जमाने से जड़ों की जंग
प्रफुल्ल राय शिवालिक
कार्यकारी संपादक
गौरवशाली भारत पत्रिका
शहर का शहरीपन तब समझ में आता है जब एकाकीपन महसूस होने लगता है
मुस्कुराइए आप क्योंकि हम लोग नए उपनिवेश की तरफ अग्रसर हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप इसे यूरोप और एशिया के अंदर बदलते राजनीतिक स्वरूप के साथ रख कर देखे। जमाना बदला और हमारे सोचने समझने की क्षमता भी बदली। हम मुख्यत: देखते हैं कि हम बात तो अतीत में जो हुआ है उसको लेकर करते हैं, किन्तु काम वर्तमान से प्रभावित हुए बिना नहीं कर पाते या यू कहे कि हम अतीत और उसकी घटनाओं का इस्तेमाल सिर्फ दर्शन के रूप में सामने वाले को समझाने के लिए करते है। हमने स्वयं एवं समाज के लिए जीना छोड़ दिया है। इस आपाधापी के बीच हमें मालूम ही नहीं चला कि हमने खुद के लिए आखिरी बार कब समय निकाला था। कहा जाता है कि फुरसत में ही हम अपना काम करते हैं पर वो भी अब नहीं हो रहा है। गाँव अगर जाना भी हुआ तो दिमागी तौर पर शहरी जीवन हावी रहता है। अब जमाना बदल गया है इस जमाने में लोग पिज्जा और बर्गर के सारे ब्रांड्स से वाकिफ हैं, मगर एक भी ऋषि या गोत्र का नाम नहीं जानते,आखिर क्यों? हमारी सनातन परंपरा में गोत्र एक शाश्वत पहचान है। ऋग्वैदिक कालीन ऋषियों के नाम पर आधारित इस पहचान में ही हमारा पूरा समाज समाया हुआ है। थोड़ा ध्यान हमें यह भी देना होगा कि क्या गोत्र पुरुष की वंशावली के आधार पर चलेगा या महिला की? क्या इस बारे में भी हमारे प्राचीन ग्रंथों में कोई व्यवस्था दी गई है?
जबकि हकीकत यह है कि पितृसत्तात्मक सत्ता के अलावा भी इस दुनिया में ढेर सारे लोग हैं जो माता के वंश से अपनी पहचान बताना चाहते है। सिंधु घाटी सभ्यता में भारी संख्या में स्त्री मूर्तियां मिलीं है। इस आधार पर इस प्राचीनतम समझी जाने वाली मानव सभ्यता को भी मातृ सत्ता माना जाता है। मातृसत्ता व्यवस्था गर्व का विषय होती है। यह अपने बुद्धिकौशल से याज्ञवल्क्य को चकित कर देने वाली गार्गी की परंपरा का देश है, जनक के ज्ञान अहंकार को परास्त कर देने वाली ब्रह्मवादिनी सुलभा का देश है। मै फिर भटक गया। अब लौटता हूँ मूल मुददे पर। कुछ नया सीखने के लिए अगर कुछ पुराना छोड़ना पड़ रहा है,तो वह सीखना हमारे लिए किस काम का रहा? हम अब ऐसे ढर्रे पर चल चुके हैं जहां,आने वाले समय में भी ढलान ही ढलान दिख रही है । लोग यह भूल जाते हैं कि नौकरी जीवन के लिए है,जीवन नौकरी के लिए नहीं। आज कोई भी पढा-लिखा आदमी खासकर नौजवान गांव में रहना नहीं चाहता है। उच्च शिक्षा प्राप्त किया हुआ कोई व्यक्ति अगर गांव में आकर पैसे कमाने के लिए ही खेती करता है तो वह खबर बन अखबारों की सुर्खियों में आ जाता है। इसका सीधा सा मतलब यह होता है कि उच्च शिक्षा ग्रहण कर खेती नहीं करनी चाहिए,गांव में नहीं रहना चाहिए। यह मीडिया का काम हो चला है, वही पर मौजूदा समय में परिवार का मतलब बड़े-बूढों से अलग सिर्फ पति-पत्नी-बच्चे तक सीमित होता जा रहा है। समाज एक बाजार बन गया है,जिसमें हर व्यक्ति एक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना हुआ है, स्वार्थपरायणता इस कदर बढ़ गई है कि पारिवारिक-सामाजिक ताना-बाना टूटता जा रहा है। एक तरफ घर के प्रमुख ( मलिकार) परिवार के लिये जिन्दगी लगा देते है। वही परिवार-संस्था आज बाजार के मानदंडों पर उतर रही है,अस्तित्व का संघर्ष कर रही है। बेशक वैश्वीकरण की बात हो सकती है। जरूर होनी चाहिए। मगर याद रखना होगा कि यह विश्व परिवारों का परिवार है। अगर परिवार नामक मूल इकाई न रही तो कैसा समाज? कैसा राष्ट्र? कैसा विश्वबंधुत्व ? कैसा ग्लोबल विलेज? कैसा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’? ध्यान देना होगा कि परिवार नाम की संस्था को कोई हिला नहीं पाया। यह गुलामी के दिनों में भी अडिग रही और दांपत्य संबंध जन्म-जन्म के साथ के रूप में चलता रहा। परिवार सामाजिक-जीवन का पहला और प्रमुख सरोकार है,मानव-सभ्यता की पहली मंजिल ! यदि यह मूल संवेदना ही नहीं है तो फिर समाजवाद और राष्ट्रवाद के सिद्धांत तो बौद्धिक-बहस मात्र ही है। आज हर आदमी शहर-बाजार की ओर दौड़ रहा है शहर ‘पश्चिम’ से आकर्षित है,तो जाहिर है सबका उद्देश्य जैसे-तैसे धन कमाकर ‘पश्चिम’की ओर भागना अथवा पश्चिम जाकर धन कमाना हो गया है’ पहले हमारा समाज निर्धारित करता था कि हमारा बाजार कैसा होगा लेकिन अब मौजूदा परिस्थितियों में बाजार निर्धारित करता है कि हमारा समाज कैसा होगा। लेकिन ये भी आज नहीं तो कल बदलेगा जरूर।