गौरवशाली भारत

देश की उम्मीद ‎‎‎ ‎‎ ‎‎ ‎‎ ‎‎

व्यक्तित्व के विकास का आधार

developement of childhood

डॉ. दीप्ति प्रिया, मनोवैज्ञानिक, दरभंगा (बिहार) की मूल निवासी, अपनी पढाई रांची (झारखण्ड) और बेंगलुरु (कर्नाटक) में पूरी करके पिछले डेढ़ दशक से मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं। गत वर्षों में इन्होंने मनोवैज्ञानिक विचार को साहित्य का धरातल देते हुए तीन पुस्तकें प्रकाशित की है।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था “बच्चे आशावादी पैदा होते हैं, लेकिन जीवन की अनुभूतियाँ सतत: मोह भंग करती हैं”। बच्चे वही सीखते हैं जो वह प्रत्यक्ष देखते हैं या अनुभव करते हैं। बच्चों की प्रकृति की नींव बड़ों के व्यवहारों से बनती व बिगड़ती है, उनकी प्रकृति की अभिव्यक्ति उनकी नींव पर आधारित होती है। गर्भाधान के समय से जन्म के बाद के प्रारंभिक वर्ष शिशु के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। चेतन और अचेतन अनुभव जो इन वर्षों में विकसित होते हैं उनका असर जीवन भर रहता है। माँ के गर्भ में ही मस्तिष्क और तंत्रिका प्रणाली (नर्वस सिस्टम) का विकास शुरू हो जाता है। गर्भाधान के लगभग दूसरी तिमाही तक यह शारीरिक कार्यों को नियंत्रित करना शुरू कर देता है जैसे हृदय की धड़कन। माँ के गर्भ में लगभग पांच महीने पूरे होने पर शिशु सुन सकता है और ध्वनि पर प्रतिक्रिया कर सकता है। जो महिलाएं गर्भवती हैं उनके स्वास्थ्य, खान-पान, वातावरण, मानसिक स्थिति, यह सभी गर्भ में बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं। गर्भ से लेकर जन्म के बाद के प्रारंभिक वर्षों तक माता-पिता की अभिव्यक्ति शिशु के शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य को लंबे समय तक प्रभावित करती है, आमतौर पर जीवन भर के लिए। शिशु के सीखने की क्षमता, वयस्क होने पर उसके संबंधों को, बेहतर जीवन जीने की क्षमता, सफलता; जीवन के लगभग हर हिस्से को प्रभावित करती है। आसपास के लोगों और परिस्थितियों का भी व्यक्तित्व के विकास में अहम भूमिका होती है।

बच्चे का मस्तिष्क विकसित होने की गति कल्पनातीत है। समग्र विकास के लिए जन्म के बाद प्रारंभिक 11 वर्ष उत्कृष्ट समय होते हैं। मुख्य रूप से इन वर्षों में ही ज्यादातर बच्चे अपनी क्षमता का विकास करते हैं, इन प्रारंभिक वर्षों में सकारात्मकता के साथ उचित ध्यान देने से बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य, सामाजिक योग्यता, मानसिक सतर्कता/स्वास्थ्य, भावनात्मक स्थिरता, नैतिकता, सीखने की योग्यता व क्षमता आदि पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

व्यक्तित्व के स्वरूप और विकास में उम्र और क्रम से जुड़े विभिन्न चरण शामिल हैं, इन पर विस्तृत रूप से चर्चा करने से ही विभिन्न आयाम दृष्टिगोचर हो पाएंगे। शैशवावस्था में व्यक्तित्व की जो मनःस्थिति और शारीरिक संरचना बनती है, बाल्यावस्था के प्रारंभिक वर्षों में उसका विस्तार होता है। बाल्यावस्था के आरम्भ से यही मनःस्थिति और शारीरिक संरचना बच्चे के संबंधों, परिस्थितियों तथा प्रत्यक्ष ज्ञान आदि में रूपांतरित हो जाती है, जो उसके व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है। माता-पिता, परिजन, संबंधी तथा अन्य लोग बच्चे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वह जैसा व्यवहार प्रदर्शित करते हैं, उसका प्रभाव बच्चे के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है, साथ ही इन्हीं व्यवहारों से प्रभावित उनका अहम् सम्प्रत्यय (सेल्फ कॉन्सेप्ट) भी विकसित होता है। स्वस्थ व्यक्तित्व का केंद्र “धनात्मक अहम् सम्प्रत्यय – पॉजिटिव सेल्फ कॉन्सेप्ट” होता है। शैशवावस्था वह समय है जब शिशु को यदि धनात्मक (पॉजिटिव) व्यवहार की दिशा दिखाई जाए तो बच्चे उसे तुरंत सीख लेते हैं, और यदि ऋणात्मक (नेगेटिव) व्यवहारों से उनका पोषण करें तो वह भी बच्चे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। माँ की भूमिका बच्चों के जीवन में विशिष्ट होती है, अतः बच्चों के प्रति उनकी माँ की अभिवृत्ति, विचार, व्यवहार आदि शिशु के व्यक्तित्व विकास को प्रभावित ही नहीं, बल्कि निर्धारित भी करते हैं। बच्चे के अहम् सम्प्रत्यय के विकास में उनके सहोदर की उपस्थिति व भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, जो बच्चे को एक जिम्मेदार या गैरजिम्मेदार व्यक्ति के रूप में स्थापित करने में प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं।

