1857 की क्रांति के बाद का जाति-इतिहास सम्बंधी साहित्य
अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति में जाति विशेष के गांवों को पहचानने का अभियान चलाया, क्योंकि उस समुदाय के लोगों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में भाग लिया था। मध्य-बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में जातिगत नरसंहारों का स्वरूप स्पष्टत: दिखाई पड़ता था। कर्नल रैप्त्रे ने बाभनों (भूमिहार ब्राह्मण) के गाँवों में अनेकानेक फांसीघर बनवाकर उनका दमन मगध क्षेत्र में किया था। गया के आस-पास चौंतीस ऐसे फांसी घरों को जातिगत हिंसा की औपनिवेशक राजनीति के रूप में देखा जा सकता है। आरा में जातिगत पहचान कर, राजपूतों (क्षत्रिय) एवं यदुवंशियों की हत्यायें की गई थीं। मुजफ़्फरपुर जिला के बड़का गाँव में उन्नीस लोगों को फांसी दी गई, जिसमें सतरह भूमिहार ब्राह्मण और दो कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। मगध में भेलावर परगना का समूल विनाश किया गया। लड़ाके बाभन जगह-जगह भागकर गये। अब वे भेलौरिया मूल के ‘पाण्डेय भूमिहार’ कहे जाते हैं।
लगभग यही परिदृश्य उत्तर-प्रदेश के पूर्वी जिलों में था। गाजीपुर का शेरपुर, वीरपुर, मोहम्मदाबाद, गहमर, कुंडेसर, करईल, सैदपुर जैसे क्षेत्रों में अंग्रेजी सेना ने व्यापक तबाही मचाई।
बनारस से प्रयागराज तक लाखों की संख्या में जनता फांसी पर टांग दी गई। यह दावा कैप्टन ओ’ नील का है। गाँवों के नाम व जनसंख्या स्पष्ट करते हैं कि लड़ाके समुदायों को किस प्रकार की अमानवीय हिंसा का सामना करना पड़ रहा था। अतरौलिया के युद्ध की हार का बदला आजमगढ़ में नृशंस तरीके से लिया गया था। गाँवों में जातिगत हिंसा का भय एवं स्थानांतरण की भाग-दौड़ कुछ ऐसी थी कि भूमिहार-ब्राह्मण सुरक्षित क्षेत्रों में भाग रहे थे तथा वे अपने कान्यकुब्ज या सरयूपारिण मूल को मुख्य जाति बता रहे थे। उदाहरणार्थ रेवतीपुर के ‘पाण्डे’ ‘मंगल पाण्डे’ के सगोत्र किनवार मूल भूमिहार-ब्राह्मण की जगह भयाक्रांत स्थिति में केवल मूल नाम कान्यकुब्ज बताने लगे। फतहपुर में लौध (लौहघारक कृषकोपजीवी क्षत्रियों) का दमन केवल जातिगत आधार पर हुआ, क्योंकि ठाकुर दरियाब सिंह जैसे क्रान्तिनायक मूलत: लोध-क्षत्रिय थे।
ऐसी जाति हिंसा की ब्रिटिश नीति के अंतर्गत जाति-विषयक पुस्तकों का प्रकाशन आरंभ हुआ। ‘ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ङ’, ‘जाति-भाष्कर’ आदि पुस्तकों के पार्श्व में ‘जाति-विभाजक ब्रिटिश नीति’ की विशद् भूमिका थी। जोनाथन डंकन एवं जेम्स प्रिसेंप ने काशी जनपद के सामाजिक विश्लेषण में इस सिद्धांत का प्रारूप गढ़कर एक कुत्सित दृष्टिकोण का परिचय दिया था एवं ब्रिटिश विरोधी आयुद्धजीवी ब्राह्मण का मानमर्दन करना उनकी सुस्पष्ट योजना थी। कुर्मी, यादव, राजभर, राजपासी आदि युद्धप्रिय जातियों का मानमर्दन इसी योजना का विस्तार था जो स्पष्टत: ‘वंश भाष्कर’ में दृष्टिगत होता है। पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के ‘त्यागी -ब्राह्मणों’ के लिए ‘जाति-भाष्कर’ में लिखा गया वह अनैतिहासिक और अनैतिक दोनों ही हैं। इस दुर्भावना का एक बड़ा उदाहरण ‘जाति-भाष्कर’ में हेमचंद्र विक्रमादित्य (हेमू) जैसे महानायक के लिए प्रयुक्त ‘ढुसर बक्काल’ जैसा शब्द है। ज्ञात हो, हेमू भार्गव गोत्री आयुद्धजीवी ब्राह्मण थे।
वर्ष 1857 के बाद ही देश में ‘जातिगत सभाओं’ का जन्म भी हुआ। अखिल भारतीय कायस्थ-क्षत्रिय महासभा और अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा जैसे संगठनों का जन्म उन्नीसवीं सदी के मध्य के बाद हुआ। बीसवीं सदी के आरंभ में अखिल भारतीय नापित (नाई) सभा, त्रिवेणी संगम (कोयरी, कुर्मी एवं यादव) आदि संगठनों के अलावा चंद्रवंशी, निषाद, यदुवंश, कुर्मी क्षत्रिय आदि समाज का सांगठनिक स्वरूप भी सामने आया।