासन की तरफ से की गई फायरिंग में सैकड़ों किसान मारे गए थे जिनकी जानकारी ठीक से सार्वजानिक नही की गई थी। अंग्रेजों ने सिर्फ 2 आंदोलनकारियों के मारे जाने की जानकारी प्रकाशित की और 22 ब्रिटिश पुलिस कर्मचारियों की मौत को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया। जबकि इस घटना में सैकड़ों भारतीयों ने भारतीय स्वराज के लिए अपनी जान गवा दी। जिस असहयोग आंदोलन को भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा अहिंसक तरीके से चलाया जा रहा था, ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों के हिंसक रवैयें आंदोलन में हिंसा का बीज बो दिया।
“चौरी-चौरा” की घटना ने फिरंगी शासन के विरुद्ध भारतीय जनमानस के मन में पनप रहे गुस्से को प्रतिकार की ज्वाला में परिवर्तित करने का कार्य किया और इससे प्रेरित होकर देश भर में क्रांतिकारियों ने अनेक घटनाओं को अंजाम देकर ब्रिटिश राज की नींव को कमजोर करने का काम किया।