प्रारंभिक बचपन को अलग-अलग चरणों में विभाजित किया जा सकता है।

1. गर्भधारण से जन्म तक (मस्तिष्क और तंत्रिका प्रणाली के विकास की शुरुआत)

2. जन्म से 3 वर्ष तक (आशावादी, अनुभूतियों से विश्वास जागृत होने का समय)

3. 3 वर्ष से 6 वर्ष तक (स्कूल दाखिले की उम्र, आंतरिक क्षमता का एहसास होने का समय)

4. 6 से 8 वर्ष (स्वायत्तता से ठीक पहले)

5. 8 से 11 वर्ष (स्वायत्तता, स्वयं की विशिष्ट पहचान बनने से ठीक पहले)

6. 11 वर्ष से ऊपर (विशिष्ट पहचान बनने का समय)

दिए गए चरणों और उनकी समय सीमा कई बार अलग-अलग बच्चों में भिन्न हो सकती हैं इसीलिए इन सीमाओं को तय अवधि की जगह एक अनुमानित अन्तराल समझ कर, अपने बच्चों के विकास की गति और उनके वातावरण के अनुसार कदम उठाना लाभप्रद होता है।

प्रारंभिक दिनों में शिशु की प्राथमिक आवश्यकताओं पर संक्षिप्त चर्चा

शारीरिक आवश्यकता

शिशु की प्राथमिक आवश्यकता उनकी भौतिक संतुष्टि होती है जिसके अभाव में जीवन व्यतीत करने की परिकल्पना भी नामुमकिन है। शारीरिक आवश्यकताओं में भोजन, पानी, वस्त्र, आराम, निद्रा, एकाग्रता, आश्रय, अपरिचितों से सुरक्षा, इत्यादि, मूलभूत आवश्यकता है। जब शुरुआती दिनों में शिशु की भौतिक आवश्यकताएं पूरी होती है तो वह इस सोच को जागृत कर पाता है कि उसकी यह आवश्यकताएं जीवन में सर्वदा पूरी होंगी। उसके अंदर भौतिक सुरक्षा की भावना का निर्माण होता है। इस चरण में उसकी ज़रूरतों को प्रेम पूर्वक पूरा करना सहायक सिद्ध होता है, इससे बच्चों में यह विश्वास जागृत होता है कि उनकी आवश्यकताएं बोझ नहीं बल्कि सामान्य लोगों की भांति ही हैं। जब अभिभावक शिशु की आवश्यकताओं पर ध्यान देते हैं तो उन्हें जीवन संघर्ष पूर्ण नहीं प्रतीत होता है। पर जब अभिभावक शिशु के विकास के इन दिनों में उन्हें रोता बिलखता छोड़ देते हैं या फिर डरा-धमका कर या मार-पीट कर चुप कराते हैं तो उनके अंदर जीवन के लिए निराशावादी विचारों का उत्थान होता है, और फिर व्यवहार भी नकारात्मक सोच से प्रेरित हो जाता है। माता-पिता व परिजनों को अपनी हर सोच व व्यवहारों पर ध्यान देना अतिआवश्यक है, क्योंकि एक नकारात्मक विचार कई उलझनों की जननी है, जिसका सीधा प्रभाव बच्चों के जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है। सकारात्मक व्यवहार कई उलझनें रोक व समाप्त कर देती हैं।

सुरक्षा की आवश्यकता

दूसरे चरण में बच्चों की प्राथमिक आवश्यकता सुरक्षा होती है। यहां सुरक्षा से तात्पर्य मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक अस्तित्व की सुरक्षा है। यह बच्चों का अधिकार है, अभिभावक उन्हें आश्वस्त करें कि उनके जीवन को कोई खतरा नहीं है (जैसे दुर्घटनाओं और बीमारियों से सुरक्षा), साथ ही हमें भावनात्मक आवश्यकताओं को भी पूरा करना चाहिए (जैसे सुरक्षित वातावरण जहां बच्चे को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में संकोच न हो)। अपने जीवन में सुरक्षा के साथ स्थिरता की उपस्थिति बच्चों के अंतर्मन में अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की उपस्थिति का स्थाई रूप प्रदान करता है। विकास के इस चरण में बच्चों को अपनी हर बात को कहने का मौका देना श्रेष्ठ प्रयास है, अभिभावकों का अच्छा श्रोता बनना ही उनकी श्रेष्ठ परवरिश का सूचक है। कई बार माता-पिता व परिजन अपनी संतानों संग रहते हैं, उन्हें यही दिखाते और बतलाते हैं की वह महत्वपूर्ण हैं, पर यथार्थ में उनके संग समय न बिताते। उन्हें कई निर्देश और उपदेश तो देते हैं, पर उनके संग समय व्यतीत कर यह नहीं पूछते कि क्या कभी उनकी संतानों को उनसे कुछ कहना है, क्या कोई ऐसे प्रमुख प्रसंग या घटना की उनको चर्चा करनी है जो उनके जीवन को अच्छी या बुरी तरह प्रभावित कर रही है। उनकी मनःस्थिति को जानने की चेष्टा नहीं करते, जिसका कुप्रभाव उनके जीवन पर पड़ता है। बच्चों को यह सीख यदा कदा दी जाती है की दूसरों से किस प्रकार व्यवहार करें, कैसे बातें करें, परन्तु मुख्यतः बच्चे इस शिक्षा से वंचित रह जाते हैं की वह स्वयं से कैसा आचरण रखें, स्वयं से किस प्रकार सम्भाषित हों। अतः आत्मनिरीक्षण की प्रेरणा और अभ्यास के हेतु बच्चों को प्रेरित करना उत्तम प्रयास होगा।

प्रश्नों की पारावार यामिनी,

स्मृति अपांग, श्रुति स्वामिनी। || पृष्ठ-२०, पुस्तक ‘दीप्राणिका’

प्यार और संबंधों की आवश्यकता

बच्चों के विकास के तीसरे चरण में ‘संबंध एवं स्नेह’ की आवश्यकता महत्वपूर्ण है, यह भी बच्चों के लिए मूलभूत आवश्यकता है। सुरक्षा की आवश्यकता की पूर्ति होते ही इस तीसरे चरण की आवश्यकता स्वयं क्रियाशील हो जाती है। ‘संबंध एवं स्नेह’ की आवश्यकता की पूर्ति हेतु अन्य संबंधियों की आवश्यकता होती है, क्योंकि बच्चे अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं को स्वयं पूरा नहीं कर सकते हैं। शिशु व बच्चे प्रेम, स्नेह, सहानुभूति की अपेक्षा करते हैं। वह इसी भावना के तहत अपने माता-पिता, अभिभावक, निकट संबंधियों, पड़ोसियों, मित्रों तथा दूसरे लोगों से मधुर संबंध कायम करते हैं। वे दूसरों से स्नेह व स्वीकृति की आशा रखते हैं, दूसरे लोगों को स्नेह देते भी हैं और जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकारते भी हैं। अर्थात यह चरण जीवन में संबंधों की मिठास को समझने का प्रयास करना चाहता है। इस चरण में हर बच्चे का स्वभाव होता है कि वह दूसरों की मदद करें और वह दूसरों की कार्यों में रुचि भी रखते हैं, यहाँ वे ज़िम्मेदार और गैर-जिम्मेदार व्यवहारों में फर्क करना सीखते हैं।

ऐसी स्थिति में जहां रिश्तों में चुनौतियाँ हों शिशु व बच्चे उन्हें भी अपना लेते हैं, कभी-कभी वह अपने चेतन और अचेतन मन में जो अवधारणा बनाते हैं वह नकारात्मक्ता से प्रभावित होती है, जीवन के किसी भी तनाव पूर्ण स्थिति में ऐसी अवधारणा नकारात्मक व्यवहारों को प्रकट करती है। आसपास के परिवेश व परिवार में पायी जाने वाली संबंधों की मिठास, सामंजस्य, समरसता, सोहार्दय सदाचार का आधार होती है। वहीं संबंधों में चिड़चिड़ाहट, आवेग, क्रोध, पृथक्करण, उत्पीड़न दुराचार के लिए आधार बनती है। बच्चों को स्वयं और दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना सिखाना चाहिए, यह उसी अवस्था में संभव है जब अभिभावक स्वयं भी यह करें। बच्चे जो देख रहे होते हैं वही सीखते हैं, वही उनकी स्मृति बनती है, जिससे उनका व्यवहार प्रभावित होता है। इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया है कि उनके मित्रों में अभिभावकों की रुचि रखने से बच्चों में मनोबल बढ़ता है। उन्हें इस बात का एहसास कराना चाहिए की आप सदैव उनके साथ हैं और उनका सही–गलत के चुनाव में मार्गदर्शन कर रहे हैं।

‘स्व’ में ढूँढो मित्र ‘सुदामा’

‘स्व’ में जीतो ‘भीष्म पितामह’,

‘स्व’ ‘गुरुवर’ को रखना भू पर

‘स्व’ ‘मुरारी’ राजे अंतः!! || पृष्ठ-१०९, पुस्तक ‘विमोह’

आत्मसम्मान की आवश्यकता

‘संबंध एवं स्नेह’ की आवश्यकता पूर्ण होने पर बच्चों में स्वयं को गौरव पूर्ण बनाने की आवश्यकता विकसित होती है। अपनी एक अलग पहचान बनाने व स्वयं की विशिष्टता जानने की आवश्यकता की पूर्ति भी प्राथमिक आवश्यकताओं में सम्मिलित है। विशिष्ट पहचान बनाने का प्रयास करने से पहले आसपास के वातावरण और ‘स्व’ की समझ को बेहतर करने की जरूरत होती है। जब अभिभावक बच्चों को जीवन के सभी क्षेत्रों में नये-नये खोज करने की प्रेरणा देते हैं, तो उनमें उत्साह जागृत होता है। वहीं अगर कोई भी पहल करने पर उनकी आलोचना करते हैं या दण्ड देते हैं, तो बच्चों में दोष भाव उत्पन्न हो जाता है। क्योंकि संबंधों से निकले मीठे या कटु वचनों का सीधा प्रभाव बच्चों के अंतर्मन पर पड़ता है। इस समय बच्चे को कई तरह के प्रश्नों की अनुभूति होती है जैसे कि वे कौन हैं? किससे संबंधित हैं? और उनके जीवन की दिशा क्या है? बच्चे परिवार, परिजनों, विद्यालय, अध्यापकों से मिली जानकारी और अनुभूतियों को संग्रहित करके अपने मन में इन जानकारियों का अन्वेषण करते हुए अपने अंतर्दर्शन से अपनी धारणा बनाते हैं। जब कोई नई अनुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं, तब वह अपनी ऊर्जा को नया ज्ञान अर्जित करने में लगाते हैं, इसे परिश्रम के नाम से सम्बोधित किया जाता है। साथ ही इस चरण में अभिभावकों को बच्चों की उन विभिन्न भूमिकाओं और एक ही भूमिका के विभिन्न भागों की जानकारी भी लग सकती है, जिनका बच्चे पालन करना चाहते हैं या कर रहे हैं।

यदि इस समय में सही मार्गदर्शन, भावनात्मक समर्थन, संबल व स्वतंत्रता न मिले तो बच्चों में आत्म-सम्मान की कमी या पहचान भ्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बच्चों को अपने छोटे-छोटे निर्णय लेने दें; जैसे कौन से रंग के वस्त्र पहनकर उन्हें अच्छा लगेगा। सामान्यतः छठवीं कक्षा के बाद बच्चे अपनी विशिष्ट पहचान के लिए सजग हो जाते हैं, वे जिम्मेदारी लेने के लिए तत्पर रहते हैं, औरों पर विश्वास सहजता से करते हैं और यह अपेक्षा भी रखते हैं कि बड़े उनपर भी सहजता से विश्वास करें। अभिभावक की जिम्मेदारी निरंतर मार्गदर्शन की है, साथ में उन्हें यह भी करना होता है कि वह बच्चों की सभी प्राथमिक आवश्यकताओं पर ध्यान देते हुए उनको पूरा करें और बच्चों के आत्मसम्मान को कभी ठेस न लगने दें और स्वयं के प्रति जिम्मेदारियों को उठाने के लिए प्रेरित भी करें। यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि बच्चों के साथ दुष्कर्म व दुर्व्यवहार न हो, अधिकतम मामलों में ऐसी बातें घर में ही परिचितों द्वारा की जाती हैं, प्रायः अभिभावक अपनी प्रतिष्ठा के प्रति सजगता व अहंकार में यह स्वीकारते नहीं हैं, ऐसा करके वास्तव में वे अपने ही बच्चों के ऊपर हुए दुष्कर्म व दुर्व्यवहार के सह-अभियुक्त बन जाते हैं, स्वयं में वह धृतराष्ट्र का प्रतिबिंब नहीं देख पाते हैं। यह ध्यान रखना भी महत्वपूर्ण है कि दुष्कर्म व दुर्व्यवहार किसी के साथ भी, कहीं भी, और किसी भी उम्र में हो सकता है, चाहे बच्चे लड़का हों या लड़की।

मैंने मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे कई पीड़ितों पर काम किया और पाया है कि आमतौर पर सारी परेशानी का प्रमुख कारण सम्मान की कमी है। सम्मान केवल गीतकाव्य, कथाओं और शब्दों का अंशमात्र न हो अपितु भाव में परिवर्तित हों, भावनाएं सम्मान से प्रेरित हों, ऐसा करने से कई मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का समाधान हो सकता है।

Leave a Reply